Friday, 31 March 2017

बुन्देलखण्ड का मान ---राष्ट्रप्रेमी ,दृढ़ -संकल्पी ,नीतिपरक व्यकित्व एवं स्वाभिमानी वीर योद्धा छत्रसाल बुन्देला 
   हमारी इस पावन पवित्र वीरों के बलिदान की भारत भूमि का इतिहास किसी एक भू -भाग का ऋणी नही है ।प्राचीनकाल में अयोध्या ,मगध ,काशी ,मथुरा ,शक्ति केंद्र रहे तो बाद के वर्षों में उज्जैन ,पाटिलपुत्र शक्ति केंद्र बने ,इसके बाद मध्यकाल में दिल्ली ,कन्नोज ,पाटन फिर मेवाड़ ,मारवाड़ में शक्तिकेंद्रों का उदय हुआ।इसके बाद बुन्देलखण्ड की ताकत ने पुरे देश में स्थान बनाया और बुन्देलखण्ड को यह गौरव दिलाया महाराजाश्रीमान छत्रसाल बुन्देला ने ।
      वीरशिरोमणि छत्रसाल बुन्देला का 17वीं और 18वीं शताबदी में जितने बड़े भू -भाग पर शासन था ,उतना शायद पृथ्वीराज चौहान से लेकर देश आजाद होने तक किसी महाराजा का नहीं रहा जिसका प्रमाण है --इत जमुना उत् नर्मदा ,इत चंबल उत् टौंस ।
छत्रसाल सों लडन की ,रही न काहू हौंस ।।
छत्रसाल बुन्देलकेशरी सच्चे राष्ट्रभक्त योद्धा थे ।महाराजा छत्रसाल के पिता राजा चंपतराय एक वीर और जुझारू राजा थे।उनके जीवन का अधिकाँश समय मुगलों के विरुद्ध संघर्ष में ही व्यतीत हुआ ।संघर्षकाल के दौरान ही छत्रसाल का जन्म लिघौरा ,जिला टीकमगढ़ ,म0 प्र0 के महोबा चक्र की ओर पहाड़ियों की कंदराओं में सन् 1649 विक्रम संवत 1706 के ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया रविबार को हुआ था।कहते हैकि वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप का जन्म भी हिन्दू तिथि से इसी दिन हुआ था ।रणबाँकुरे छत्रसाल को जन्म से ही महलों की सेज तो प्राप्त नहीं हुई पर प्रकर्ति की गोद में रहने का सम्पूर्ण अवसर प्राप्त हुआ और सारा जीवन मुगलों से संघर्ष में ही बीता ।संवत 1718 में सादरा के धन्वेरे मुग़ल सैनिकों ने जब उनके पिता चंपतराय का धोखे से क़त्ल किया  उस समय छत्रसाल 13 वर्ष के थे ।उनके माता -पिता को अचानक मुगलों ने घेर लिया था तब दोनों ने मौत का आलिंगन किया ।छत्रसाल ने यह सब देखा  था ।उनका मन मुगलों के प्रति घ्रणा से भर गया ।अपनी असहाय अवस्था में भी उन्होंने मुगलों के विरुद्ध संघर्ष  को जारी रखने का संकल्प  किया ।यधपि तत्कालीन राजबाड़ों और परिजनों  ने उनकी उपेक्षा की किन्तु वे विचलित न हुये और मात्र पांच घुड़सवार तथा 25 युद्धाओं को साथ लेकर उन्होंने अपनी संघर्ष यात्रा  प्रारंभ की ।उनकी टुकड़ी में सभी जाति के लोग थे ।
   जब छत्रसाल मुगलों से लड़ने के लिए सहायता के लिए अपने काका महोबा के सुजानराय के पास पहुंचे तो उन्होंने शांत रहने का सुझाव दिया क्यों कि उस समय खुलकर मुगलों का विरोध करने की शक्ति किसी में नहीं थी ।किन्तु युवा छत्रसाल को यह अच्छा नहीं लगा और वे दक्षिण में महाराज छत्रपति शिवाजी से भेंट करने पहुंचे।धुन के पक्के और बात के धनी छत्रसाल से मिलकर महाराज शिबाजी का भी सीना गर्व से फूल उठा ।उन्होंने गले लगाकर कहा  "तुम जैसे वीर योद्धा स्वाभिमानी और दृढ़ संकल्पी युवकों की ही तो भारत माता बाट जोह रही है ,देश का उद्धार तुम्हारे ही कन्धों पर है ।अतः तुम वापस जाओ और अपने देश को स्वतंत्र कराओ ।उन्होंने छत्रसाल को आशीर्वाद स्वरूप एक तलवार भी भेंट की जिसे पाने के बाद छत्रसाल का मुगलों से संघर्ष का संकल्प और दृढ़ हुआ और शुरू हुआ महाराज छत्रसाल का स्वतंत्रता संग्राम ।शिवाजी ने कहा था  ----
करो देश को राज छता रे ,हम तुम ते कबहुँ नहिँ न्यारे ।
तुरकन की परतीति  न मानों ,तुम केहरि  तुरकन गज जनों।।
तुमहुं जाय देश दल जोरो ,तुरुक मारि तरवारिन्  टोरो।
यह कहि तेग मंगाय बंधाई ,वीर बदन दूनी दुति आई ।।
उन्होंने निश्च्य किया कि वे बुन्देलखण्ड को मुगलसत्ता से मुक्त कर स्वतंत्र  राज्य की स्थापना करेंगे ।मुगलों के अत्याचार ,दमन ,और शोषण से सारी जनता त्रस्त और परेशान थी ।छत्रसाल ने अपने संकल्प की घोषणा इस प्रकार की थी --
दौर देश दिल्ली को जारो। तमकि तेग तुरकन पर धरो ।
देशभक्त राजपूतों एवं अन्य युवकों को साथ लेकर छत्रसाल ने विजय अभियान शुरू किया ।उन्होंने अपनी शादी के अवसर पर ग्वालियर केसुबेदार नरवर खां   से युद्ध किया और उसको हराया ।सं0 1787 में 80 वर्ष की उम्र में  उन्होंने इलाहाबाद के मुग़ल सुवेदार मोहम्मद खां बंगश नेबुन्देलखण्ड पर आक्रमण कर दिया ।इस युद्ध में छत्रसाल ने बाजी राव पेशवा की सहायता से मुगलों को पराजित करके बहुत बड़े भू -भाग पर आधिपत्य कर लिया ।उस समय झांसी ,जालौन ,हमीरपुर ,बांदा ,ललितपुर ,भिंड ,मुरौना ,दतिया ,ग्वालियर ,शिवपुरी ,गुना ,टीकमगढ़ ,छतरपुर ,पन्ना ,दमोह ,विदिशा ,नरसिंघपुर ,सागर ,हौसंगाबाद ,रायसेन ,सतना ,सीहोर  ,भोपाल ,बेतुल /छिंदवाड़ा ,सिवनी ,कडेला ,बालाघाट आदि पर महाराज छत्रसाल का अधिकार था ।वर्तमान में ये जिले उ0 प्र0 और म0 प्र0 में है ।सन् 1671 में कालिंजर विजय के बाद छत्रसाल महू -महोबा लौट आये ।एक दिन वे समीप के जंगल में शिकार खेलने गये थे बहीं उन्हें स्वामी प्राणनाथ के दर्शन हुये ।स्वामी जी ने भी उनको मुगलों से युद्ध और स्वतंत्रता संग्राम संचालित करते रहने का निर्देश दिया ।छत्रसाल की दिग्विजय के समाचार जब दक्षिण में औरंगजेब ने सुने तो वह आग बबूला हो गया और उसने शाहकुली के नेतृत्व में एक जंगी फ़ौज छत्रसाल को दबाने हेतु भेजी किन्तु उसे हार का मुह देखना पड़ा ।80 -82 वर्ष की आयु में लगभग 60 _65 वर्ष उनके मुगलसत्ता के विरुद्ध संघर्ष में ही बीते ।अनेक विषमताओं और पराजयों के बावजूद वे अधिकाँश में विजयी रहे और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर उन्होंने बुन्देलभुमि को मुगलसत्ता से मुक्त कराया ।बुन्देलखण्ड के लोग आज भी महाराज छत्रसाल के जीवन से प्रेरणा लेते है ।उन्होंने विश्व बंधुत्व की भावना का विकास करके सर्व -धर्म समन्वय रूपी प्रणाली सम्प्रदाय को बढ़ाने में भरपूर योगदान दिया है ।निःसंदेह प्रातः स्मरणीय महाराज छत्रसाल सम्राट अशोक की भांति धर्म प्रवर्तक एवं धर्म दूतों के पोषक व् सृजक थे ।विक्रम संवत 1788 जेठ बदी 3 बुधवार  अर्थात 12 मई 1731 को नवगांव से 4 किलोमीटर दक्षिण में भड्सहानियां गांव में छत्रसाल देवलोक सिधारे ।
18 वर्ष से 80 वर्ष तक तलवार हाथ में लेकर घूमने वाला वीर इस देश में दूसरा कौन है ,कोई बता सकता है क्या ?शायद नही यह शौभाग्य इस देश में सिर्फ बुन्देलखण्ड की पावन पवित्र धरती को जाता हैकि उसका एक लाडला 62 वर्षों तक भारतभूमि की स्वतंत्रता के लिए युद्धों में मुगलों से जूझता रहा ,ऐसे वीर स्वाभिमानी योद्धा सैकड़ों नहीं हजारों वर्षों में कभी -कभी धरती पर अवतरित होते है ।निश्चय ही छत्रसाल बुंदेला ने राजपूत जाति को गौरव प्रदान किया है वह चिरस्मरणीय रहेगा ।धन्य है बुन्देलखण्ड की पावन पवित्र धरती जहाँ छत्रसाल अवतरित हुये और धन्य है बुन्देलखण्ड के लोग जिन्हें वीर शिरोमणी महाराज छत्रसाल के गुणगान करने का सौभाग्य मिला और उनके आदर्शों पर चलकर कुछ कर गुजरने की प्रेरणा उनके बच्चे -बच्चे को उपलब्ध है ।इतिहास ऐसे वीर छत्रसाल बुन्देला का आभारी है और रहेगा ।जय हिन्द ।जय राजपूताना ।

लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन ,गांव -लढोता ,सासनी ,जिला -हाथरस ,उत्तरप्रदेश ।
  
   
इनकी भी याद करो कुर्वानी
हल्दी घाटी का विस्मरत बलिदानी।
राजा रामशाह तौमर
वीरवार रामशाह महाराणा प्रताप के विश्वसनीय सहायकों में से एक थे।हल्दीघाटी के युद्ध में इन्होंने और इनके तीन पुत्रों एवंम एक पौत्र तथा चम्बल क्षेत्र के सैकड़ों राजपूतों ने भाग लिया था।प्रताप की सेना के दक्षिड़ी भाग का नेतृत्व रामशाह तौमर ने कीया था।इनका मुकावला मुगलों के बाए भाग के नेता गाजी खान बदख्शी से हुआ था।भयंकर युद्ध हुआ और राजपूतों के प्रवाल पराक्रम के सामने गाजी खान रणक्षेत्र छोड़ कर भाग गया।इस युद्ध के प्रत्यक्षदरसी और अकबर की और से लड़ने वाले मुल्ला अब्दुल कादर बदायुनी ने रामशाह के इस पराक्रम के विषय में लिखा है "ग्वालियर के राजा मानसिंह के पोते राजा रामशाह जो हमेशा राणा प्रताप की हरावल में रहता था उसने युद्ध में ऐसी वीरता दिखलायी क़ि लेखनी की शक्ति के बाहर है।राणा प्रताप,राजा रामशाह और हाकिम खान सूर की मार से मुग़ल सेना भाग खड़ी हुई इस प्रकार युद्ध का प्रथम अध्याय महाराणा की आंशिक विजय  के साथ समाप्त हुआ।बाद में घाटी से हटता -हटता संग्राम का केंद्र बनास के किनारे उस स्थल पर आ गया जो अब "रक्तताल"कहा जाता है।यहां भयंकर युद्ध हुआ और रणक्षेत्र खून से लथपथ हो गया।इस लिए इस स्थान का नाम युद्ध के बाद"रक्ताल "पड़ा।इसी रक्ताल में मेवाड़ की सुवतंत्रता की रक्षा के निमित 'प्रताप के स्वाभिमान और आन की खातिर धराशाही हुआ विक्रमादित्य का बेटा राजा राम शाह तोमर और अपने वीर पिता कीबलिदानी परम्पराओं का पालन किया वीरपुत्रों और राजपूतों के बलिदान की धारा को आगे बढाते हुए रामशाह के तीनों पुत्र शालिवाहन 'भवानी सिंह और प्रताप सिंह और पौत्र बलभद्र यही बलिदान हुये और उनका साथ दिया चंवल क्षेत्र के सैकड़ों वीर  साहसी राजपूतों ने जो युद्ध में भाग लेने यहां से गये थे।कैसा दिल दहला देने वाला क्षण रहा होगा जब पिता का बलिदान पुत्रों के सामने हुआ और भाई का बलिदान भाई के सामनेहुआ हो।इस देश के लिए राजपूतों दुआरा किये बलिदानों की श्रंखला में इस बलिदान की कोई मिसाल नही मिल सकती।हल्दीघाटी मेंराजा रामशाह एबं उनके तीन पुत्रों एवंम एक पौत्र का बलिदान अर्थात एक ही दिन 'एक ही स्थान पर 'एक ही युद्ध में एक ही वंश व् एक ही परिवार की 3 पीढ़ी एक दूसरे के सामने बलिदान हो गई।बलिदानों की श्रंखला में इसे देश एवंम मातृभूमी के लिए सर्वश्रेष्ठ बलिदान कहा जा सकता है।एक महान बलिदानी और स्वतंत्रता सेनानी को इतिहासकारों'चारणों और भाटों ने वह प्रशस्ति और महत्व नही दिया जो दिया जाना चाहिए था।जिस प्रकार राणा प्रताप चित्तौड़ को विजित करने की आस मन में लिए स्वर्ग सिधार गये 'ठीक उसी प्रकार राजा रामशाह तोमर भी ग्वालियर की आस मन में लिए सैकड़ों मील दूर सारा जीवन स्वतंत्रता 'स्वाभिमान 'आन -बाण और शान ,मान  मर्यादा के साथ संघर्ष रत रहकर अपनी अमर कीर्ति छोड़कर उस दिव्य ज्योति में विलीन हो गये।उन्होंने अपना राजपूती धर्म पूर्ण निष्ठा और साहस के साथ निभाया।ऐसे साहसी वीर योद्धा को मैं सत् सत् नमन करता हूँ।जय हिन्द।जय राजपूताना।
डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन गांव लरहोता सासनी जिला हाथरस उत्तर प्रदेश।
मारवाड़ के भूले हुये नायक राव चंद्रसेन (The forgotten Hero of Marwar --Rao Chandrasen)--
At that time Maharana Pratap and Rav Chandrasen were the only two thorns pricking at the heart of Akbar .
 राव चंद्रसेन को मुगलकाल का मारवाड़ का महान सैनानी कहा गया है ।राव चंद्रसेन मारवाड़ (जोधपुर) के मालदेव के पुत्र थे ।इनको अपने भाइयों -उदय सिंह और राम के साथ उत्तराधिकार का युद्ध लड़ना पड़ा ।राव चंद्रसेन को अपने शासन के लगभग 19 वर्ष तक अपनी मातृ भूमि की आजादी के लिए जूझते और ठोकर खाते रहे और अंत में देश की आजादी के लिए ही उन्होंने अपने प्राण भी गंवा दिए ।दुर्भाग्यवश ,चंद्रसेन सम्बन्धी ऐतिहासिक सामग्री को छिपाये जाने के फलस्वरूप चंद्रसेन का व्यक्तित्व प्रकाश में नहीं आ पाया ,लेकिन आधुनिक अनुसंधानों ने आखिर इस विस्मर्त सेनानी को सामने ला ही दिया ।इसी लिए अनेक इतिहासकार चंद्रसेन को मारवाड़ का भुला हुआ नायक भी कहते है ।
जन्म
राव चन्द्रसेन का जन्म विक्रम संवत 1598 श्रावण शुक्लाअष्टमी (30 जुलाई, 1541 ई.) को हुआ था।
भाइयों का विद्रोह---
 राव मालदेव ने अपने जीवन काल में ही चंद्रसेन के बड़े भाइयों --राम सिंह और उदय सिंह को उत्तराधिकार से वंचित करके चंद्रसेन को अपना उत्तराधिकारी बना कर जोधपुर में गृहयुद्ध के बीज बो दिए थे ।राव चंद्रसेन स्वाभिमानी और वीर योद्धा थे ।वे जोधपुर की गद्दी पर बैठते ही इनके बड़े भाइयों राम और उदयसिंह ने राजगद्दी के लिए विद्रोह कर दिया। मारवाड़ के बहुत से राजपूत सरदारों ने इन तीनों विद्रोही भाइयों को अपने अपने तरीके से सहायता दी ।चंद्रसेन भाइयों के विद्रोह को तो दवाने में सफल रहे लेकिन असंतुस्ट भाई चंद्रसेन से बदला लेने के लिए अवसर और सहारे की तलाश में रहे ।चंद्रसेन के दोनों भाईयों ने उनके विरुद्ध अकबर के दरबार में सहायता की प्रार्थना के लिए जा पहुंचे ।वास्तव में चंद्रसेन के दोनों भाइयों ने मुगलों के साथ गठबंधन कर लिया ।
सम्राट अकबर की नीति ही यही थी कि राजपूतों की फुट से पूरा पूरा राजनितिक लाभ उठाया जाय ।अकबर नेचंद्रसेन और उनके भाइयों की फूट का लाभ लेने के लिए नागौर के मुग़ल हाकिम हुसैन कुलीबेग को सेना देकर 1564 में जोधपुर पर आक्रमण कर दिया जिसमें चंद्रसेन के भाई भी सामिल थे ।चंद्रसेन को जोधपुर का किला खाली करके भाद्राजून चला जाना पड़ा ।
मुग़लों से संघर्ष---

जोधपुर छूटने के बाद साधन हीन चंद्रसेन की आर्थिक स्थिति निरंतर बिगड़ती गई ।परिस्थितियों वश चंद्रसेन ने यह उचित समझा कि समझा कि अकबर के साथ सन्धि कर ली जाय ।सन् 1570 ई0को बादशाह अकबर जियारत करनेअजमेर आया वहां से वह नागौर पहुंचा, जहाँ सभी राजपूतराजा उससे मिलने पहुंचे। राव चन्द्रसेन भी नागौर पहुंचा, पर वह अकबर की फूट डालो नीति देखकर वापस लौट आया। उस वक्त उसका सहोदर उदयसिंह भी वहां उपस्थित था, जिसे अकबर ने जोधपुर के शासक के तौर पर मान्यता दे दी। कुछ समय पश्चात मुग़ल सेना ने भाद्राजूण पर आक्रमण कर दिया, पर राव चन्द्रसेन वहां से सिवाना के लिए निकल गए। सिवाना से ही राव चन्द्रसेन ने मुग़ल क्षेत्रों, अजमेर, जैतारण,जोधपुर आदि पर छापामार हमले शुरू कर दिए। राव चन्द्रसेन ने दुर्ग में रहकर रक्षात्मक युद्ध करने के बजाय पहाड़ों में जाकर छापामार युद्ध प्रणाली अपनाई। अपने कुछ विश्वस्त साथियों को क़िले में छोड़कर खुद पिपलोद के पहाड़ों में चले गए और वहीं से मुग़ल सेना पर आक्रमण करके उनकी रसद सामग्री आदि को लूट लेते। बादशाह अकबर ने उनके विरुद्ध कई बार बड़ी सेनाएं भेजीं, पर अपनी छापामार युद्ध नीति के बल पर राव चन्द्रसेन अपने थोड़े से सैनिको के दम पर ही मुग़ल सेना पर भारी रहे।2 वर्ष तक युद्ध होता रहा और राठौड़ों ने ऐसा सामना किया की जनवरी 1575 ई0 में आगरा से और सेना भेजनी पडी ।परन्तु इस बार भी मुगलों को सफलता नहीं मिली जिसके कारण अकबर बड़ा नाराज हुआ ।इसके बाद जलाल खान के नेतृत्व में सेना भेजी परन्तु   जलाल खान  स्वयं मार डाला गया ।चौथी बार  अकबर ने शाहबाज खां को भेजा जिसने 1576 ई0 में अंततः सिवाना दुर्ग पर अधिकार कर लिया ।
1576 -77 ई0में सिवाना पर मुग़ल सेना के आधिपत्य के बाद राव चन्द्रसेन मेवाड़सिरोहीडूंगरपुर और बांसवाड़ा आदि स्थानों पर रहने लगे लेकिन मुग़ल सेना उनका बराबर पीछा कर रही थी । सन् 1579ई0 में चंद्रसेन ने अजमेर के पहाड़ों से निकल कर सोजत के पास सरवाड़ के थाने से मुगलों को खदेड़ दिया और स्वयं सारण पर्वत क्षेत्र में जारहे ।उसी क्षेत्र में सचियाव गांव में 1580ई0 में उनका देहांत हो गया । अकबर उदयसिंह के पक्ष में था, फिर भी उदयसिंह राव चन्द्रसेन के रहते जोधपुर का राजा बनने के बावजूद भी मारवाड़ का एकछत्र शासक नहीं बन सका। अकबर ने बहुत कोशिश की कि राव चन्द्रसेन उसकी अधीनता स्वीकार कर ले, पर स्वतंत्र प्रवृति वाला राव चन्द्रसेन अकबर के मुकाबले कम साधन होने के बावजूद अपने जीवन में अकबर के आगे झुके नहीं और विद्रोह जारी रखा।चंद्रसेन और प्रताप की एक दूसरे से तुलना करना तो कठिन है ,लेकिन यह अवश्य सत्य है कि चंद्रसेन राजपूताने के उन शक्तिशाली राजाओं में से एक थे जिसने अकबर को लोहे के चने चबा दिए थे ।डिंगल काव्य में चंद्रसेन को श्रद्धान्जली इस प्रकार दी गई ---
अंडगिया तुरी ऊजला असमर
चाकर रहन न दिगीया चीत
 सारै हिन्दुस्थान तना सिर
पातळ नै चंद्रसेन प्रवीत 
अर्थात ---जिनके घोड़ों को शाही दाग नहीं लगा ,जो उज्जवल रहे शाही चाकरी के लिए जिनका चित्त नहीं डिगा ,ऐसे सारे भारत के शीर्ष थे राणा प्रताप और राव चंद्रसेन ।मैं ऐसे भूले विसरे नायक अदम्य साहसी योद्धा को सत् सत् नमन करता हूँ ।जय हिन्द ।जय राजपूताना ।।
 
 लेखक --डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
 मिडिया प्रभारी नार्थ इण्डिया
 अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा (अध्यक्ष राजा दिग्विजय सिंह जी वांकानेर)
हमारे गौरव हिन्द के हिन्दुवा सूरज अदम्य साहसी एवं स्वाभिमानी प्रातःस्मरणीय वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप 
देश के किसी भी कोने में चले जाओ ,या विदेश की धरती पर मेवाड़ का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है।राजस्थान राज्य के इस भू -भाग को जिसे मेदपात और बाद में मेवाड़ कहा गया ,सदियों से दोस्तों   ने ही नहीं दुश्मनों ने भी आदर और सम्मान से नवाजा है।
दुनियां के प्राचीनतम राजवंश का गौरव अपने ललाट पर चमकाये रखने वाली मेवाड़ की यह भूमि वीर प्रसूता ,पावन एवं पवित्रं होने के साथ साथ  पूजनीय भी है।इस भूमि और इस पर जन्मे वीरों की महिमा को शब्दों में लिखना किस लेखक के बस की बात है ?इस भूमि का गुणगान कोई कवि या लेखक क्या करेगा ?इस भूमि के राष्ट्र के लिए किये गए त्याग ,बलिदान ,वीरता ,शौर्यतापूर्ण कार्य स्वय  अपने आप में गीतों की माला है।
प्रातः स्मरणीय हिन्दुकुल सूर्य महाराणा प्रताप का नाम लेते ही प्रत्येक हिन्दुस्तानी का मस्तक श्रद्धा से नत होना स्वाभाविक ही है। मेवाड़ के इतिहास को इतना उज्जवल तथा गौरवमय बनाने का श्रेय महाराणा प्रताप को ही है।वे स्वदेशाभिमानी ,स्वतंत्रता के पुजारी ,रण कुशल ,अदम्य साहसी ,दृढ़ प्रतिज्ञ ,कुशल राजनीतिज्ञ तथा उदार ह्रदय के सच्चे वीर योद्धा थे।
मेवाड़ के महाराणा  उदय सिंह जी की सोनगरा (चौहान वंश )रानी जयंति बाई जो पाली के राव अखेराज की पुत्री थी की कोख से 9 मई 1540 को अरावली पहाड़ियों के पश्चिम छोर पर स्थित कुंभलगढ़ दुर्ग में जिस बालक का जन्म हुआ वही आगे चल कर महाराणा प्रताप के नाम से सम्पूर्ण विश्व में सुप्रसिद्ध हुआ।प्रताप के दादा महान योद्धा राणा सांगा थे और दादी महारानी कर्मवती थी।

राजस्थान की वीरों की भूमि मेवाड़ की पावन पवित्र धरती पर जन्मे अपने अदम्य साहस और दृढता से दुश्मन को भी शर्मिन्दा करने बाले वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप को कोटि कोटि नमन करते हुऐ उनकी जन्म की जयन्ती पर अपने लेखन के माध्यम से श्र्द्धा सुमन अर्पित करते हुए सादर नमन करता हूँ।अपने समाज के साथ साथ सभी नई पीढ़ी के युवाओं से विनम्र आग्रह करता हूं कि हम सब आपस में भाई चारे के साथ महाराणा के आदर्शों से सीख लेते हुए अपने आप में सद् भावना और राष्ट्र प्रेम भावना पैदा करे।जब महाराणा प्रताप  28 फरवरी 1572 में मेवाड़ के शासक बनेउस समय मेवाड़ की आर्थिक स्थति बहुत अच्छी नहीं थी। उस समय चित्तौड़ गढ़ सहित मेवाड़ के अनेकों महत्वपूण ठिकानों पर अकबर का अधिकार हो चुका था।मेवाड़ के बड़े -बड़े सरदार युद्धमें काम आ चुके थे।ऐसी विषम परिस्थितियों में महाराणा प्रताप मुट्ठी भर देशभक्त तथा विश्वासपात्र  राजपूतों व् भीलों को साथ लिए मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए कटिबद्ध हो गये।उन्होंने प्रतिज्ञा की थी  "जब तक चित्तौड़ को वापस न लूँ तब तक मैं महलों में नहीं रहूंगा ,बिछौने पर नहीं सोऊंगा तथा सोने के बर्तनों में भोजन नहीं करूँगा।"  उधरदूसरी तरफ अकबर की बढ़ती हुई शक्ति तथा उसकी सत्तावादी नीति का मुकाबला करना।हल्दीघाटी के युद्ध से पहले ही उन्होंने जगह जगह  चौकियाँ बिठा दी तथा गुप्तचरों का जाल बिछा दिया जिससे वे अपने शत्रुओ की हर चाल से अवगत रहे।पुरानी राजपूत युद्ध प्रणाली की भांति  युद्ध में लड़ कर मर मिटने  पर प्रताप विश्वास नहीं करते थे।यही कारण था की उन्होंने किसी युद्ध में मोर्चे पर डट कर मुगलों से मुठभेड़ नहीं की।शत्रु को अपनी छावनी में घेर लेना,भागती सेना का पीछा करना  शत्रु की रसद  सामग्री को रोक लेना आदि पर उन्होंने बल दिया।इस कारन  अकबर की महान् शाक्ति भी उनको परास्त न कर सकी।इन्ही तरीकों से युद्ध कर के उन्होंने मेबाड को अपने अधीन करने का प्रयास किया।अकबर जिस प्रकार का राज्य स्थापित करना चाहता था प्रताप उसमे अपना स्थान सम्मानित नहीं मानते थे।बे अपने राज्य को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में रखकर अपने राज्य की प्रतिष्ठा तथा अपने वंश का गौरव दोनों को बनाये रखना चाहते थे।अकबर सभी प्रकार से जब महाराणा प्रताप से अपनी अधीनता स्वीकार करवाने में असफल रहा तो अंत में 12 जून सन्1576 में युद्ध प्रारम्भ हुआ।हल्दी घाटी के मैदान में जब मेवाड़ के चुने हुए राजपूत सरदार अपने राजा की प्रतीक्षा में खड़े हुए थे सिंह की भाँती राणा ने उनके बीच पदार्पण किया।सहस्त्रों सरदार पृथ्वी में झुक गये।उनकी तलवारें खनखना उठीं और पीठ पर बंधी हुई बड़ी ढालें हिल गयी।सेना ने महाराणा को देखते ही ब्रजधुवनि  से जयघोष किया।राणा ने एक ऊँचे टीले पर खड़े  होकर  अपने सरदारों और सेना को इस प्रकार संम्बोधित किया "मेरे पियारे वीरो ,वंशधरों । आज हम वह कार्य करने जारहे हैजो हमेशा हमारे पूर्वजों ने किया है।हम आज मरेंगे  अथवा विजय प्राप्त करेंगे।" हम केवल युद्ध इस लिए कर रहे है की हमारी स्वतंत्रता में हस्तक्षेप हो रहा है।क्या यहां पर ऐसा कोई राजपूत है जो पराया गुलाम बना रहना पसंद करे।जो ऐसा हो उसे मेरी तरफ से स्वतंत्र है वह अपने प्राण लेकर यहां से चला जाय।परन्तु जिसने क्षत्राणी का दूध पीया है उसके लिए आज जीवन का सबसे बड़ा गौरव का दिन है।आज उसे अपने जीवन की सवसे  बड़ी साधना पुरी करनी होगी।इसके बाद राणा ने ललकार लगाई और अपनी तलवार उठायी और उच्च स्वर पुकार कर कहा 'वीरो। क्या तुम्हारे पास तलवार है।राणा ने फिर उसी तेजस्वी स्वर में कहा और तुम्हारी कलाईओं में मजबूती से पकड़ने के लिए बल है।
सेना ने फिर जयनाद किया हजारों कंठ चिल्लाकर बोले महाराज हमने केसरिया बाना पहना है हम जीते -जी और मर जाने पर भी अपनी तलवारों को  नहीं छोड़ेंगे ।हममें  यठेस्त बल है।
राणा ने कहा सतेज स्वर में "तब चलो हम अपनी स्वाधीनता के युद्ध में अपने जीवन और अपने नाम को सार्थक करें।एक गगनभेदी वाणी से सारा वातावरण  भर गया।प्रताप उछल कर अपने चेतक पर सवार होगयेऔर मुग़ल सेना को चीरते हुएसेना के बीच आगये।भीषण युद्ध हुआ राजपूत और मुग़ल सेना के बीच।राणा केघोड़े चेतक का एक पैर जख्मी हो गया।तब राजपूत वीरों ने राणा को किसी तरह भीड़ से बचा कर निकाला।
घायल चेतक अधिक दूर नहीं चल पाया।मार्ग में ही वह स्वर्ग चला गया।राणा बहुत दुखी हुए।इस युद्ध को राजपूत और मुगलों ने अपनी अपने जीत माना।हल्दीघाटी के युद्ध के बाद राणा को जंगलों और पहाड़ों में भटकना पड़ा ऐसा कहा जाता है
महाराणा ने अकबर द्वारा किये गए लगातार आक्रमणों का मुकावला बड़े ही धैर्य व् साहस के साथ किया।हल्दी घाटी के युद्ध में राणा ने अकबर को नाको चने चबा दिए थे महाराणा प्रताप का आदर्श वाक्य था "जो द्रण राखे धर्म को ,तिहि राखें करतार "अर्थात जो अपने धर्म के प्रति द्रण रहता है ,ईश्वर सदैव उसकी सहायता करते है ।इसी आदर्श के सहारे महाराणा प्रताप ने धीरे -धीरे मेवाड़ की बहुत सी खोई हुई भूमि को पुनः प्राप्त कर लिया ।केवल चित्तोड़ और माण्डलगढ़ राणा के अधिकार में नहीं आ सके।चित्तौड़ पर अधिकार नहीं कर पाने का दुःख उन्हें अंतिम समय तक रहा।
सन्1585  से1597 का  जो समय राणा को मिला जिसमे उन्होंने अपने राज्य की स्थति सुधारी और19 जनवरी 1597 को चावंड में उनका स्वर्गवास हो गया।कहा जाता है कि महाराणा प्रताप की मृत्यु का समाचार सुनकर अकबर स्तब्ध रह गया था व् उसकी आँखों से आंसू भी निकल पड़े थे।उसकी आँखों से आंसू इस लिए नहीं छलके कि उसे कोई  भौतिक दुःख था अथवा दैहिक पीड़ा थी ।वह रोया इस लिए था कि उसने एक जांबाज विरोधी को खो दिया था ,महान देशभक्त संसार से उठ गया था।
ऐसा था महाराणा का व्यक्तित्वव जिन्होंने अपने अदम्य साहस और द्रढता से दुश्मन को भी शर्मिन्दा कर दीया।अकबर की उच्च महत्वाकांछा  शासन निपुणता और अपार साधन भी इस मेवाड़ की पावन पवित्र भूमि पर जन्मे इस वीर शिरोमणी को झुकने पर मजबूर ना कर सके।ये एक ऐसे वीर सपूत थे जिन्हें अपनी धरती माँ पर किसी विदेशी का आधिपत्य स्वीकार नहीं था।वे सम्पूर्ण देश को एक सूत्र में बाधना चाहते थे।उनकी मृत्यूने एक युग की समाप्ती करदी।इस लिए महाराणा का नाम हमारे देश में स्वाभिमान और देश की गौरव रक्षा के रूप में अमर है।स्वंत्रता का महान स्तम्भ होने के नाते तथा वीर  नैतिक  आचरण व् सद्कार्यों  का समर्थक होने के कारण प्रताप का नाम  असंख्य हिन्दुस्तानियों। के लिए प्रेरणा का श्रोत है। महाराणा प्रताप के लिए एक कवि कहता है ---
माईऐहड़ा पूत जण ,जेहड़ा राणा प्रताप ।
अकबर सूतो औझ के ,जांण सिराणें सांप ।।
अर्थात हे माता तुम ऐसे पुत्र को जन्म दो जैसा कि महाराणा प्रताप है जिसको सिरहाने रक्खा सांप जानकर अकबर नींद में भी चौंक पड़ता है।
प्रताप का भारतीय पक्ष ---प्रताप भारत की संप्रभुता और स्वतंत्रता के प्रतीक , भारतीय संस्कृति और प्राचीन भारतीय धरोहर के रक्षक , भारतीय राष्ट्रवाद के प्रतीक थे ।अर्थात प्रताप भारत की आभा ज्योति है ,वह भारत का आत्मा के समान आधार है ।इतिहासकार डा0 श्रीवास्तव के अनुसार --"तत्कालीन भारत के हिन्दू समाज ने पूरे देश में प्रताप का समर्थन किया था जो कि उस समय के संस्कृत और हिंदी के साहित्य में स्पस्ट झलकता है " तबकते अकबरी के लेखक अहमद निजामी ने भी लिखा है कि प्रताप ने भारत के सभी हिन्दू राजाओं को बुलाया था ।प्रताप का संघर्ष पुरे भारत का संघर्ष था ।वे भारत और भारतीयता , भारत की राष्ट्रीयता जिसे उस समय हिंदुवांण कहा जाता था के प्रतीक बन गये थे ।भारत की राष्ट्रीयता का ही नाम हिंदुत्व था और प्रताप को हिन्दुनाथ , राव हिन्दुवा तथा रायां तिलक हिंदवां कह कर प्राचीन राजस्थानी काव्य में संबोधित किया गया है --
हिंदुपति परताप ,पत राखी हिंदुवांण री
सहे विपति संताप , सत्य सपथ कर आपणी
अकबर का पक्ष --अकबर एक विदेशी आक्रमणकारी की बादशाहत का उत्तराधिकारी विदेशी भाषा , सभ्यता , विदेशी मत और संस्कृति का प्रतिनिधि था ।भारत पर उसका शासन भारत की स्वतंत्रता का विलोप और अपमान था ।एक आक्रमणकारी का शासन मानवता , स्वाभिमान , सभ्यता और संस्कृति का अपमान था ।अकबर का शासन भारतीयों की स्वेच्छा पर नहीं वरन् विदेशी जोर  जबरदस्ती पर टिका था ।एक आक्रमणकारी चाहे कितना ही अच्छा बनने की कोशिस करे , उसका शासन अच्छाई के विरुद्ध हमला ही है ।अपने शासन को जनता की स्वीकृति से स्थाई बनाने के लिए वह आक्रमणकारी अच्छाई प्रदर्शित करता है ।अन्यथा जब उसने आरम्भ ही आक्रमण से किया है तो फिर उसे स्वीकृति देना अपने आप में कायरता का अपराध है ।प्रताप ने ये स्वीकृति अकबर कोनहीं दी और इसी कारण अकबर भारत का अपराधी ही रहेगा ।कुछ मुगलकालीन मुग़ल इतिहासकारों ने अकबर को महान् कहा है जो कि सरासर गलत है।  हिन्द के इतिहास में हिन्दुवा सूरज प्रातःकालीन स्मरणीय वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप महान थे ।

जब में अपने परिवार के साथ इस वीर योद्धा की जन्म भुमि मेवाड़ व् हल्दी घाटी को देखने गया तो वहां की इनकी कलाकार्तिओं को देख कर रोना भी आया और कुछ क्षण बाद गौर्वाणित  भी हुआ।पर अफशोस इस बात का है की हमारे भाई बंध ताजमहल तो देखने परिवार सहित जरूर जायेंगे  ,लेकिन बहुत कम जाते है ऐसे वीरों की जन्मभूमि को देखने जहाँ से हम अपनी नई पीढ़ी में कुछ संस्कारों का संचार कर सकें ।जय हिन्द ।जय महाराणा ।जय राजपूताना ।
लेखक -- डा0 धीरेन्द्र सिंह  जादौन,
गांव -लढोता ,  सासनी ,जिला हाथरस , उत्तरप्रदेश 
मिडिया एडवाइजर नार्थ इंडिया
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा
(अध्यक्ष राजा दिग्विजय सिंह जी वांकानेर
हे हिन्द के  हिन्दुस्तानी ।
इनकी भी याद करो कुर्वानी।।
अदम्य साहसी एवं वीर योद्धा दिल्ली के अंतिम हिन्दू  सम्राट पृथ्वीराज चौहान----वीरता व् साहस की मिसाल कहे जाने वाले चौहान वंश के वीरशिरोमनी सपूत दिल्ली के अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की शौर्य गाथा अपने आप में अदिवतीय है। चौहान वंश के इस वीर शिरोमणि की बहादुरी का लोहा देशी व्  विदेशी सभी मानते थे।बारहवी सताब्दी में स्वदेशी  शक्ति का विदेशी शक्तियों से संघर्ष आरम्भ हुआ।इसके बाद सुल्तान  मुहम्मद गौरी ने भी 13 वीं सदी में कई बार हिंदुस्तान पर आक्रमण  किये।कहते है क़ि दो बार पृथ्वीराज चौहान ने मो गौरी को युद्ध में पकड़ा परतुं दया करके उसे छोड़ दिया।इस वीर योद्धा ने कभी भी अपना मस्तक किसी के सामने नहीं झुकाया।मो 0 गौरीकी नजर सौने की चिड़िया कहे जाने वाले हिन्दुस्तान पर टिकी  थी।सुलतान गौरी धन का महा लोभी था औरअपने इस्लाम धर्म का भी व्यापक रूप से प्रचार प्रसार करना चाहता था।बार बार युद्ध हारने के बाद एक दिन वह अपने दरवार में खीज कर गुस्से में आकर बोला "मुझे इस बात  पर बहुत सख्त अफशोस है क़ि मेने जब जब हिन्दुस्तान पर आक्रमण करके विजय हासिल करने की तदबीर चलाई तब तब ये हिंदुस्तान का हिंदूवादी शासक  पृथ्वीराज चौहान मेरे रास्ते का रोड़ा बन कर मेरे समक्ष चट्टान  की तरह आ खड़ा हो जाता है और मुझे पराजित कर देता है।सन्1191ई0 में तराइन के युद्ध में पृथ्वीराज  से हारने के बाद गौरी उनसे बहुत बुरी तरह से जला बैठा था।गौरी ने दूसरे ही वर्ष सन्1192 में एक लाख बीस हजार घुड़ सवारों को साथ लेकर पृथ्वीराज पर धावा बोल दिया और दिल्ली के पास थानेस्वर के मैदान में डेरा डाला।पृथ्वीराज  चौहान भी अपनी सेना  के साथ  थानेश्वर के मैदान में पहुंच गये ।पृथ्वीराज चौहान इस प्रकार अपनी सेना को  सम्बोधित  कर रहे थे कि "हे भारत भूमि के वीर योद्धाओ आज तुम्हारी परीक्षा की घड़ी आ गई है।आज वह कायर  एहसान फरामोश विदेशी यवंन गौरी फिर युद्ध के लिए तत्पर है जो हमारी मातृ भूमि पर आधमका है जिसको कई बार दया करके हमने जीवन दान दिया।लेकिन इस बार एक हिन्दुस्तान के  देशद्रोही राजा ने इसको सैनिक सहायता प्रदान की है।इस लिए हे हिन्द के वीरो इस  युद्ध हमें बहुत बहादुरी के साथ लड़ना होगाऔर इस यवनो के सरदार  गौरी को ऐसा सबक सिखाना है क़ि जिससे भविष्य में कोई भी विदेशी यवन हमारी इस  मातृ भूमि  हिन्दुस्तान की पावन पवित्र  धरती को देखने का भी साहस न कर सके"सेनापति ने कहा--आप निश्चिन्त रहें महाराज हमारे हिन्द के वीरों ने केसरिया वाना  पहन रखा है वे मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राणो की बाजी लगाने को तैयार है।अंत में  दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ  जिसमें बहुत से राजपूत सरदार केशरिया वाना पहने हुए मातृ  भूमि की रक्षा में शहीद होगये ।काफी यवन भी उन्होंने मारे  किन्तु सेना कम होने से पृथ्वीराज अकेले रह गए काफी वीर सेनिक मारे जाचुके थे।एक स्थान पर पृथ्वीराज लड़ते  -लड़ते यवन सेना के बीच में फंश गए।उनके लिए बाहर निकलना  बहुत कठिन होगया था।वे क्रोध  ,शोक तथा क्षोभ से चेतना खोते जा रहे थे।उसी समय चंदबरदाई के पुत्र ने मुहम्मद गौरी की तरफ इशारा करके कहा--महाराज पृथ्वीराज  गौरी आप के ठीक सामने है।कमान पर तीर चढ़ा कर उसे मार डालो।पृथ्वीराज ने गौरी को देख कर तीर चढाया किन्तु  दुर्भाग्य से उनकी कमान के  दो टुकड़े हो गए।उन्होंने अपने जीवन की आशा छोड़ दी।फिर  अकेले तलवार लेकर यवन  सेना पर टूट पड़े।शाम होते होते हिन्दुस्तान का ये  अंतिम वीर हिन्दू सम्राट् रणभुमि में घायल हो कर गिर पड़ा।फिर क्या  था  यवनों की जीत हुई।उन्हें पकड़ कर बहुत असहनीय यातनाये  दीगयी ।लेकिन उस रनवांकुरे  वीर योद्धा ने यवनों की दासता स्वीकार नहीं की ।यवनों की गंभीर दर्दनाक असहनीय  यातनाओं को सह कर भारत माता के इस रणबांकुरे योद्धा ने अपनी मातृ भूमि की रक्षा में अपने  प्राण गमा दिए ।
 महान इतिहासकार       कर्नल जेम्स टॉड जिन्होंने राजपूताने का गौरवमय इतिहास लिखा है  ने भी इस महान योद्धा की  बहादुरी ,साहस एवं शौर्य की सराहना अपने शब्दों में   इस प्रकार की है कि ----
Prithviraj Chauhan was the flower of Rajput Chivalry.His whole life was one unbroken chain of cnivalrous deeds and glorius exploslt which hare won for him external fame and a name that will last as long as chivalry itself .Although Chauhan had always the snaked high in the list of Chivarty ,yet the seal of the order was stamped  on all who have the name of chauhan since the days of Prithviraj ,the model of every Rajput .
    "पृथ्वीराज चौहान राजपूती शौर्य का पुष्प था ।उसका सम्पूर्ण जीवन शौर्य के कार्यों और शानदार कर्मों की एक अटूट श्रृंखला है जिनसे उसने अमिट ख्याति ,नाम एवं यश अर्जित किया जो कि तब तक कायम रहेंगे जब तक स्वयं शौर्य का अस्तित्व है ।यद्धपि शौर्यवानो का शौर्य की सूची में स्थान ऊँचा होता है फिर भी पृथ्वीराज चौहान ,जो कि प्रत्येक राजपूत के लिए आदर्श है ,के समय से उसके नाम के प्रशंसकों पर उसकी गहरी छाप है ।


लेकिन मुझे बड़े अफ़सोस के साथ लिखना पड रहा है क़ि कल जब मैं अपने कुछ प्राध्यापक मित्रों के साथ  इस महान वीर योद्धा के अजमेर में बने हुए स्मारक को देखने गया तो उस स्थान की कला कृतियों को  देख कर  भाव -विभोर होगया । धन्यवाद एवं आभार व्यक्त करता हूँ माननीय श्री ओंकार सिंह लखावत जी का जिनके अथक प्रयाशों की बजह से अजमेर शहर जो पृथ्वीराज चौहान की जन्मस्थली हैं में इस वीर योद्धा का स्मारक बनवाया। वे उस समय अजमेर शहर के यू0 आई0 टी0 चेरमेन थे ।लेकिन स्मारक जितना विकसित होना चाहिए था उतना आज  तक नहीं  हुआ । हमारे किसी क्षत्रिय /राजपूत संगठनों ने भी इस स्मारक के और अधिक विकास की  पहल व् मांग भी नहीं की और स्वयं अपना कोई योगदान भी नहीं  दिया इससे ऐसा महसूस होता है कि हमारे संगठन मात्र कागजों तक ही सीमित है ।इससे अपने समाज की जागृती का भी आभास होता है  कि लोग मात्र संगठनों में  पदों तक ही सिमित है । भाई लोग अजमेर तो जायेगे अपनी दूसरों से मंगत मागने के लिए परंतु बहुत कम जाते है पृथ्वीराज चौहान का स्मारक देखने के लिए।और तो क्या कहूँ हमारे राजपूत भाई भी नहीं जाते है।हम अपने बच्चों में अपने वंशजो के वीरता से परिपूर्ण इतिहास  के बारे में ही नहीं बताते और नहीं उनको उस स्थान पर घुमानेलेजाते।  तो कैसे आएंगे हमारी भावी पीढ़ी में राजपूती संस्कार जिनके लिए हम जाने जाते है ।आज तक किसी  संगठन ने भी इस वीर भारत के योद्धा के नाम पर किसी दिल्ली की बड़ी संस्था का  नामकरण करने की बात कही। जब कि दिल्ली इतिहास में पृथ्वीराज चौहान के नाम से जानी जाती है ।"दिल्ली का अन्तिम  हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान " । दिल्ली में भी इनका कोई  बड़ा ख्याति प्राप्त स्मारक नहीं है शायद।हमारा राजपूती नेतृत्व भी कहीं न कही कमजोर है ।हमारे लोग केवल बात बहुत  ऊँचे आदर्शों की करते है ।धरातल पर समाज के लिए शायद कोई योगदान नही ।आज बस इतना हीबेदना का दर्द लिखता हूँ।जय हिन्द। जय राजपूताना ।

डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन  गांव  -लढोता , सासनी  जिला -हाथरस  उ0 प्र0
हिन्दुस्तान के गौरव हिंदुत्व के रक्षक वीर योद्धा मेवाड़ के महाराणा सांगा
हिन्दूपति महाराणा संग्राम सिंह जो लोगों  में "सांगा"के नाम से अधिक प्रसिद्ध है  भारतीय इतिहास के एक ऐसे आदर्श महापुरुष हो चुके है जिनका जीवन -चरित्र शौर्यपूर्ण गाथाओं तथा त्याग और बलिदान की अमर उपलब्धियों से अभिमण्डित है।उन्होंने मध्यकालीन राजनीति में सक्रिय भाग लेकर हिंदुत्व की मानमर्यादा का संरक्षण तथा भारतीय संस्कृति  के उच्चादर्शों का प्रतिष्ठान किया था जिसके कारण मेवाड़ का गौरव विश्बभर में समुन्नत हुआ।राणा सांगा अपनेसमय के श्रेष्ठ व् शिरमौर हिन्दू राजा थे।हिंदुस्तान के सभी राजा उनको सम्मान देते थे।मेवाड़ ने उनके ही शासनकाल में शक्ति और सम्रद्धि की चरमसीमा प्राप्त की। सांगा मेवाड़ की कीर्ति के कलश थे।वे पश्चिमी भारत हिन्दू राजा और सरदारों के।सर्वमान्य नेता थे।उन्हें हिंदुपति अर्थात हिंदुओं का स्वांमी कहते है।महाराणा सांगा वीर ,उदार 'कर्तज्ञ ,बुद्धिमान और न्याय परायण शासक थे।अपने शत्रु को कैद करके छोड़ देना और उसे पीछा राज्य दे देना सांगा जैसे ही उदार और वीर पुरुष का कार्य था।वह एक सच्चे क्षत्रिय थे,।उन्होंने अपनी वीरता निडरता और साहसी युद्ध -कौशल से मेवाड़ को एक सामाराज्य बना दिया था।राजपूताने के बहुधा सभी  तथा कई बाहरी राजा आदि भी मेवाड़ के गौरव के कारण मित्रभाव से उनके झंडे तले लड़ने में अपना गौरव समझते थे।इस प्रकार राजपूत जाति का संगठन होने के कारण वे बाबर से लड़ने को एकत्र हुए।सांगा अंतिम हिन्दू राजा थे ,जिनके सेनापतित्व में सब राजपूत जातियां विदेशियों "तुर्कों "को भारत से निकालने के लिए सम्मलित हुई।यद्धपि इसके बाद और भी वीर राजा उत्पन्न हुए ,तथापि ऐसा कोई न हुआ ,जो सारे राजपूताने की सेना का
सेनापति बना हो।राणा सांगा ने देश के सम्मान और आदर्शों की स्थापना हेतु जीवन भर प्रयास किया ।दिल्ली और मालवा के मुगल बादशाहों से 18 बार युद्ध कर विजय प्राप्त की थी। दिल्ली के इब्राहिम लोधी ने 2 बार महाराणा से युद्ध किया ,दोनों ही बार उसकी पराजय हुई।मांडू मालवा के बादशाह महमूद दुतीय को कैद करना महाराणा सांगा के अदभुत पराक्रम का ही परिणाम था।इनके शरीर में युद्ध के 80 घाव थेऔर शायद ही शरीर में कोई अंश ऐसा हो जिस पर युद्धों में लगे हुए घावों के चिन्ह न हों।उसी समय समय बाबर ने दिल्ली के इब्राहिम लोधी को मार कर दिल्ली विजय करली।कुछ समय बाद बाबर ने आगरा भी जीत लिया।बाबर यह अच्छी तरह से जानता था की हिन्दुस्तान में उसका।सबसे भयंकर शत्रु महाराणा सांग था।उनके बढ़ती हुई शक्ति व् प्रतिष्ठा को बाबर जानता था।वह यह भी जनता था की महाराणा से युद्ध करने के दो ही परिणाम हो सकते है --या तोवह भारत का सम्राट हो जाय या उसकी सब आशाओं पर पानी फिर जाय और उसे बापस काबुल जाना पड़े।बाबर और महाराणा सांगा में17 मार्च 1527 को खानवा के मैदान में भयंकर युद्ध हुआ।रणभूमि में तीर लगने से सांगा मूर्छित हो गए।उन्हें इस अवस्था में युद्धभूमि से वापिस ले जाया गया।इस युद्ध में चंदेरी के मेदिनीराय खंगार और चन्दवार (जो उस समय आगरा के क्षेत्र में चौहान राजपूतों की राजधानी थी )के चौहान राजा मानिक चंद और उनके बेटे दलपत ने राणा सांगा के साथ मिलकर बाबर से भयंकर युद्ध किया था  ।राव मानिक चंद और उनका पुत्र युद्ध क्षेत्र में अपने प्राणों का बलिदान कर अपने कुल के इस अंतिम अध्याय को अधिक तेजस्वी बनागये ।
बाबर लिखता है क़ि राणा सांगा अपनी वीरता और तलबार के बल से बहुत बड़ा हो गया था।उसकी शक्ति इतनी बढ़ गई थी क़ि मालवे ,गुजरात और दिल्ली के सुलतान में से कोई भी अकेला उसे हरा नही सकता था।करीब 200 शहरों में उसने मस्जिदें गिरवादी और बहुत से मुगलों को कैद किया।उसका मुल्क 10 करोड़ की आमदनी का था।उसकी सेना में एक लाख सवार थे।उसके साथ 7 राजा ,9 राव और 104 छोटे सरदार रहा करते थे।उसके 3 उत्तराधिकारी भी यदि वैसे ही वीर और योग्य होते ,तो मुगलों का राज्य भारतवर्ष में जमने न पाता।एक विदेशी तुर्क भी हमारे पूर्वजों के साहस ,वीरता ,शौर्य और बलिदान की गाथा का गुणगान करके दुनियां से चला गया।ये हमारे लिए गौरव की बात है क़ि उसने भी राणा सांगा की वीरता का गुणगान किया जिनके आदर्शों से हमें और हमारे युवा -पीढ़ी को कुछ सीख लेनी चाहिए।मैं ऐसे महान वीर और सनातन धर्म के रक्षक महान पराक्रमी योद्धा को तहे दिल से सत् -सत् नमन करता हूँ जय हिन्द।जय राजपुताना ।
लेखक --डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन ,गांव --लरहोता ,सासनी ,जिला --हाथरस ,उत्तरप्रदेश ।

Friends,In this blog I will be writing about the Kshatriya/Rajput Freedom Fighters of 36 Royal Races from Mughal Rule to British Rule in India.

Dr. Dhirendra Singh Jadaun
Assoc. Professor (Agric. Chem. & Soil Sc.)
S.C.R.S. Government College
Sawaimadhopur 322001
Mobile: 09929363669
Email: dsswm1@gmail.com