
वीरशिरोमणि छत्रसाल बुन्देला का 17वीं और 18वीं शताबदी में जितने बड़े भू -भाग पर शासन था ,उतना शायद पृथ्वीराज चौहान से लेकर देश आजाद होने तक किसी महाराजा का नहीं रहा जिसका प्रमाण है --इत जमुना उत् नर्मदा ,इत चंबल उत् टौंस ।
छत्रसाल सों लडन की ,रही न काहू हौंस ।।
छत्रसाल बुन्देलकेशरी सच्चे राष्ट्रभक्त योद्धा थे ।महाराजा छत्रसाल के पिता राजा चंपतराय एक वीर और जुझारू राजा थे।उनके जीवन का अधिकाँश समय मुगलों के विरुद्ध संघर्ष में ही व्यतीत हुआ ।संघर्षकाल के दौरान ही छत्रसाल का जन्म लिघौरा ,जिला टीकमगढ़ ,म0 प्र0 के महोबा चक्र की ओर पहाड़ियों की कंदराओं में सन् 1649 विक्रम संवत 1706 के ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया रविबार को हुआ था।कहते हैकि वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप का जन्म भी हिन्दू तिथि से इसी दिन हुआ था ।रणबाँकुरे छत्रसाल को जन्म से ही महलों की सेज तो प्राप्त नहीं हुई पर प्रकर्ति की गोद में रहने का सम्पूर्ण अवसर प्राप्त हुआ और सारा जीवन मुगलों से संघर्ष में ही बीता ।संवत 1718 में सादरा के धन्वेरे मुग़ल सैनिकों ने जब उनके पिता चंपतराय का धोखे से क़त्ल किया उस समय छत्रसाल 13 वर्ष के थे ।उनके माता -पिता को अचानक मुगलों ने घेर लिया था तब दोनों ने मौत का आलिंगन किया ।छत्रसाल ने यह सब देखा था ।उनका मन मुगलों के प्रति घ्रणा से भर गया ।अपनी असहाय अवस्था में भी उन्होंने मुगलों के विरुद्ध संघर्ष को जारी रखने का संकल्प किया ।यधपि तत्कालीन राजबाड़ों और परिजनों ने उनकी उपेक्षा की किन्तु वे विचलित न हुये और मात्र पांच घुड़सवार तथा 25 युद्धाओं को साथ लेकर उन्होंने अपनी संघर्ष यात्रा प्रारंभ की ।उनकी टुकड़ी में सभी जाति के लोग थे ।
जब छत्रसाल मुगलों से लड़ने के लिए सहायता के लिए अपने काका महोबा के सुजानराय के पास पहुंचे तो उन्होंने शांत रहने का सुझाव दिया क्यों कि उस समय खुलकर मुगलों का विरोध करने की शक्ति किसी में नहीं थी ।किन्तु युवा छत्रसाल को यह अच्छा नहीं लगा और वे दक्षिण में महाराज छत्रपति शिवाजी से भेंट करने पहुंचे।धुन के पक्के और बात के धनी छत्रसाल से मिलकर महाराज शिबाजी का भी सीना गर्व से फूल उठा ।उन्होंने गले लगाकर कहा "तुम जैसे वीर योद्धा स्वाभिमानी और दृढ़ संकल्पी युवकों की ही तो भारत माता बाट जोह रही है ,देश का उद्धार तुम्हारे ही कन्धों पर है ।अतः तुम वापस जाओ और अपने देश को स्वतंत्र कराओ ।उन्होंने छत्रसाल को आशीर्वाद स्वरूप एक तलवार भी भेंट की जिसे पाने के बाद छत्रसाल का मुगलों से संघर्ष का संकल्प और दृढ़ हुआ और शुरू हुआ महाराज छत्रसाल का स्वतंत्रता संग्राम ।शिवाजी ने कहा था ----
करो देश को राज छता रे ,हम तुम ते कबहुँ नहिँ न्यारे ।
तुरकन की परतीति न मानों ,तुम केहरि तुरकन गज जनों।।
तुमहुं जाय देश दल जोरो ,तुरुक मारि तरवारिन् टोरो।
यह कहि तेग मंगाय बंधाई ,वीर बदन दूनी दुति आई ।।
उन्होंने निश्च्य किया कि वे बुन्देलखण्ड को मुगलसत्ता से मुक्त कर स्वतंत्र राज्य की स्थापना करेंगे ।मुगलों के अत्याचार ,दमन ,और शोषण से सारी जनता त्रस्त और परेशान थी ।छत्रसाल ने अपने संकल्प की घोषणा इस प्रकार की थी --
दौर देश दिल्ली को जारो। तमकि तेग तुरकन पर धरो ।
देशभक्त राजपूतों एवं अन्य युवकों को साथ लेकर छत्रसाल ने विजय अभियान शुरू किया ।उन्होंने अपनी शादी के अवसर पर ग्वालियर केसुबेदार नरवर खां से युद्ध किया और उसको हराया ।सं0 1787 में 80 वर्ष की उम्र में उन्होंने इलाहाबाद के मुग़ल सुवेदार मोहम्मद खां बंगश नेबुन्देलखण्ड पर आक्रमण कर दिया ।इस युद्ध में छत्रसाल ने बाजी राव पेशवा की सहायता से मुगलों को पराजित करके बहुत बड़े भू -भाग पर आधिपत्य कर लिया ।उस समय झांसी ,जालौन ,हमीरपुर ,बांदा ,ललितपुर ,भिंड ,मुरौना ,दतिया ,ग्वालियर ,शिवपुरी ,गुना ,टीकमगढ़ ,छतरपुर ,पन्ना ,दमोह ,विदिशा ,नरसिंघपुर ,सागर ,हौसंगाबाद ,रायसेन ,सतना ,सीहोर ,भोपाल ,बेतुल /छिंदवाड़ा ,सिवनी ,कडेला ,बालाघाट आदि पर महाराज छत्रसाल का अधिकार था ।वर्तमान में ये जिले उ0 प्र0 और म0 प्र0 में है ।सन् 1671 में कालिंजर विजय के बाद छत्रसाल महू -महोबा लौट आये ।एक दिन वे समीप के जंगल में शिकार खेलने गये थे बहीं उन्हें स्वामी प्राणनाथ के दर्शन हुये ।स्वामी जी ने भी उनको मुगलों से युद्ध और स्वतंत्रता संग्राम संचालित करते रहने का निर्देश दिया ।छत्रसाल की दिग्विजय के समाचार जब दक्षिण में औरंगजेब ने सुने तो वह आग बबूला हो गया और उसने शाहकुली के नेतृत्व में एक जंगी फ़ौज छत्रसाल को दबाने हेतु भेजी किन्तु उसे हार का मुह देखना पड़ा ।80 -82 वर्ष की आयु में लगभग 60 _65 वर्ष उनके मुगलसत्ता के विरुद्ध संघर्ष में ही बीते ।अनेक विषमताओं और पराजयों के बावजूद वे अधिकाँश में विजयी रहे और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर उन्होंने बुन्देलभुमि को मुगलसत्ता से मुक्त कराया ।बुन्देलखण्ड के लोग आज भी महाराज छत्रसाल के जीवन से प्रेरणा लेते है ।उन्होंने विश्व बंधुत्व की भावना का विकास करके सर्व -धर्म समन्वय रूपी प्रणाली सम्प्रदाय को बढ़ाने में भरपूर योगदान दिया है ।निःसंदेह प्रातः स्मरणीय महाराज छत्रसाल सम्राट अशोक की भांति धर्म प्रवर्तक एवं धर्म दूतों के पोषक व् सृजक थे ।विक्रम संवत 1788 जेठ बदी 3 बुधवार अर्थात 12 मई 1731 को नवगांव से 4 किलोमीटर दक्षिण में भड्सहानियां गांव में छत्रसाल देवलोक सिधारे ।
18 वर्ष से 80 वर्ष तक तलवार हाथ में लेकर घूमने वाला वीर इस देश में दूसरा कौन है ,कोई बता सकता है क्या ?शायद नही यह शौभाग्य इस देश में सिर्फ बुन्देलखण्ड की पावन पवित्र धरती को जाता हैकि उसका एक लाडला 62 वर्षों तक भारतभूमि की स्वतंत्रता के लिए युद्धों में मुगलों से जूझता रहा ,ऐसे वीर स्वाभिमानी योद्धा सैकड़ों नहीं हजारों वर्षों में कभी -कभी धरती पर अवतरित होते है ।निश्चय ही छत्रसाल बुंदेला ने राजपूत जाति को गौरव प्रदान किया है वह चिरस्मरणीय रहेगा ।धन्य है बुन्देलखण्ड की पावन पवित्र धरती जहाँ छत्रसाल अवतरित हुये और धन्य है बुन्देलखण्ड के लोग जिन्हें वीर शिरोमणी महाराज छत्रसाल के गुणगान करने का सौभाग्य मिला और उनके आदर्शों पर चलकर कुछ कर गुजरने की प्रेरणा उनके बच्चे -बच्चे को उपलब्ध है ।इतिहास ऐसे वीर छत्रसाल बुन्देला का आभारी है और रहेगा ।जय हिन्द ।जय राजपूताना ।
लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन ,गांव -लढोता ,सासनी ,जिला -हाथरस ,उत्तरप्रदेश ।
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