जो गढ़मंडल की थी वीरांगना रानी ।।
महान पराक्रमी वीरांगना थी --रानी दुर्गावती
भारतीय परंम्परा में वीरांगनाओं का भीअपनी वीरता और शौर्यता ,आन एवंस्वाभिमान ,त्याग एवं बलिदान का इतिहास रहा है।वे भी अपने शौहरों की भाँति रणभूमि में अपने प्राणों का बलिदान करके इतिहास के पन्नें रंग कर चली गयी ।ऐसी ही महापराक्रमी वीरांगना थी मध्य प्रदेश के हिन्दू राज्य गोंडवाना के गढ़मंडल के अधिपति दलपतशाह की जीवन -संगिनी और महोबा के चंदेल वंशीय राजा चन्दनराय की गुणवान और रूपवान पुत्री रानी दुर्गावती। रानी दुर्गावती के पति राजा दलपतशाह का विवाह के 4 वर्ष बाद ही निधन होगया था। रानी के वीरनारायण नाम का एक पुत्र था।रानी ने राज्य की सम्पूर्ण बागडोर अपने हाथों में लेली।इधर अकबर मुग़ल साम्रराज्य के बिस्तार के खुवाब बन रहा था।उसने सन्1564 में गढ़मंडल की अतुलित सम्पति को लूटने के लिए सूबेदार आसफ खान के नेतृत्वमें उस पर चढ़ाई करदी।
दुर्गावती ने खुद दुर्गा मां का रूप धारण करके क्षत्रिय गौरव की याद दिलाते हुए अपने सैनिकों के सम्मुख बिजली की तरह गरजते हुऐ कहा --देश पर तन -मन न्योछावर करने बालेराजपूत वीरो !देशकी आन -बान -शान पर मर मिटने बाले राजपूती शूरो ,केशरीया बाना पहन कर तैयार हो जाओ ,आज हमारी मातृभूमि पर संकट के बादल छाये हुऐ है।जन्मभूमि आज तुम्हे रक्षा के लिए पुकार रही है।उसकी आजादी और सम्मान की रक्षा करना हमारा पुनीत कर्तव्य ही नही हमारा परम धर्म है।तुम दिखा दो क़ि जब तक हमारा एक भी राजपूत सैनिक ज़िंदा रहेगा ,तब तक इस वीर वसुंधराहिन्दुस्तानी भूमि को कोई भी मुग़ल गुलाम नहीं बना सकता।दुश्मनों पर कहर बन कर इस तरह टूट पडो क़ि तूफ़ान भी तुम्हारे पराक्रम को देखने के लिए थम जाय।दुश्मनों पर ऐसे बरसो क़ि काले -काले घने मेघों की आँखे फटी की फटी रह जायं ।हे मेरे योद्धाओ तुम्हें अब मातृभूमि के लिए बलिदानी इतिहास रचना है।मैं अपने जीते -जी शत्रु को इस पावन पवित्र धरती पर पाँव न धरने दूंगी ।रानी के मुख से निकले एक -एक शब्द ने राजपूत वीरों के सीनों में जोश ही नहीं बल्कि बारूद भर दिया था।रानी का जयघोष करते हुए राजपूत वीर योद्धा मुगलों की सेना पर दावानल का रूप धारणकर सिंह की तरह टूट पड़े।मुंडों के झुण्ड लगा दिए। मंडेला की पहाड़ी के पास हुए इस युद्ध में आसफ खान की पराजय हुई। वह युद्ध छोड़ कर भाग गया और अपने प्राण बचाने में सफल हुआ।
दूसरी बार अकबर ने फिर रानी के सिंगौर दुर्ग पर आक्रमण के लिए आसफ खान के साथ मजीद खान को सेना के साथ भेजा।इस बार मुगलों ने रानी के विश्वस्त सरदारों को धन का प्रलोभन देकर रानी की शक्ति का आशाफ खान को भेद मिल गया।रानी की सेना पर आक्रमण किया गया।रानी रणचंडी बनी दुश्मनों का बिनाश कर रही थी किन्तु एक तीर उसकी आँख में जालगा।दूसरा तीर कंठ में आलगा।वह असहनीय दर्द को सह कर भी युद्ध में डटी रही।लड़ते -लड़ते घायल हो गई।विजयश्री की कोई संभावना दिखाई नही देरही थी।ऐसी हालत में रानी ने कमर से कटार निकालकर अपने हाथों से खुद की छाती में कटार घौंप कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली।शत्रु चित्रवत आँखें फाड़कर साहस के इस द्रश्य को हक्के -बक्के होकर देखते रह गये।रानी ने अपना प्रण पूरा कर दिखाया --मैं जीते जी शत्रु को इस धरती पर अधिकार नहीं करने दूंगी।उनका पुत्र भी युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ।इस प्रकार रानी दुर्गावती के राज्य पर अकबर का आधिपत्य हुआ।धर्म ,कुल तथा राजपूती सुवाभिमान एवं मर्यादा के लिए वह वीरगति को प्राप्त हुई।रानी के बलिदानकी अमर गाथा इतिहास के पन्नों पर सदैव के लिए स्वर्णाक्षरों में अंकित है।
यह राजपूती वीरांगना तो अपना धर्म निभाकर देश एवं राज्य की जनता के लिए बलिदान हो गयी।लेकिन जिनकीरक्षा और सलामती के लिए उन्होंने बलिदान दिया क्या उन्होंने अपना धर्म और फर्ज निभाया ?क्या महोबा की जनता ने और चंदेल राजपूतों ने उनके वंश को गौरव दिलाने बाली इस वीरांगना के बलिदान को कभी याद किया ?सिर्फ पूवर्जों के नाम से मस्तक ऊंचा करके चलना ,पूर्वन्जों के प्रति बिशेष आदर तो नहीं ही दर्शाता है।और तो क्या न किसी राजपूत महासभा ने उनकी जन्म की जयंती मनाई।
हमें दूसरों को देख कर सीख भी लेने की आवस्यकता है और मंथन और चिंतन करने की जरूरत है।कैसे याद करेंगी रानी दुर्गावती के बलिदान को हमारी आगे आने वाली पीढ़ीयां।जब हम उनके बलिदान को याद करेंगे तो हमारी आगे की पीढ़ीयां भी याद करेंगी ।नही तो सब अतीत बन कर रह जायगा ।जय हिन्द ।जय राजपूताना ।।
लेखक--डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन गांव लढोता , सासनी जिला हाथरस उत्तरप्रदेश ।
महान पराक्रमी वीरांगना थी --रानी दुर्गावती
भारतीय परंम्परा में वीरांगनाओं का भीअपनी वीरता और शौर्यता ,आन एवंस्वाभिमान ,त्याग एवं बलिदान का इतिहास रहा है।वे भी अपने शौहरों की भाँति रणभूमि में अपने प्राणों का बलिदान करके इतिहास के पन्नें रंग कर चली गयी ।ऐसी ही महापराक्रमी वीरांगना थी मध्य प्रदेश के हिन्दू राज्य गोंडवाना के गढ़मंडल के अधिपति दलपतशाह की जीवन -संगिनी और महोबा के चंदेल वंशीय राजा चन्दनराय की गुणवान और रूपवान पुत्री रानी दुर्गावती। रानी दुर्गावती के पति राजा दलपतशाह का विवाह के 4 वर्ष बाद ही निधन होगया था। रानी के वीरनारायण नाम का एक पुत्र था।रानी ने राज्य की सम्पूर्ण बागडोर अपने हाथों में लेली।इधर अकबर मुग़ल साम्रराज्य के बिस्तार के खुवाब बन रहा था।उसने सन्1564 में गढ़मंडल की अतुलित सम्पति को लूटने के लिए सूबेदार आसफ खान के नेतृत्वमें उस पर चढ़ाई करदी।
दुर्गावती ने खुद दुर्गा मां का रूप धारण करके क्षत्रिय गौरव की याद दिलाते हुए अपने सैनिकों के सम्मुख बिजली की तरह गरजते हुऐ कहा --देश पर तन -मन न्योछावर करने बालेराजपूत वीरो !देशकी आन -बान -शान पर मर मिटने बाले राजपूती शूरो ,केशरीया बाना पहन कर तैयार हो जाओ ,आज हमारी मातृभूमि पर संकट के बादल छाये हुऐ है।जन्मभूमि आज तुम्हे रक्षा के लिए पुकार रही है।उसकी आजादी और सम्मान की रक्षा करना हमारा पुनीत कर्तव्य ही नही हमारा परम धर्म है।तुम दिखा दो क़ि जब तक हमारा एक भी राजपूत सैनिक ज़िंदा रहेगा ,तब तक इस वीर वसुंधराहिन्दुस्तानी भूमि को कोई भी मुग़ल गुलाम नहीं बना सकता।दुश्मनों पर कहर बन कर इस तरह टूट पडो क़ि तूफ़ान भी तुम्हारे पराक्रम को देखने के लिए थम जाय।दुश्मनों पर ऐसे बरसो क़ि काले -काले घने मेघों की आँखे फटी की फटी रह जायं ।हे मेरे योद्धाओ तुम्हें अब मातृभूमि के लिए बलिदानी इतिहास रचना है।मैं अपने जीते -जी शत्रु को इस पावन पवित्र धरती पर पाँव न धरने दूंगी ।रानी के मुख से निकले एक -एक शब्द ने राजपूत वीरों के सीनों में जोश ही नहीं बल्कि बारूद भर दिया था।रानी का जयघोष करते हुए राजपूत वीर योद्धा मुगलों की सेना पर दावानल का रूप धारणकर सिंह की तरह टूट पड़े।मुंडों के झुण्ड लगा दिए। मंडेला की पहाड़ी के पास हुए इस युद्ध में आसफ खान की पराजय हुई। वह युद्ध छोड़ कर भाग गया और अपने प्राण बचाने में सफल हुआ।
दूसरी बार अकबर ने फिर रानी के सिंगौर दुर्ग पर आक्रमण के लिए आसफ खान के साथ मजीद खान को सेना के साथ भेजा।इस बार मुगलों ने रानी के विश्वस्त सरदारों को धन का प्रलोभन देकर रानी की शक्ति का आशाफ खान को भेद मिल गया।रानी की सेना पर आक्रमण किया गया।रानी रणचंडी बनी दुश्मनों का बिनाश कर रही थी किन्तु एक तीर उसकी आँख में जालगा।दूसरा तीर कंठ में आलगा।वह असहनीय दर्द को सह कर भी युद्ध में डटी रही।लड़ते -लड़ते घायल हो गई।विजयश्री की कोई संभावना दिखाई नही देरही थी।ऐसी हालत में रानी ने कमर से कटार निकालकर अपने हाथों से खुद की छाती में कटार घौंप कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली।शत्रु चित्रवत आँखें फाड़कर साहस के इस द्रश्य को हक्के -बक्के होकर देखते रह गये।रानी ने अपना प्रण पूरा कर दिखाया --मैं जीते जी शत्रु को इस धरती पर अधिकार नहीं करने दूंगी।उनका पुत्र भी युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ।इस प्रकार रानी दुर्गावती के राज्य पर अकबर का आधिपत्य हुआ।धर्म ,कुल तथा राजपूती सुवाभिमान एवं मर्यादा के लिए वह वीरगति को प्राप्त हुई।रानी के बलिदानकी अमर गाथा इतिहास के पन्नों पर सदैव के लिए स्वर्णाक्षरों में अंकित है।
यह राजपूती वीरांगना तो अपना धर्म निभाकर देश एवं राज्य की जनता के लिए बलिदान हो गयी।लेकिन जिनकीरक्षा और सलामती के लिए उन्होंने बलिदान दिया क्या उन्होंने अपना धर्म और फर्ज निभाया ?क्या महोबा की जनता ने और चंदेल राजपूतों ने उनके वंश को गौरव दिलाने बाली इस वीरांगना के बलिदान को कभी याद किया ?सिर्फ पूवर्जों के नाम से मस्तक ऊंचा करके चलना ,पूर्वन्जों के प्रति बिशेष आदर तो नहीं ही दर्शाता है।और तो क्या न किसी राजपूत महासभा ने उनकी जन्म की जयंती मनाई।
हमें दूसरों को देख कर सीख भी लेने की आवस्यकता है और मंथन और चिंतन करने की जरूरत है।कैसे याद करेंगी रानी दुर्गावती के बलिदान को हमारी आगे आने वाली पीढ़ीयां।जब हम उनके बलिदान को याद करेंगे तो हमारी आगे की पीढ़ीयां भी याद करेंगी ।नही तो सब अतीत बन कर रह जायगा ।जय हिन्द ।जय राजपूताना ।।
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