
महाराणा प्रताप के पितामह हिन्दूपति महाराणा संग्राम सिंह जो लोगों में "सांगा"के नाम से अधिक प्रसिद्ध है भारतीय इतिहास के एक ऐसे आदर्श महापुरुष हो चुके है जिनका जीवन -चरित्र शौर्यपूर्ण गाथाओं तथा त्याग और बलिदान की अमर उपलब्धियों से अभिमण्डित है।उन्होंने मध्यकालीन राजनीति में सक्रिय भाग लेकर हिंदुत्व की मानमर्यादा का संरक्षण तथा भारतीय संस्कृति के उच्चादर्शों का प्रतिष्ठान किया था जिसके कारण मेवाड़ का गौरव विश्बभर में समुन्नत हुआ।राणा सांगा अपने समय के श्रेष्ठ व् शिरमौर हिन्दू राजा थे।हिंदुस्तान के सभी राजा उनको सम्मान देते थे।मेवाड़ ने उनके ही शासनकाल में शक्ति और सम्रद्धि की चरमसीमा प्राप्त की। सांगा मेवाड़ की कीर्ति के कलश थे।वे पश्चिमी भारत के हिन्दू राजा और सरदारों के सर्वमान्य नेता थे।उन्हें हिंदुपति अर्थात हिंदुओं का स्वांमी कहते है।महाराणा सांगा वीर ,उदार 'कर्तज्ञ ,बुद्धिमान और न्याय परायण शासक थे।अपने शत्रु को कैद करके छोड़ देना और उसे पीछा राज्य दे देना सांगा जैसे ही उदार और वीर पुरुष का कार्य था।वह एक सच्चे क्षत्रिय थे,।उन्होंने अपनी वीरता निडरता और साहसी युद्ध -कौशल से मेवाड़ को एक सामाराज्य बना दिया था।राजपूताने के बहुधा सभी तथा कई बाहरी राजा भी मेवाड़ के गौरव के कारण मित्रभाव से उनके झंडे तले लड़ने में अपना गौरव समझते थे।इस प्रकार राजपूत जाति का संगठन होने के कारण वे बाबर से लड़ने को एकत्र हुए।सांगा अंतिम हिन्दू राजा थे ,जिनके सेनापतित्व में सब राजपूत जातियां विदेशियों "तुर्कों "को भारत से निकालने के लिए सम्मलित हुई।यद्धपि इसके बाद और भी वीर राजा उत्पन्न हुए ,तथापि ऐसा कोई न हुआ ,जो सारे राजपूताने की सेना का सेनापति बना हो।राणा सांगा ने देश के सम्मान और आदर्शों की स्थापना हेतु जीवन भर प्रयास किया ।दिल्ली और मालवा के मुगल बादशाहों से 18 बार युद्ध कर विजय प्राप्त की थी। दिल्ली के इब्राहिम लोधी ने 2 बार महाराणा से युद्ध किया ,दोनों ही बार उसकी पराजय हुई।मांडू मालवा के बादशाह महमूद दुतीय को कैद करना महाराणा सांगा के अदभुत पराक्रम का ही परिणाम था।इनके शरीर में युद्ध के 80 घाव थेऔर शायद ही शरीर में कोई अंश ऐसा हो जिस पर युद्धों में लगे हुए घावों के चिन्ह न हों।उसी समय समय बाबर ने दिल्ली के इब्राहिम लोधी को मार कर दिल्ली विजय करली।कुछ समय बाद बाबर ने आगरा भी जीत लिया।बाबर यह अच्छी तरह से जानता था की हिन्दुस्तान में उसका सबसे शक्तिशाली शत्रु महाराणा सांग था।उनकी बढ़ती हुई शक्ति व् प्रतिष्ठा को बाबर जानता था।वह यह भी जनता था कि राणा सांगा से युद्ध करने के दो ही परिणाम हो सकते है --या तो वह भारत का सम्राट हो जायेगा या उसकी सब आशाओं पर पानी फिर जायेगा और उसे बापस काबुल जाना पड़ेगा ।
वि.सं. १५८४ चैत्र सुदि ११ (ई.स. १५२७ मार्च) को दोनों सेनाएँ आमनेसामने हुई। प्रारम्भिक लड़ाइयों में बाबर की पराजय हुई। मुस्लिम सेना में घोर निराशा फैल गई। बाबर ने अपनी सेना में जोश लाने के लिए एक जोशीला भाषण दिया। अपनी सेना की रणनीति बनाई। बाबर के पास बड़ी-बड़ी तोपें थी, उनकी मोचबिन्दी की। वि.सं. १५८४ चैत्र सुदि १४ को (ई.स. १५२७ मार्च १७) दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। बाबर ने तोपखाने का प्रयोग किया। इससे पहले भारत में तोपों का प्रयोग नहीं होता था। तोपों से बहुत से राजपूत मारे गए, लेकिन उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आई। मुगल सेना का पलड़ा हल्का था, वे हार रहे थे। मुगल सेना भी पूरे जोश से युद्ध कर रही थी। इतने में एक तीर राणा साँगा के सिर में लगा, जिससे वे मुर्छित हो गए और कुछ सरदार उन्हें पालकी में बैठा कर युद्ध क्षेत्र के बाहर सुरक्षित जगह पर ले गए। राणा के हटते ही झाला अञ्जा ने राजचिह्न धारण करके राणा साँगा के हाथी पर सवार होकर युद्ध का संचालन किया । झाला अज्रा की अध्यक्षता में सेना लड़ने लगी। लेकिन राणा साँगा की अनुपस्थिति में सेना में निराशा छा गई। राजपूत पक्ष अब भी मजबूत था। तोपखाने ने भयंकर तबाही मचाई, इसी समय बाबर के सुरक्षित दस्ते ने पूरे जोश के साथ में पराजय हुई। राणा साँगा को बसवा नामक स्थान पर लाया गया। इसी बीच किसी सरदार ने उन्हें विष दे दिया जिससे राणा साँगा का ४६ वर्ष की आयु में स्वर्गवासहो गया। वीर विनोद में बसवा स्थान बताया गया है। बसवा में एक प्राचीन चबूतरा बना हुआ है। यहाँ के लोगों की मान्यता है कि यह चबूतरा राणा साँगा का स्मारक है। मेवाड़ वाले भी इसे ही राणा साँगा का स्मारक मानते हैं। अमर काव्य राणा साँगा की मृत्यु के लगभग सौ वर्ष बाद की रचना है। अत: यही सम्भव है कि राणा साँगा का दाह संस्कार बसवा में ही हुआ होगा। बसवा दौसा जिले में बांदीकुई की और जाने वाली रेलवे लाइन के आस पास स्थित है ।रेलवे क्रासिंग के पास ही बसवा में राणा सांगा की समाधि बनी है ।राणा सांगा का चबूतरा यानी समाधि स्थल ।यहीं पर यह हिन्दुस्तान का गौरव वीर योद्धा प्रकृति के पंच तत्वों में विलीन हुआ था ऐसी मान्यता है वहां के क्षेत्रीय वाशिन्दों की ।
राणा सांगा के विषय में जब मैं मंथन और चिंतन करता हूँ तो मन में एक ही ख्याल बार बार आता है कि जिनके जिस्म में 80 घाव ,एक हाथ और एक आँख का आभाव ।अंदर से कितना मजबूत रहे होंगे सांगा ।यह अपनी मातृभूमि के प्रति उनकाअगाध प्रेम और सच्चा समर्पण ही होगा जो उनकी रगों में साहस और वीरता का संचार करता होगा ।उनकी वीरता को नमन करता हूँ जिनके नेतृत्व में जिस राजपुताना संघ का निर्माण हुआ उसके छिन्न -भिन्न हो जाने के उपरांत भी मेवाड़ के प्रति आस्था में कमी नहीं आई ।सांगा ने राजपूताने में ही केवल राजनैतिक -एक्य की स्थापना नहीं की अपितु विभिन्न भारतीय शक्तियों को एक सूत्र में बांध कर बाह्य आक्रमणकारी मुगलों का सामना करने की अतिआवश्यक प्रेरणा दी ।यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं है कि राणा सांगा ने अपने प्रभाव से देश में एक नयी आशा और विश्वास को जन्म दिया । लेकिन बसवा स्थित उनकी समाधि स्थल और स्मारक की बदहाली को देख कर मन व्यथित भी हुआ ।एक ओर मुगलों ने आगरा में अपने घोड़ों तक की इतनी भव्य समाधि बना दी दूसरी ओर आजादी के बाद भी राणा सांगा की ऐसी बेकद्री से अनदेखी ------क्यों?जब उस समाधि स्थल को देखा तो लगा मानो कोई वीरान जगह जहां सूखा ही सूखा ।समाधि के चबूतरे की दुर्दशा जिसको शब्दों में भी वर्णित नहीं किया जा सकता जिसके ऊपर सुखी घास और कटीली झाड़ियां उगी हुई तथा उसकी चुनी हुई दीवार भी वीरान हालात में ।समाधि स्थल के चारों ओर स्थानीय लोगों के अनुसार राज्य सरकार ने लगभग 6 बीघा जमीन छोड़ रखी है उस पर भी कुछ स्थानीय लोगों ने अतिक्रमण कर रखा है ।कहने का आशय यह है कि न उसका कोई संरक्षण और नहीं कोई संरक्षक।इस देश मे बलिदान ,त्याग ,वीरता ,शौर्यता ,आन-बान -शान ,देशभक्ति और स्वाभिमान का यही तो दुर्भाग्य है ।शहीदों की शहादत का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि स्वतंत्रता के अमर पुरोधाओं के समाधि स्थलों और स्मारकों की दुर्गति ,जिससे उस क्षेत्र की वीरता ,देशभक्ति और उस क्षेत्र के वीरों द्वारा राष्ट्र के लिए किये गये बलिदान और देश के लिए उनके द्वारा किये गये सहादत के कार्यों की जानकारी देश की जनता को होगी इसकी तो कल्पना करना भी बेमानी होगी ।
आज देश के अंतर्गत न जाने कितने सामाजिक ,हिंदुत्व की दुहाई देने वाले संगठन है जो हर प्रान्त में विद्यमान है किसी भी संगठन को यह बदहाल जीर्ण -शीर्ण स्थित में पड़ा हुआ राष्ट्र की धरोहर समाधि स्थल नहीं दिखाई दिया ।आज कल तो स्वच्छ भारत का भी अभियान बहुत तेजी से चल रहा है जिसमें बड़े -बड़े राजनेता भी झाड़ू लगाने का ढोंग दिखाते नजर आये परन्तु किसी स्थानी स्वयं सेवी या राजनेता को इस स्थल की बदहाल हालात दिखाई नही दी ।हो सकता है न जाने देश में ऐसे कितने स्वतंत्रता के पुरोधाओं के समाधि स्थल उपेक्षित होगे जो अपने अच्छे दिनों के आनेका बेसब्री से इंतजार कर रहे होंगे ।
आज देश के प्रत्येक प्रान्त में राजपूत /क्षत्रिय संगठन काफी सक्रिय नजर आरहे है ।कुछ काम भी सकारात्मक कर रहे है ।लेकिन कुछ मात्र कागजी और फोटो डालने तक ही सीमित है ।कुछ भाइयों के सुझाव देखता हूँ कहते है कि सभी संगठन एक होकर एक ही संगठन बनायें ।ये राजपूतों में शायद ही संभव हो।आजकल हम अपने परिवार के लोगों को जब संगठित नहीं रख सकते तो देश के इतने बड़े समाज को एक बैनर तले एक व्यक्तित्व के नेतृत्व में संगठित रखना सम्भव कम लगता है बैसे आजकल असम्भव कुछ नहीं ।खैर मैं तो अपनी बात यहकहना चाहता हूँ कि हमारे स्थानीय राजपूत संगठनों को इस बदहाल स्थिति में पड़े हुये बसवा नगर में राणा सांगा के स्मारक तथा समाधि स्थल का संरक्षण एवं विकास खुद संगठित होकर करना होगा तभी हम अपने पूर्वजों के इस गौरव इतिहास को संजोके रख पाएंगे ।राणा सांगा का जन्म 12अप्रैल 1482 को हुआ था ।शायद ही मेवाड़ को छोड़ कर उनको विगत इसी 12अप्रैल को किसी ने श्रद्धा सुमन अर्पित किये हों।जब मेरे किसी मित्र ने उनकी समाधि स्थल की खस्ता हालात की वीडियो भेजी जिसमे कुछ स्थानीय राजपूत समाधि पर 12 अप्रैल को श्रद्धांजलि देने आये होंगे मैंने भी उनके दिल के दर्द को महसूस किया वे बहुत ही शासन की अनदेखी से व्यथित थे ।मैं भी उसकी बदहाल स्थिति को देख कर दंग रहगया और मन में भारी बेदना भी हुई ।
हो सकता है कि आपको लगे कि मेरी लेखनी कुछ अतिश्योक्ति कर रही है ,किन्तु सत्य को लिखने के लिए मैं मजबूर हूँ ।कम से कम अपने क्षत्रिय समाज को बताना तो बहुत जरूरी भी है ।यदि नहीं लिखूंगा तो अपमान होगा एक साहसी हिंदुत्व के रक्षक अमर पुरोधा सच्चे राजपूत के बलिदान ,त्याग ,देशभक्ति ,वीरता और शौर्यता का ।इस लिए मैंने ये सब लिखने का निर्णय किया ।जो सत्य है वह सत्य ही रहेगा ।
इस देश की जनता ने ,सरकारों ने ,कर्णधारों ने तथा राजनेताओं ने चाहे राजपूतों के बलिदान की उपेक्षा की हो ,राजपूतों की उपेक्षा की हो ,उनके कार्य और कर्तव्यों को महत्व नहीं दिया गया हो,राजपूत ने कभी अपना फर्ज पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।बड़ी से बड़ी कुर्वानी और बलिदान देकर अपना कर्तव्य पूरा किया ।अपनी जिम्मेदारी को वहन किया ।क्षत्रियों के फर्ज पर ,उनके कर्तव्य पर ,उनकी देशभक्ति पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता ।
व्यक्तिगत स्वार्थों और राजनैतिक स्वार्थों की खातिर कभी बलिदानों और शहादतों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए ।किन्तु इसे देख कर ऐसा लगता है कि आज ऐसा हो रहा है जो दुर्भाग्यपूर्ण है ।
हमें और हमारे सभी सामाजिक संगठनों को बिना मतभेद के अपने राजपूत गौरव के अमर पुरोधाओं की जयंती स्वयं मनानी होंगी । उनके स्मारकों और समाधि स्थलों की स्वयं सुरक्षा और विकास करना होगा किसी का मोहताज नहीं बनना ।बैसे कड़वा सच तो यह भी है कि खुद क्षत्रिय /राजपूत संगठन चलाने वाले पदाधिकारियों के घरों में भी राणा सांगा, महाराणा प्रताप ,पृथ्वीराज चौहान ,अमर सिंह राठौड़ ,वीर शिवाजी , कुंवर वीर सिंह ,रानी लक्ष्मीबाई ,रानी दुर्गावती जैसे वीर और वीरांगनाओं की तस्वीर नहीं मिलेगी।कैसे आप कल्पना करेंगे कि हमारी भावी पीढ़ी में कैसे राजपूती संस्कार आएंगे ।अपने गौरवशाली इतिहास को बनाये रखने के लिए हम सब को संगठित होकर समाज के विकास में सहयोग करना होगा तभी हम अपनी इन गौरवशाली धरोहरों का अपनी युवा पीढ़ी और आगे आने वाली पीढ़ी के सामने गुणगान कर पाएंगे ।यही है वास्तविक दिल की वेदना का दर्द ।लेखक ने कुछ लिखने में गलत लिख दिया हो तो उसके लिए क्षमाप्रार्थी भी हूँ ।जय हिंद ।जय राजपूताना ।।
लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव-लढोता ,सासनी ,जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश
मिडिया सलाहकार नार्थ इंडिया
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा
(अध्यक्ष ,महाराजा दिग्विजय सिंह जी ,वांकानेर,कार्यकारी अध्यक्ष ,माननीय महेंद्र सिंह जी तंवर )
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