Wednesday, 6 December 2017

दास्ताने कोठारिया मेवाड़ क्रांतिकारियों की शरणस्थली

दास्ताने  कोठारिया (मेवाड़)क्रांतिकारियों की शरणस्थली एवं साहसी, निडर, राष्ट्रभक्त स्वतंत्रता के अमर पुरोधा रावत जोधसिंह जी की गौरवगाथा----- ------
मेवाड़ की कोठारिया जागीर के रावत जोधसिंह चौहान मेवाड़ के प्रथम श्रेणी के सामन्त थे ।इस जागीर में लगभग 60 गांव आते थे जिसकी उस जमाने में साधारणतया राजस्व आय 23615 र0 के लगभग थी तथा कर (Tribute) र0 1502 के लगभग था।
  1857-58 के विदेशी दासता विरोधी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में राजपूताने के जिन कतिपय सामन्तों ने योगदान दिया उनमें मेवाड़ की पावन पवित्र राष्ट्र भक्त वीरों की पूज्यनीय भूमि पर
स्थित ,सलूम्बर ,भींडर ,लसानी ,रूपनगर ,के जागीरदारों के साथ -साथ कोठारिया ठिकाने के रावत जोधसिंह जी भी अग्रणी रहे ।स्वभाव ,आचरण एवं विचारों की दृष्टि से रावत जोधसिंह जी क्षत्रिय परम्पराओं के कट्टर समर्थक थे ।वे मेवाड़ की छोटी एवं कम आय वाली जागीर के स्वामी होते हुए भी विदेशी दासता विरोधी भावनाएं संजोये हुए थे ।वे मेवाड़ के उन इने गिने सामन्तों में से थे जो पूर्ण विलासिता एवं अकर्मण्यता में डूबने से बचे हुये थे ।इस लिए 1857 -58 के क्रांतिकारी स्वतंत्रता सैनिकों को निरंतर सहयोग देते रहे।इतना ही नहीं वह स्वतंत्रता युद्ध की असफलता के बाद भी अंग्रेजी प्रभुत्व की चिंता किये बिना निडरता के साथ अंग्रेज सरकार विरोधी कार्यवाहियां करते रहे ।रावत जोध सिंह जी स्वाभिमानी होने के साथ ही प्रच्छन्न देश भक्त थे।उन्हें भी राजपूताने में अंग्रेजों का हस्तक्षेप बिल्कुल पसन्द नहीं था लेकिन मेवाड़ के महाराणा के भान्जे होने के कारण शुरू में तो अंगेजों के सामने विरोध में नहीं आये पर उस वीर पुरुष ने संकट में आये कई देशभक्त क्रांतिकारियों को अपने ठिकाने में अंग्रेजों  की परवाह न करते हुए शरण दी ।
  ‎ अक्टूबर 1857 में नारनोल में पराजित होने के बाद जब अंग्रेज सेना द्वारा आउवा ठाकुर कुशाल सिंह जी का पीछा किया गया तो वह गोडवाड़ होते हुए अरावली पर्वतीय इलाके में आ गए ,जहां से कोठारिया रावत जोधसिंह जी ने उनको सपरिवार अपनी जागीर में बुलाकर शरण दी ।जब अंग्रेज सरकार को इस बात का पता चला तो जोधपुर राज्य के सैनिक और अंग्रेज घुड़सवार कुशाल सिंह जी को गिरफ्तार करने 8 जून 1858 को कोठारिया पहुंचे किन्तु वे कुशाल सिंह जी का वहां पता नहीं पासके ओर उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ा ।उसके बाद 21 अप्रैल 1859 को गुप्त सूचना पुनः पोलिटिकल एजेन्ट को दी कि आउवा ठाकुर का परिवार हमीरगढ़ में रह रहा है ओर ठाकुर कुशाल सिंह जी स्वयं कोठारिया जागीर में मौजूद है।अंग्रेज सरकार को यह भी सूचित किया गया कि भीमजी चारण नामक व्यक्ति भी कोठारिया में शरण पाए हुए है ,जो गंगापुर में अंग्रेज अधिकारियों की संपत्ति की लूटखसोट में शरीक था।और अंग्रेज अधिकारियों के आदेश के बावजूद कोठारिया रावत जोधसिंह जी ने गिरफ्तार नहीं किया है।अंगेज सरकार ने कोठारिया रावत के विरुद्ध कोई कदम उठाने का साहस नहीं किया क्यों कि अंग्रेजों को डर था कि ऐसा करने से उस विपत्ति काल में मेवाड़ के असन्तुष्ट सामन्त मिल करविद्रोह कर सकते है दूसरा मेवाड़ के महाराणा के भान्जे होने के कारण भी रावत कोठारिया को अंग्रेजों ने चलते छेड़ना उपयुक्त नहीं समझा।उस काल में बड़े -बड़े राजा -महाराजा अंग्रेजों से भयभीत रहते थे,ऐसे में रावत जोधसिंह जी द्वारा प्रदर्शित निर्भीक देशभक्त का आचरण , स्वतत्र्य प्रियता आनबान और ठाकुर कुशाल सिंह जी आउवा को आश्रय देने पर किसी चारण कवि ने लिखा---
  ‎कोठारिया कलजुग नहीं,सतजुग लायो सोध।
  ‎अंगरेजां आडो फिरे,जाड़ो रावत जोध।।
  ‎मुरधर छांड खुसालसी ,भागो चापों भूप।
  ‎रावत जोये राखियो, रजवट हंद रूप।
  ‎जोध भलां ही जनमियो,सत्रुआ उरसाल।
  ‎रावत सरनैं राखियो,कामन्धा तिलक खुशाल।।
  ‎देश के प्रसिद्ध क्रांतिकारी पेशवा नाना साहब एवं उनके सहयोगी राव साहब पाण्डुरंगराव सदाशिव पन्त जी तथा अँग्रेजी हुकूमत के खिलाफ खुला सशस्त्र विद्रोह करने वाले तात्या टोपे के साथ रावत जोधसिंह जी का बराबर सम्पर्क था।जोधसिंह जी ने समय -समय पर राव साहब द्वारा भेजे गये लोगों को शरण दी और सहायता प्रदान की ।इस प्रकार से कई लोग साधु वेश में कोठारिया ठिकाने में गुप्तरूप में रहे ।अंग्रेज सरकार को इस बात का संदेह बना रहा कि राव साहब स्वयं छद्दम वेश में कोठारिया में छिपे हुये है राव साहब द्वारा रावत जोध सिंह जी को लिखा पत्र मिलता है जो उनके निकट सम्बन्धों का महत्वपूर्ण प्रमाण है।
  ‎9 अगस्त 1857 को जब तांत्या टोपे की सेना जनरल रॉबर्ट्स की सेना द्वारा भीलवाड़ा के निकट पराजित हुई तो तांत्या वहां से सीधा नाथद्वारा होते हुये कोठारिया पहुंचे।कोठारिया रावत जोधसिंह जी से उनको पर्याप्त सहायता मिली ।ऐसा कहा जाता है कि तांत्या की सेना के गोला -बारूद की कमी के कारण पांव युद्ध से उखड़ गए थे ।दुर्भाग्य से उन दिनों कोठारिया ठिकाने के पास भी पर्याप्त मात्रा में गोला बारूद  नहीं था।कहते है कि उसी समय कोठारिया का एक तोपची अवकाश पर बाहर चला गया ,उसकी अनुपस्थिति रावत जोधसिंह जी को बहुत अखरी थी तभी सहसा उस तोपची की 70 वर्ष की व्रद्ध मां ने तोपची की जगह स्वयं सम्हाली ओर संकट के उस समय में उस महिला ने गोला -बारूद के अभाव में लोहे के सांकले ,कील -कांटे  जो भी उस समय उपलब्ध हुए ,उसी से काम चलाया।उस बूढ़ी महिला के साहस ,बहादुरी ,देशभक्ति एवं कर्तव्यपरायणता से प्रसन्न होकर रावत साहब ने अपने कोठारिया ठिकाने का चेनपुरा गांव उस महिला को इनाम स्वरूप में जागीर में देदिया।ऐसी की कहते है राजपूती देशभक्ति।इस प्रकार कोठारिया रावत से पर्याप्त सहायता मिलने पर तांत्या टोपे ने 13 अगस्त को पुनः कोठारिया के निकट अंग्रेज सेना का सामना किया किन्तु दुर्भाग्यवस तांत्या यहां भी पराजित हुये।
  ‎ स्वतंत्रता युद्ध की असफलता के बाद भी स्वाभिमानी देशभक्त रावत जोधसिंह जी अंग्रेज सरकार विरोधी कार्यवाहियां करते रहे ।
  ‎1861 ई0 में महाराणा स्वरूपसिंह जी का देहांत होने पर उनके साथ कोई सती प्रथा का उदाहरण अंग्रेज सरकार को मिला जिसमे मेहता गोपालदास नाम के व्यक्ति का प्रमुख हाथ था।अंग्रेज सरकार ने उसको पकड़ने के आदेश किये किन्तु वह कोठारिया चला गया जहां रावत जोधसिंह ने उसको भी शरण देदी।उसी भाँति रावत जोधसिंह जी ने सरकारी आदेश के विरुद्ध मेवाड़ के पूर्वप्रधान मंत्री मेहता शेरसिंह को भी शरण दी थी ।
  ‎1963ई0 में महाराणा शम्भूसिंह की नाबालिकी में पोलिटिकल एजेन्ट द्वारा हाकिम मेहता अजीतसिंह की अमानवीय अत्याचार और हत्या अपराध लगाकर गिरफ्तार किया गया ।अजीतसिंह उदयपुर की कैद से भागकर कोठारिया रावत की शरण में चला गया।पोलिटिकल एजेन्ट और मेवाड़ सरकार की धमकीयों के बाबजूद रावत जोधसिंह जी ने अजीतसिंह को समर्पित करने से इन्कार कर दिया किन्तु शरणागत की  रक्षा करने के राजपूतों के परम्परागत कर्तव्य के प्रति राजपूतों की उत्कंठ भावना को देखते हुये पोलिटिकल एजेन्ट को साहस नहीं हुआ क्यों किइस प्रकार की कार्यवाही से राजपूतों में अंग्रेज सरकार के विरुद्ध राष्ट्रीय भावनाएं उत्तपन्न होने का खतरा था ।अलबत्ता अंग्रेज सरकार के दबाब के कारण महाराणा शम्भू सिंह जी ने कोठारिया जागीर के 2 गांव जब्त करने के लिए धौंस अवश्य भेजी थी ।
  ‎1865ई0 में मेवाड़ के तत्कालीन अंग्रेज पोलिटिकल एजेन्ट ले0 कर्नल ईडन ने अपने दौरे पर जाते हुए कोठारिया जागीर के भीतर तम्बू डाल कर ठहरने का  विचार किया तो रावत जोधसिंह जी ने ऐसा करने पर ईडन के तमाम कर्मचारियों को मार डालने की धमकी दी ।ईडन ने जब इस बात की रिपोर्ट अंग्रेज सरकार को की किन्तु रावत जोधसिंह जी के विरुद्ध अंग्रेज सरकार द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की जा सकी।
  ‎इस प्रकार वीरों की प्रणेता पावन पवित्र भूमि मेवाड़ में जन्मे इस स्वतंत्रता प्रेमी राष्ट्रभक्त साहसी निडर ठाकुर ने अपने कोठारिया ठिकाने में कई क्रांतिकारियों को शरण दी व साधन भी उपलब्ध कराए।इस प्रकार स्वतंत्रता के दीवाने कोठारिया के रावत जोधसिंह जी चौहान ने भी स्वाधीनता के लिए की गई क्रांति में अपना महत्वपूर्ण  योगदान देकर अमरता प्राप्त की ।
  ‎देश की आजादी के लिए स्वाधीनता संग्राम से लेकर आजादी के बाद भी देश के लिए सबसे अधिक बलिदान व त्याग क्षत्रिय जाति के  हिस्से में रहा है यह कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी ।यही कारण रहा कि मेरा झुकाव भी उन क्षत्रिय वीरों और वीरांगनाओं पर रहा जिन्हें इतिहास ने जन -साधारण तक नहीं पहुंचाया ।दूसरे शब्दों में यह भी गलत नहीं है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राजपूतों के इतिहास को दबाया गया है।1857 ई0 के स्वाधीनता संग्राम में देश के सभी प्रान्तों के क्षत्रियों का स्वतंत्रता प्राप्ति में अहम योगदान रहा है लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि तत्कालीन इतिहासकारों ने भी उनको इतिहास में वह स्थान नहीं दिया जिनके वे  हकदार थे ।हमारे राजपूत इतिहासकारों ने भी कभी इस विषय पर चिंतन नहीं किया  ।आज के युग में सभी अपने अपने समाज की बातें करते है और अपनों के विषय में लिखते है ,तो हमारे समाज के हमारे  पूर्वजों के त्याग ,बलिदान तथा राष्ट्रभक्ति के इतिहास को दूसरे लोग क्यों लिखेंगे ।हमें अब अपने पूर्वजों के गौरवमयी इतिहास को स्वयं लिखना होगा।राजपूताने में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले विभिन्न मेवाड़ ,मारवाड़ तथा अन्य क्षेत्रों के राजपूत सामन्तों का अहम योगदान रहा है लेकिन सभी के विषय में इतिहासकारों ने नहीं लिखा यही अमर शहीदों के साथ अन्याय है ।
  ‎अंत में ,मैं अपने इस लेख को कोठारिया ठाकुर साहब रावत जोधसिंह जी की स्मृति में समर्पित करते हुऐ अपने शब्दों के द्वारा स्वतंत्रता के अमर पुरोधा देशभक्त को सादर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुऐ सत -सत नमन  करता हूँ ।जय हिंद।जय राजपूताना।।

लेखक -डॉ0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव-लढोता, सासनी ,जिला-हाथरस
उत्तरप्रदेश ।
हाल निवास -सवाईमाधोपुर
राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी ,अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा (वांकानेर)
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Friday, 8 September 2017

A Practising Politician First President of U.P Bhartiya Jana Sangh - Late Rao Krishna Pal Singh Ji Awagarh----



A Practising Politician First President of U.P Bhartiya Jana Sangh - Late Rao Krishna Pal Singh Ji Awagarh------
The Bhartiya Jana Sangh was the most robust of the Frist generation of Hindu nationalist parties in modern Indian politics.on september 2 ,1951 in Lucknow ,the UP Unit was formed . Lala Bal Raj Bhalla ji (  President Punjab Unit )delivered the inaugural address in which he stressed the Bhartiya aspect of the party's program and did so in such a manner that anynon-Hindu would certainly have been frightened away.The party adopted a resolution calling for an All-India meeting.Rao Sahib Krishna Pal Singh Awagarh ,just such a landlord ,a former  army Major and member of UP Legislative Council and one -time President of the Provincial Hindu Sabha was elected the first President and Pandit Din Dayal Upadhyay  , the reputed writer ,orator and social worker of Uttar Pradesh was appointed as first General Secretary.
On the 9th September 1951 ,the presidents , Secretaries and some other prominent workers of the Provincial Jan Sangh 's of Punjab ,Himachal Pradesh ,Delhi ,West Bengal ,UP and Madhya Bharat met in Delhi and decided to convene an All India Convention at N Delhi on 21st October 1951,and appointed Prof .Balraj Madhok as it's general secretary-cum-convener on the 11th october 1951,on the unanimous request of all the top ranking leaders of the regional Jan Sanghs, Dr Syama Prasad Mookerjee agree to accept the post of the Founder President of the party .
   In a historic gathering of 400 delegates of the Sangh from different part of the country,the All India  Bhartiya Jan Sangh was launched on 21st October 1951 ,at N Delhi ,Dr Syama Prasad Mookerjee was unanimously elected President of Bhartiya Jan Sangh ,a provisional working commitee was choosne The immediate origin of the Jan Sangh 29 members of the provisional  working commitee were selected in which Shyama Prasad  Mookerjee was as president ,Bhai . Mahavir ji and Mauli Chandra Sharma (both from Delhi) And in other 16 . Members Rao Krishna Pal Singh ji of Awagarh and Deen Dayal Upadhyaya ji both from U P Unit.DeenDayal Upadhyay ji was ,as shall be seen to rise to the highest level of the Jan Sangh ,Rao Krishna Pal Singh Awagarh left the party in 1953 and was elected to the Lok Sabha in 1962 on the Swantarta Party ticket from Jalesar Lok Sabha Parliamentary Constituency in UP. Swatantra Party was born on August 1,1959 listening men led by C.Rajagopalachari.In 1962 general election ,the first after its formation (1962-67) 18seats occupied .Some ex-Zamidars and Talukedars have occupied important positions in both Jan Sangh and Swatantra party.The Raja of Jaunpur was for awhile after the 1962 election the leader of the Jan Sangh in the assembly and was elected President of U P JanSangh in 1963.The first leader of the Swatantra Party in UP Assembly was the Raja of Manakpur a former Talukedar of Gonda district.In  Swatantra Party in Rajasthan , Maharawal Laxman Singh  of Dungarpur was among the first to join the party leading to a four more princes joining ,the most prominent among them being Maharani Gayatri Devi  Jaipur .
    Rao Krishna Pal Singh of Awagarh was a practising  politician.Rao Sahib was elected as member of parliament from Jalesar Lok Sabha against Krishna Chandra of Indian National Congress in 1962.He was chairman district board Etah . Associated with Civil And Military Administration on between 1921 to 1950.Associated with Hindu Maha Sabha,Ram Rajya Parishad , Bhartiya Jan Sangh and Liberal Party of India ,was member of UP Legislative Council from 1926 to 1938.
    C .Y .Chintamani was as his political Guru whose photo had a permanent place on his study table ,he could not accept emotionally any of the current political labels.For some time he got identified with Congress when the Satyagrah movement was at its height ,even to the point of being threatened with possibility of being placed behind the bars ,later on with the Swatantra and JanSangh parties.but with none of these he was at peace.The Liberal in him was too strong to permit a compromise with any straight jacket ideology.The ambition to rise in life ,which usually provides the urge for adjustment and compromises was conspicuous by its absence .It was not a part of his culture.He was very close to Pt.Madan Mohan Malviya ,Pt.MotiLal Nehru and Pt.Govind Ballabh Pant .
    National Liberal Federation of India 10th session ,Dec 27,28 ,29 ,1927 Resolution.The Council of the Federation be authorised to take all necessary steps to give effect to the resolution supported by Rao Krishna Pal Singh Awagarh ,C .Y Chintamani ,M L C (UP) and Babu Bhagwati Saran Singh ,Bihar.
    Rao Sahib participated in 1930 in "Namak Satyagrah"in front of Kotwali at Agra .Later on join Indian Army and exhibited his entire talent and served till being Major .He was popular amongst his senior officers for the reason of being very helpful and his simplicity .
    Very few people know about Late Rao Krishna Pal Singh that he was dedicated towards Hindi Language and served it with full spirit.He had been Chairperson since 1933 to 1936 in Nagri Pracharini Sabha Agra and served the organization with his atmore sprit physically ,. Mentally and financially.
    Rao Sahib was a close friend of Raja Mahendra Pratap ,a famous freedom fighter of Aligarh district and honoured him with the degree of" Aryan Peshwa " and rendered help to help to freedom fighters whenever needed .
    Rao Sahib had been member of Parliament from 1962 to 1967  from Swatantra Party and with the expenditure of 5000Rs was victorious unanimously.He in case of his absence in Parliament refused to accept the daily allowence of Rs 21 and latter on Rs 35 which was given to every Parliament leader.His secretary Mittal Sahib often argued on his issue but he said No Work No allowance ,even he may be in Delhi but due to his absence for Parliament ,his conscience does'nt allow to accept it.May it be the motivational force to present Politician in this respect .
    Rao Sahib had been Vice -President of Raja Balwant Singh College Management Committee throughout his life .He was a dedicated patriot and served his nation with full spirit.Raja Balwant Singh College is a great symbol of his glorious work .He was by far the greatest gentleman whose benevolence ,generosity and humanitarianism will keep inspiring future generations for all that is great and good in human life.
    Jai Hind .Jai  Rajputana.
References---
1-The Jan Sangh -A Biography of an Indian Political part Oxford University Press,London,1969 ,P 73.By Craig.Baxter.
2-Ideology,social Base and strategies of electoral Mobilisation of the Jan Sangh :-A Background.Genesis of JanSangh in UP.
3-Full text of  JanSangh .A Biography of an Indian Political Party .
4-Hindu Nationalism and Indian Politics .Origin and Development of Bhartiya Jan Sangh.By Graham,B D.
5-Bharat Kesri Dr Syama Prasad Mookerjee with Modern Implication by Das ,S .C.Bhartiya JanSangh on the 21st of October 1951-1952.

Author-Dr Dhirendra Singh Jadaun
Village-Larhota near Sasni
District-Hatharas ,UP.
Rashtriy Media Prabhari
Akhil Bhartiya Kshatriya Mahasabha (Wankaner

Friday, 14 July 2017

प्रेरक संस्मरण ---पूर्व चतुर्थ पूज्य सरसंघचालक प्रो0 राजेन्द्र सिंह उपाख्य "रज्जू भैया "की 15 वीं पुण्यतिथि (14 जुलाई 2003)के अवसर पर----

 एक चिन्तक ,मनीषी ,समाजसुधारक कुशलसंगठक ,अनासक्त कर्मयोगी ,सादगी  व सेवा  एवं आत्मीयता से परिपूर्ण एक आदर्श राष्ट्रवादी प्रतिमूर्ति थे ----- पूर्व चतुर्थ  पूज्य सरसंघचालक प्रो0   राजेन्द्र सिंह उपाख्य "रज्जू भैया "
प्रो0 राजेन्द्र सिंह जी की जीवन यात्रा आम आदमी को ईमानदारी ,प्रमाणिकता,ध्येयनिष्ठा ,कर्मठता के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देने वाली है ।
रज्जू भैया का परिचय क्षेत्र बहुत व्यापक था ।विभिन्न दलों और विचाधाराओं के राजनेताओं से उनके सहज सम्बन्ध थे,सभी संप्रदायों के आचार्यों व संतों के प्रति उनके मन में श्रद्धा थी और अनेकों का स्नेह और आशीर्वाद उन्हें प्राप्त हुआ था ।देश -विदेश के वैज्ञानिकों,विशेष कर सर सी0 वी0 रमन जैसे श्रेष्ठ वैज्ञानिक का उनके प्रति आकर्षण था ।ऐसे वहुआयामी व्यक्तित्व एवं  उनकी समग्रता को एक छोटे से संकलन में समाहित कर पाना सम्भव नहीं है ।यह कृति रज्जू भैया के प्रेरणाप्रद -सार्थक राष्ट्र समर्पित जीवन की एक झाँकी मात्र है जो उनकी विराटता का दिग्दर्शन कराती है ।एक तपस्वी ओर महान राष्ट्रसेवी की स्मृति को पुनीत स्मरणांजलि है यह लेख ।

पारिवारिक पृष्ठभूमि ----

रज्जू भैया का जन्म उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर शहर की इन्जीनियर्स कालोनी में २९ जनवरी सन् १९२२ को  हुआ था।इनके पिता इं० (कुँवर) बलबीर सिंह जी एवं माता  ज्वाला देवी थी। उस समय उनके पिताजी बलबीर सिंह वहाँ सिचाई विभाग में अभियन्ता के रूप में तैनात थे। बलबीर सिंह जी मूलत: उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जनपद के  सम्पन्न एवं  शिक्षित ख्यातिप्राप्त तौमर राजपूत परिवार  के बनैल गाँव  (पहासू कस्वे के पास ) के निवासी थे जो बाद में उत्तर प्रदेश के सिचाई विभाग से मुख्य अभियन्ता के पद से सेवानिवृत हुए। वे भारतीय इंजीनियरिंग सेवा (आई०ई०एस०) में चयनित होने वाले प्रथम भारतीय थे। परिवार की परम्परानुसार सभी बच्चे अपनी माँ ज्वाला देवी को "जियाजी" कहकर सम्बोधित किया करते थे। अपने माता-पिता की कुल पाँच सन्तानों में रज्जू भैया तीसरे थे। उनसे बडी दो बहनें - सुशीला व चन्द्रवती थीं तथा दो छोटे भाई - विजेन्द्र सिंह व यतीन्द्र सिंह भारतीय प्रशासनिक सेवा में थे और केन्द्र व राज्य सरकार में उच्च पदों पर रहे।
शिक्षा -----
रज्जू भैय्या की प्रारंभिक पढाई बुलंदशहर, नैनीताल, उन्नाव और दिल्ली में हुई |  उन्होंने बी.एस.सी. व एम.एस.सी. परीक्षा इलाहाबाद विश्व विद्यालय से 1939 -1943  में उत्तीर्ण की।विश्व विद्यालय में उनकी गिनती मेघावी छात्रों में की जाती थी ।

एक आदर्श शिक्षक ------

तत्पश्चात 1943 से 1967 तक इलाहाबाद विश्व विद्यालय  में भौतिकी शास्त्र विभाग में प्रवक्ता नियुक्त हुए ,फिर प्राध्यापक और अंत में विभागाध्यक्ष रहे ।महान गणतज्ञ हरीशचंद जी उनके वी0 एस 0 सी0 और एम0 एस0 सी0 के सहपाठी थे ।
रज्जू भैय्या का सम्बन्ध संघ से भले ही 1942 के बाद बना, किन्तु उनका समाज कार्य के प्रति रुझान प्रारम्भ से ही था |

विवाह करने से कर दिया था इन्कार ---

जब वे बी.एस.सी. फाईनल में थे तभी 20 वर्ष की आयु में ही बिना उन्हें बताये उनका विवाह तय कर दिया गया | लड़की के पिता सेना में डॉक्टर थे | ये स्वयं लड़की के पिताजी से जाकर मिले तथा उन्हें बताया कि वे अभी विवाह नहीं करना चाहते | बाद में संघ प्रवेश के बाद संघ पर प्रतिबन्ध, सत्याग्रह करने के कारण कारावास के बाद 1949 में जेल से छूटने के बाद उन्होंने अपनी माँ से स्पष्ट कह दिया कि वे विवाह नहीं करेंगे |

इलाहाबाद विश्व विद्यालय के थे मेघावी छात्र ------

प्रो0 राजेन्द्र सिंह जी  एम.एस.सी. में विश्वविद्यालय में द्वितीय स्थान पर रहे थे | नोबल पुरस्कार विजेता सी.वी. रामन ने उनकी प्रायोगिक परिक्षा ली और उन्हीं के रामन इफेक्ट पर रज्जू भैय्या के प्रयोग से इतने प्रभावित हुए कि 100 में से 100 अंक दे दिए और आगे शोध के लिए बंगलौर आने का निमंत्रण दे दिया | किन्तु रज्जू भैय्या को शिक्षक बनना था और अपने गुरू प्रो. कृष्णन के साथ रिसर्च करनी थी, अतः उन्होंने प्रयाग नहीं छोड़ा | कोई अन्य विद्यार्थी होता तो प्रो. रामन के प्रस्ताव को ठुकराने के बारे में सोच भी नहीं सकता था |
रज्जू भैय्या ने एक बार प्रो. सी.वी. रामन से पूछा कि “सर आप इतने बड़े भौतिक विज्ञानी होकर प्रतिवर्ष नवागत विद्यार्थियों को वही वही बेसिक बातें बार बार पढ़ाते हैं, तो बोर नहीं होते ? तो उन्होंने कहा था कि ‘Rajendra, when you take interest in every learner opening a new window to the sky of knowledge, you never get tired. You have to admire and enjoy every learner’s spirit of opening to explore.’ महान वैज्ञानिक के शब्दों को आत्मसात करते हुए उन्होंने शिक्षक के नाते अपना जीवन ढाला और सब विद्यार्थियों के प्रिय बने |
यदि रज्जू भैया संघ के प्रचारक न निकलते तो निश्चित ही एक बहुत बड़े विख्यात वैज्ञानिक बनते | 1947 में स्वतन्त्रता के बाद डॉक्टर होमी भाभा ने भारत में आणविक शोध को गति देने के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू से बात की | नेहरू जी ने उन्हें उसकी अनुमति दे दी और कहा जो भी व्यवस्था करना चाहें करें, जो भी उत्तम वैज्ञानिक वे चाहें इस प्रकल्प में ले सकते हैं, बजट की कोई चिंता न करें | इस प्रकल्प के लिए जब डॉ. भाभा ने प्रो. रमन से बात की तो उन्होंने प्रो. राजेन्द्र सिंह जी का उल्लेख करते हुए कहा कि वह प्रतिभाशाली नवयुवक मेरे साथ बेंगलौर आने को तो नहीं माना था किन्तु यदि वह इस प्रकल्प में साथ आ जाए तो उत्तम रहेगा | रज्जू भैय्या को बुलावा भेजा गया, परन्तु वह नहीं माने उन्होंने भाभा से कहा कि मैं सप्ताह में केवल तीन दिन पढ़ाने के लिए देता हूँ, बाकी समय संघ का काम करता हूँ, इससे कम समय मैं समाज को नहीं दे सकता | 6 – 7 दिन प्रति सप्ताह काम करने वाली सरकारी नौकरी मैं नहीं कर सकता | भाभा ने जब यह बात नेहरू जी को बताई कि एक प्रतिभाशाली वैज्ञानिक है जो नहीं मान रहा | नेहरू जी ने कहा कि ऐसी क्या बात है, उसे मुंह माँगी तनखाह की बात करो | इस पर भाभा ने कहा कि पैसे की बात नहीं है, उसके जीवन की प्राथमिकताएं अलग हैं | बाद में जब होमी भाभा गुरूजी से मिले तो उन्होंने कहा कि आपके कारण हमने भारत का एक श्रेष्ठ वैज्ञानिक खो दिया |

रज्जू भैय्या तमाम आकर्षणों को छोड़कर प्रचारक बने थे | सामान्य प्रचारकों से भिन्न वे बड़े घर के बेटे थे | हर सुख सुविधा के आदी थे | संगीत प्रेमी थे, वायलिन उनका प्रिय वाद्य था | लेकिन सब छोड़ दिया और एकनिष्ठ होकर संघ कार्य में रम गए | पिताजी उन दिनों लखनऊ में चीफ इंजीनियर के पद पर थे | माननीय भाऊराव ने लखनऊ संभाग प्रचारक के नाते उनकी नियुक्ति की | उनके पास लखनऊ, सीतापुर और प्रयाग तीन विभाग थे | लखनऊ आने पर रज्जू भैय्या अपने घर पर ही रहे, पिताजी से जब पूछा कि कोई आपत्ति तो नहीं, तो उन्होंने हंसकर कहा, मुझे कोई आपत्ति नहीं, किन्तु सरकारी बंगला है, यहाँ रहकर मित्रों से मिलजुल तो सकते हो, परन्तु कोई मीटिंग न करना |
उत्प्रेरक आत्मकथ्य -----

एक पुस्तक में उन्होंने यह रहस्योद्घाटन उस समय किया था जब वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक के पद को सुशोभित कर रहे थे

"मेरे पिताजी सन् १९२१-२२ के लगभग शाहजहाँपुर में इंजीनियर थे। उनके समीप ही इंजीनियरों की उस कालोनी में काकोरी काण्ड के एक प्रमुख सहयोगी श्री प्रेमकृष्ण खन्ना के पिता श्री रायबहादुर रामकृष्ण खन्ना भी रहते थे। श्री राम प्रसाद 'बिस्मिल' प्रेमकृष्ण खन्ना के साथ बहुधा इस कालोनी के लोगों से मिलने आते थे। मेरे पिताजी मुझे बताया करते थे कि 'बिस्मिल' जी के प्रति सभी के मन में अपार श्रद्धा थी। उनका जीवन बडा शुद्ध और सरल, प्रतिदिन नियमित योग और व्यायाम के कारण शरीर बडा पुष्ट और बलशाली तथा मुखमण्डल ओज और तेज से व्याप्त था। उनके तेज और पुरुषार्थ की छाप उन पर जीवन भर बनी रही। मुझे भी एक सामाजिक कार्यकर्ता मानकर वे प्राय: 'बिस्मिल' जी के बारे में बहुत-सी बातें बताया करते थे।"



राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में प्रवेश-----

रज्जू भैया की संघ यात्रा असामान्य है। वे बाल्यकाल में नहीं युवावस्था में सजग व पूर्ण विकसित मेधा शक्ति लेकर प्रयाग आये। सन् १९४२ में एम.एससी. प्रथम वर्ष में संघ की ओर आकर्षित हुए और केवल एक-डेढ़ वर्ष के सम्पर्क में एम.एससी. पास करते ही वे प्रयाग विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद पाने के साथ-साथ प्रयाग के नगर कायर्वाह का दायित्व सँभालने की स्थिति में पहुँच गये। १९४६ में प्रयाग विभाग के कार्यवाह, १९४८ में जेल-यात्रा, १९४९ में दो तीन विभागों को मिलाकर संभाग कार्यवाह, १९५२ में प्रान्त कार्यवाह और १९५४ में भाऊराव देवरस के प्रान्त छोड़ने के बाद उनकी जगह पूरे प्रान्त का दायित्व सँभालने लगे। १९६१ में भाऊराव के वापस लौटने पर प्रान्त-प्रचारक का दायित्व उन्हें वापस देकर सह प्रान्त-प्रचारक के रूप में पुन:उनके सहयोगी बने। भाऊराव के कार्यक्षेत्र का विस्तार हुआ तो पुन: १९६२ से १९६५ तक उत्तर प्रदेश के प्रान्त प्रचारक, १९६६ से १९७४ तक सह क्षेत्र-प्रचारक व क्षेत्र-प्रचारक का दायित्व सँभाला। १९७५ से १९७७ तक आपातकाल में भूमिगत रहकर लोकतन्त्र की वापसी का आन्दोलन खड़ा किया। १९७७ में सह-सरकार्यवाह बने तो १९७८ मार्च में माधवराव मुले का सर-कार्यवाह का दायित्व भी उन्हें ही दिया गया। १९७८ से १९८७ तक इस दायित्व का निर्वाह करके १९८७ में हो० वे० शेषाद्रि को यह दायित्व देकर सह-सरकार्यवाह के रूप में उनके सहयोगी बने। १९९४ में तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने अपने गिरते स्वास्थ्य के कारण जब अपना उत्तराधिकारी खोजना शुरू किया तो सबकी निगाहें रज्जू भैया पर ठहर गयीं और ११ मार्च १९९४ को बाला साहेब ने सरसंघचालक का शीर्षस्थ दायित्व स्वयमेव उन्हें सौंप दिया।

संघ के इतिहास में यह एक असामान्य घटना थी। प्रचार माध्यमों और संघ के आलोचकों की आँखे इस दृश्य को देखकर फटी की फटी रह गयीं। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर वे अब तक महाराष्ट्रीयन ब्राह्मणों के एकाधिकार की छवि थोपते आये हैं, उसके शिखर पर उत्तर भारत का कोई गैर-महाराष्ट्रियन अब्राह्मण पहुँच सकता है - वह भी सर्वसम्मति से। रज्जू भैया का शरीर उस समय रोगग्रस्त और शिथिल था किन्तु उन्होंने प्राण-पण से सौंपे गये दायित्व को निभाने का जी-तोड प्रयास किया। परन्तु अहर्निश कार्य और समाज-चिन्तन से बुरी तरह टूट चुके अपने शरीर से भला और कब तक काम लिया जा सकता था। अतएव सन् १९९९ में ही उन्होंने उस दायित्व का भार किसी कम उम्र के व्यक्ति को सौंपने का मन बना लिया। और अन्त में अपने सहयोगियों के आग्रहपूर्ण अनुरोध का आदर करते हुए एक वर्ष की प्रतीक्षा के बाद, मार्च २००० में सुदर्शन जी को यह दायित्व सौपकर स्वैच्छिक पद-संन्यास का संघ के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत किया।

दायित्व के प्रति पूर्ण समर्पण-----

रज्जू भैया की ६० वर्ष लम्बी संघ-यात्रा केवल इस दृष्टि से ही असामान्य नहीं है कि किस प्रकार वे एक के बाद दूसरा बड़ा दायित्व सफलतापूर्वक निभाते रहे अपितु इस दृष्टि से भी है कि १९४३ से १९६६ तक वे प्रयाग विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य के साथ-साथ एक पूर्णकालिक प्रचारक की भाँति यत्र-तत्र-सर्वत्र घूमते हुए समस्त दायित्वों का निर्वाह करते रहे। संघ-कार्य हेतु अपनी क्षमता को बढ़ाने के लिये वे संघ शिक्षा वर्ग में तीन वर्ष के परम्परागत प्रशिक्षण पर निर्भर नहीं रहे। प्रथम वर्ष का प्रशिक्षण उन्होंने १९४७ में तब प्राप्त किया जब वे प्रयाग के नगर कार्यवाह की स्थिति में पहुँच चुके थे, द्वितीय वर्ष उन्होंने १९५४ में बरेली के संघ-शिक्षा-वर्ग में उस समय किया जब भाऊराव देवरस उन्हें समूचे प्रान्त का दायित्व सौंपकर बाहर जाने की तैयारी कर चुके थे। तृतीय वर्ष उन्होंने १९५७ में किया जब वे उत्तर प्रदेश जैसे बड़े प्रान्त का दायित्व सँभाल रहे थे। इस बात से स्पष्ट है कि उन्होंने तीन वर्ष के प्रशिक्षण की औपचारिकता का निर्वाह संघ के अन्य स्वयंसेवकों के सम्मुख योग्य उदाहरण प्रस्तुत करने के लिये किया अपने लिये योग्यता अर्जित करने के लिये नहीं।

प्रयाग विश्वविद्यालय में पढ़ाते हुए भी वे संघ-कार्य में प्रचारकवत जुटे रहे। औपचारिक तौर पर उन्हें प्रचारक १९५८ में घोषित किया गया पर सचाई यह है कि उन्होंने कार्यवाह पद को प्रचारक की भूमिका स्वयं प्रदान कर दी। भौतिक शास्त्र जैसे गूढ विषय पर असामान्य अधिकार रखने के साथ-साथ अत्यन्त सरल व रोचक अध्यापन शैली और अपने शिष्यों के प्रति स्नेह भावना के कारण रज्जू भैया प्रयाग विश्वविद्यालय के सर्वाधिक लोकप्रिय और सफल प्राध्यापक थे। वरिष्ठता और योग्यता के कारण उन्हें कई वर्षों तक विभाग के अध्यक्ष-पद का दायित्व भी प्रोफेसर के साथ-साथ सँभालना पड़ा। किन्तु यह सब करते हुए भी वे संघ-कार्य में अपने दायित्वों का निर्वाह पूरी तरह करते रहे। रीडर या प्रोफेसर बनने की कोई कामना उनके मन में कभी नहीं जगी। जिन दिनों प्रयाग विश्वविद्यालय में भौतिकी विभाग के रीडर पद के लिये आवदेन माँगे गये उन्होंने आवेदन पत्र ही नहीं दिया। सहयोगियों ने पूछा कि रज्जू भैया! आपने ऐसा क्यों किया? तो उन्होंने बड़े सहज ढँग से उत्तर दिया- "अरे मेरा जीवन-कार्य तो संघ-कार्य है, विश्वविद्यालय की प्रोफेसरी नहीं। अभी मैं सप्ताह में चार दिन कक्षायें लेता हूँ, तीन दिन संघ-कार्य के लिए दौरा करता हूँ। कभी-कभी बहुत कोशिश करने पर भी विश्वविद्यालय समय पर नहीं पहुँच पाता। अभी तो विभाग के सब अध्यापक मेरा सहयोग करते हैं किन्तु यदि मैं रीडर पद पर अभ्यार्थी बना तो वे मुझे अपना प्रतिस्पर्धी समझने लगेंगे। इसलिए क्यों इस पचड़े में फँसना।" रज्जू भैया का सम्पूर्ण जीवन इस बात का साक्षी है कि उन्हें पद की आकांक्षा अथवा उसका मोह कभी रहा ही नहीं।

विश्वविद्यालय में अध्यापक रह कर भी उन्होंने अपने लिये धनार्जन नहीं किया। वे अपने वेतन की एक-एक पाई को संघ-कार्य पर व्यय कर देते थे। सम्पन्न परिवार में जन्म लेने, पब्लिक स्कूलों में शिक्षा पाने, संगीत और क्रिकेट जैसे खेलों में रुचि होने के बाद भी वे अपने ऊपर कम से कम खर्च करते थे। मितव्ययता का वे अपूर्व उदाहरण थे। वर्ष के अन्त में अपने वेतन में से जो कुछ बचता उसे गुरु-दक्षिणा के रूप में समाज को अर्पित कर देते थे। एक बार राष्ट्रधर्म प्रकाशन आर्थिक संकट में फँस गया तो उन्होंने अपने पिताजी से आग्रह करके अपने हिस्से की धनराशि देकर राष्ट्रधर्म प्रकाशन को संकट से उबारा। यह थी उनकी सर्वत्यागी संन्यस्त वृत्ति की अभिव्यक्ति!

संवेदनशील अंत:करण ------

नि:स्वार्थ स्नेह और निष्काम कर्म साधना के कारण रज्जू भैया सबके प्रिय था। संघ के भीतर भी और बाहर भी। पुरुषोत्तम दास टण्डन और लाल बहादुर शास्त्री जैसे राजनेताओं के साथ-साथ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जैसे सन्तों का विश्वास और स्नेह भी उन्होंने अर्जित किया था। बहुत संवेदनशील अन्त:करण के साथ-साथ रज्जू भैया घोर यथार्थवादी भी थे। वे किसी से भी कोई भी बात निस्संकोच कह देते थे और उनकी बात को टालना कठिन हो जाता था। आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार में जब नानाजी देशमुख को उद्योग मन्त्री का पद देना निश्चित हो गया तो रज्जू भैया ने उनसे कहा कि नानाजी अगर आप, अटलजी और आडवाणीजी - तीनों सरकार में चले जायेंगे तो बाहर रहकर संगठन को कौन सँभालेगा? नानाजी ने उनकी इच्छा का आदर करते हुए तुरन्त मन्त्रीपद ठुकरा दिया और जनता पार्टी का महासचिव बनना स्वीकार किया। चाहे अटलजी हों, या आडवाणीजी; अशोकजी सिंहल हों, या दत्तोपन्त ठेंगडीजी - हरेक शीर्ष नेता रज्जू भैया की बात का आदर करता था; क्योंकि उसके पीछे स्वार्थ, कुटिलता या गुटबन्दी की भावना नहीं होती थी। इस दृष्टि से देखें तो रज्जू भैया सचमुच संघ-परिवार के न केवल बोधि-वृक्ष अपितु सबको जोड़ने वाली कड़ी थे, नैतिक शक्ति और प्रभाव का स्रोत थे। उनके चले जाने से केवल संघ ही नहीं अपितु भारत के सार्वजनिक जीवन में एक युग का अन्त हो गया है। रज्जू भैया केवल हाड़-माँस का शरीर नहीं थे। वे स्वयं में ध्येयनिष्ठा, संकल्प व मूर्तिमन्त आदर्शवाद की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। इसलिए रज्जू भैया सभी के अन्त:करण में सदैव जीवित रहेंगे। देखा जाये तो रज्जू भैया आज मर कर भी अमर हैं।

अविचल राष्ट्रभक्ति ------

रज्जू भैय्या की अविचल भारतभक्ति का प्रमाण है उनकी अंतिम इच्छा | उन्होंने कहा था कि जहां मेरा शरीर शांत हो, वहीं मेरा अंतिम संस्कार किया जाए | वह भी मातृभू भारत का ही तो हिस्सा होगा | अकारण शव इधर उधर ले जाने की आवश्यकता नहीं है | उनकी इच्छानुसार वैसा ही हुआ | उनका देहावसान  14 जुलाई 2003 को पुणे में  कौशिक आश्रम में हुआ और वहीं के बैकुंठधाम में उनका अंतिम संस्कार किया गया |
रज्जू भैय्या के व्यक्तित्व के बारे में सोचते समय परम पूजनीय गुरूजी का कार्यकर्ता संबंधी विवेचन स्मरण में आता है | “कोयला और हीरा दोनों का मूल धातु ‘कार्बन’ है | कोयला जलता है, और शेष रहती है राख | जलते कोयले को सब दूर से देखते हैं | असहनीय उष्णता के कारण कोई पास नहीं जाता | जबकि हीरा जलता नहीं चमकता है | सब उसके पास दौड़े जाते हैं, उसको हथेली पर रखते हैं, निहारते हैं, अपनाना चाहते हैं | ध्येयवादिता की दृष्टि से कोयला हीरा समान हैं, किन्तु उपगम्यता एवं स्वीकार्यता की दृष्टि से कोयला कोयला है और हीरा हीरा है | कार्यकर्ता को हीरे जैसा होना चाहिए |” हाँ, रज्जू भैय्या सबके उपगम्य हीरा थे |

रज्जू भैया की चाहना थी ------


रज्जू भैया इस बात से बड़े दुखी थे कि क्रान्तिकारी 'बिस्मिल' के नाम पर इस देश में कोई भव्य स्मारक हमारे नेता लोग नहीं बना सके। वे तुर्की के राष्ट्रीय स्मारक जैसा स्मारक भारत की राजधानी दिल्ली में बना हुआ देखना चाहते थे। उन्होंने कहा था: "लच्छेदार भाषण देकर अपनी छवि को निखारने के लिये तालियाँ बटोर लेना अलग बात है, नेपथ्य में रहकर दूसरों के लिये कुछ करना अलग बात है।" वे चिन्तक थे, मनीषी थे, समाज-सुधारक थे, कुशल संगठक थे और कुल मिलाकर एक बहुत ही सहज और सर्वसुलभ महापुरुष थे। ऐसा व्यक्ति बड़ी दीर्घ अवधि में कोई एकाध ही पैदा होता है।मैं ऐसे महान देशभक्त की 15 वीं पुण्यतिथि के अवसर पर सादर श्रद्धा सुमन अर्पित करता हुआ सत सत नमन करता हूँ ।जय हिंद ।

लेखक -डॉ0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गाँव-लढोता ,सासनी ,जिला -हाथरस,उत्तरप्रदेश
मीडिया सलाहकार ,अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा
(अध्यक्ष,महाराजा दिग्विजय सिंह  जी एवं कार्यकारी अध्यक्ष ,श्री मोहिंदर सिंह जी तंवर )

Tuesday, 25 April 2017

1857 की क्रान्ति के महानायक की गौरवमयी जीवनगाथा महाकाव्य के महानायक जैसी ------

(26 अप्रैल बाबु वीर कुंवर सिंह की पुण्यतिथि पर समर्पित)

देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में एक ऐसा भी "सिंह"था ,जिसकी 80 साल की उम्र में भी दहाड़ से अंग्रेजों के छक्के छूट जाते थे ।ये नायक थे बिहार के बाबू कुंवर सिंह ।दुनिया के इतिहास में यह पहला उदाहरण है ,जब इतने व्रद्ध योद्धा ने इस तरह तलवार उठाकर फिरंगी सेना को युद्ध के लिए ललकारा ।
हुकूमत की बुनियाद ढहाये चला जा ।
जवानों को बागी बनाए चला जा ।।
बरस आग बन कर फिरंगी के सर पे।
तकब्बुर की दुनिया ढहाये चला जा ।।

80 वर्ष के" युवा सिंह" इसी लय और जज्वे से भरपूर अंग्रेंजी हुकूमत को तहस -नहस करते हुए एक ऐसी महागाथा छोड़ गये जिसे याद करके हर हिन्दुस्तानी का सिर श्रद्धा से झुक जाता है ।जगदीशपुर के कुंवर सिंह की जीवनगाथा महाकाव्य के महानायक जैसी है ।सत्तावनी क्रांति का सर्वाधिक योग्य सेनानायक ,युद्धकला का महान प्रणेता ,अदम्य साहसी ,1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बिहार स्थित "दानापुर छावनी "के सिपाहियों को अपने नेता के रूप में जिस नायक की प्राप्ति हुई उन्हीं का नाम था वीर कुंवर सिंह ।जैसा नाम बैसा ही किया उन्होंने काम ।

‘खूब लड़ी मर्दानी’ की तरह ही ‘कुंअर सिंह भी बडे वीर मर्दाने योद्धा थे । कविता को प्राचार्य मनोरंजन प्रसाद सिंह ने लिखा था और जब यह 1929 में रामवृक्ष बेनीपुरी के संपादन में निकलने वाली ‘युवक’ में छपी, तो ब्रिटिश सरकार ने इसे तत्काल प्रतिबंधित कर दिया। इस कविता की शुरुआत कुछ इस प्रकार थी ------

था बूढा पर वीर वाकुंडा कुंवर सिंह मर्दाना था।
मस्ती की थी छिड़ी रागिनी आजादी का गाना था।।
भारत के कोने कोने में होता यही तराना था।
उधर खड़ी थी लक्ष्मीबाई और पेशवा नाना था।।
इधर बिहारी-वीर बांकुड़ा खड़ा हुआ मस्ताना था।
अस्सी बरस की हड्डी में जागा जोश पुराना था ।
सब कहते हैं, कुंअर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था। ।

और अंतिम पद कुछ इस प्रकार ---

दुष्मन तट पर पहुंच गए, जब कुंअरसिंह करते थे पार।
गोली आकर लगी बांह में, दायां हाथ हुआ बेकार।
हुई अपावन बाहु जान, बस काट दिया लेकर तलवार।
ले  गंगे यह हाथ आज  तुझको  ही देता हूं उपहार। ।
वीर-भक्त की वही जान्हवी को मानो नजराना था ।
सब कहते हैं कुंबर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था। ।

जीवन परिचय-----
 सत्तावनी भारतीय विद्रोह के इस महानायक का जन्म एक कुलीन क्षत्रिय वंश में सन 1777में बिहार के शाहाबाद (अब भोजपुर) जिले के उज्जैनी क्षत्रिय (परमार) राज परिवार में राजा साहबजादा सिंह के यहां हुआ था ।इनकी माता का नाम रानी पंचरत्न देवी था ।ये परिवार राजा विक्रमादित्य और राजाभोज का वंश माना जाता है ।कुंवर सिंह के अपने पिता से विचार नहीं मिलते थे ।वे जितौरा के जंगलों में ही रहा करते थे ।वे वहीँ रह कर जंगली जानवरों का शिकारकिया करते थे और घुड़सवारी के शौक़ीन थे ।उनमें वीरता कूट -कूट करभरी थी ।वे किसी से डरते नहीं थे ।उन्हेंस्वतंत्र जीवन जीना पसंद था ।पिता की मृत्यु के बाद जब 1826 में कुंवर सिंह ने जगदीशपुर की गद्दी संभाली थी ,तब रियासत पर कर्ज का भारी बोझ था ।इसके वाबजूद भीउन्होंने अपने कुशल सूझ -बूझ से जगदीशपुर का विकास ओरविस्तार किया ।नए बाजार बनवाये ,गढ़ के पास मंदिर और तालाबों का निर्माण कराया ।

बंसुरिया बाबा से मिली थी देशभक्ति की  प्रेरणा-----

इसमे एक नया नाम की चर्चा आवश्यक है,जिससे कुअंर  सिंह पूरी तरह प्रभावित थे ।वह था ---बंसुरिया बाबा ।बंसुरिया बाबा अपने घर से रुष्ट होकर भागा हुआ एक स्वाभिमानी व्यक्ति था।उसने दावा के जंगलों में सिद्धि प्राप्त की थी ।बाद में एक दिन कुअंर सिंह के दरबार में आकर उसने सबको प्रेरित किया ----"अंग्रेजों से डटकर लड़ना हमारा कर्तव्य है ।"उसने आम लोगों से उसके लिए अपील भी की ।उन्हें अहसास दिलाया---"फिरंगी खतरनाक बनिये है और मानव विरोधी है ।वे साम्राज्यवादी है ।फुट डाल कर हमें लूट रहे है और हमारे भाइयों की हत्या कर रहे है ।"बंसुरिया बाबा की बांसुरी में देश-प्रेम की अद्भुत मिठास और देश -प्रेम का जज्बा था जिसका कुंवर सिंह पर बहुत गहरा प्रभाव देश -भक्ति का पड़ा ।आजादी की लड़ाई और कुअंर सिंह का साथ देनेमें उसने अभूतपूर्व मिसाल पेश की थी ।

बिहार में विद्रोहियों का किया कुशल नेतृत्व -----
   
  बाबू वीर कुंअर  सिंह (1777-1858)विदेशी शासन के खिलाफ लोगों द्वारा छेड़े गए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम  (1857-58)के नायकों में से एक थे ।1857के विद्रोह। के दौरान इस देदीप्यमान व्यक्ति ने ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों से डट कर मुकावला किया ।वीर कुंवर सिंह जी जगदीशपुर ,निकट आरा  ,जो वर्तमान में भोजपुर का एक भाग है ,के राजपूत घराने के जमींदार थे ।भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने ब्रिटिश सेना के खिलाफ सशस्त्र बलौ के एक दल का कुशल नेतृत्व किया ।80 वर्षकी व्रद्ध अवस्था के बाबजूद ,उनके नाम ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों में भय उत्पन्न कर देता था ।उन्होंने कई स्थानों परब्रटिश सेना को कड़ी चुनौती दी ।ऐसा लगता था कि कुंअर सिंह के कारण पूरा पश्चिमी बिहार विद्रोह की आग में जल उठेगा और ब्रिटिश नियंत्रण से बाहर हो जायेगा ।वह बिहार के अंतिम शेर थे ।उनकेनेत्रत्व में बिहार के राजपूतों ने अंग्रेजों के विरुद्ध जो सशस्त्र संघर्ष किया वह इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ है ।उनके संघर्ष की दास्तांन ,बिहार के कोने -कोने में गांव -गांव में चर्चित रही है ।किन्तु इसे दुर्भाग्यही कहा जायगा क़ि राजपूतों का अंग्रेजों के विरुद्ध यह संघर्ष देश के कोने -कोने में न जाना जा सका है  ,न पढ़ा जा सका है ।जन साधारण तो बहुत दूर की बात है ,आम राजपूतो को भी कुअंर सिंह पंवार के संघर्ष ,उनके त्याग ,वीरता ,साहस ,शौर्य और बलिदान की कोई विशेष जानकारी नही है ।
   अंग्रेजों के विरुद्ध बिहार में विद्रोह का प्रारम्भ 12जून 1857को हुआ ।25जुलाई ,1857 को दानापुर छावनी में जब अंग्रेज अधिकारियों ने सैनिकों को शस्त्र जमा करा देने का आदेश दिया तो वहां भी विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी ।26 जुलाई को विद्रोही पलटन मुक्ति सेना के रूप में आरा पहुँच गई ।मुक्ति सेना ने उसी क्षेत्र के जगदीशपुर निवासी 80 वर्षीय कुंअर सिंह पंवार को अपना सर्वोच्च नेता स्वीकार किया और प्रधान शासक के रूप में उनका अभिषेक किया ।कुंअर सिंह पंवार छापामार युद्ध के विशेषज्ञ माने गये ।
   उत्तरप्रदेश में भी दिखाए हाथ -------

     कुछ समय बाद कुअंर सिंह अपनी सेना की एक टुकड़ी के साथ युद्ध का मूल्यांकन करने तथा उसको नया आयाम देने के उदेश्य से 1858के प्रारम्भ में सासाराम ,रोहतास ,मिर्जापुर /रींवा ,बांदा ,कालपी ,कानपूर के प्रमुख विद्रोही नायकों से संपर्क करते हुए मार्च के प्रारम्भ में लखनऊ पहुंचे जहां उनका क्रांतिकारियों ने बड़ा सम्मान किया।अवध के राजा ने उन्हें शाही पोशाक से सम्मानित किया और आजमगढ़ जिले में आने वाले क्षेत्र की जागीर प्रदान की ।मार्च ,1858 में उन्होंने आजमगढ़ को अधिकृत कर लिया ।22मार्च 1858 को कुंअर सिंह जी और उनके साथियों ने अतरौलिया पर बहुत बड़ा आकस्मिक हमला किया और कर्नल मिलमैन के नेतृत्व वाले ब्रिटिश बलों को आजमगढ़ तक वापिस खदेड़ दिया कुंअर सिंह की सेना में 5 से 12 हजार तक सिपाही थे जो उनकी बेजोड़ संगठन श
क्ति के परिचायक थे ।कुंअर  सिंह जी द्वारा उस क्षेत्र के घेराव से ब्रिटिश अधिकारीयों को पुरे क्षेत्र की पराजय का भय और अधिक बढ़ गया ।गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग को स्थिति से निपटने के लिए अत्यावश्यक उपाय करने पड़े क्यों कि कुंअर सिंह के साहस व् शौर्य से वे परिचित थे ।ब्रिटिश सेना के नये -नए दस्ते आते रहे ,परन्तु कुंअर  सिंह ने उन्हें बार -बार क्रांतिकारियों के नियंत्रण में लड़ाई में रखा ।
 
फिर लौटे बिहार -----
     
      15अप्रैल 1858 को जनरल लुगार्ड से कुंअर सिंह जी की आजमगढ़ में ही सामना हो गया जिसमें वे अविजित रहे किन्तु अगले ही दिन उन्होंने आरा लौट जाने का कार्यक्रम बना लिया ।वे 18अप्रैल को बलिया के नगरा सिकंदरपुर होते हुए मनिथर आये और वहीँ पड़ाव डाल दिया ।20 अप्रैल को कैप्टेन डगलस ने उनकी सेना पर आक्रमण कर दिया किन्तु कुंअर सिंह जी अपनी सेना को बचाकर शिबपुर घाट पहुंचा देने में सफल होगये ।उन्होंने उसी दिन गंगा पार कर लिया ,किन्तु गंगा नदी पार करते समय अंग्रेजी सेना ने उनकी नाव पर भयंकर गोलिया चलायी जिससे एक गोली कुंवर सिंह जी की बाह में लगी ।
   
 हाथ काटकर गंगा को कर दिया  था समर्पित-----

ऐसा कहा जाता है कि गोली का शरीर में जहर फैलने की बजह से कुंअर सिंह जी ने अपना एक हाथ स्वयं तलवार से काट कर गंगा को भेंट कर दिया और गंगा पार कर हाथी पर सवार होकर 22 अप्रैल 1858 को अपने गृह नगर जगदीशपुर पहुँच गये । उस समय वे घायल थे ।

23 अप्रैल 1858 को जगदीशपुर में हुआ था ऐतिहासिक युद्ध-----


23 अप्रैल को अंग्रेज सेना तोपों से सुसज्जित होकर उनका पीछा करते हुए उनके गृह निवास जगदीशपुर तक पहुँच गई जहाँ एक ऐतिहासिक युद्ध हुआ ।कैप्टन ली गैंड के नेतृत्व में एक सैनिक टुकड़ी के साथ कुंअर सिंह की अंतिम और निर्णायक लड़ाई लड़ी गयी ,जिसमें कुंअर सिंह को विजयश्री मिली । पुरे क्षेत्र की जनता विजय के उल्लास में झूम उठी।अंग्रेज कमांडर ली ग्रैंड भी मारा गया  ।इस लड़ाई में उनके भाई अमर सिंह  ,हरे कृष्ण सिंह तथा अन्य की भूमिका बहुत सराहनीय थी ।इस युद्ध में अंग्रेजों को भारी हानि उठानी पड़ी ।
मगर व्रद्ध अवस्था और अनवरत युद्ध करते -करते थकने तथा घायल होने से कुंअर सिंह की अंतिम यात्रा का समय भी निकट आगया ।सो इस लंबे युद्ध का अंतिम विजय का उल्लास तीन दिनों के बाद ही समाप्त हो गया अर्थात 26अप्रैल 1858 को कुंअर सिंह का स्वर्गवास हो गया ।किन्तु जगदीशपुर और बिहार के विद्रोहियों के लिए संघर्ष की  एक लम्बी यात्रा  तय करना शेष था ।कुंअर सिंह की मृत्यु के बाद यह उत्तरदायित्व उनके भाई अमर सिंह और हरे कृष्ण सिंह के कन्धों पर आगया ।बिरगेडियर लुगार्ड ने 9 मई 1858 को जब आक्रमण किया तो पाया ---"वीर कुंअर सिंह के अनुयायी अपने दुधर्ष नेता की मृत्यु से विचलित नहीं हुये एवं उनके भाई अमर सिंह तथा हरि किशन सिंह के नेतृत्व में टिके रहे "। बाबु कुंअर सिंह  विजेता के रूप में इस भारत भूमि से हमेशा के लिए विदा होगये ।भयंकर लड़ाइयों के बावजूद उन्होंने राजपूतों की शानदार परम्परा को बरकरार रखा।
   उनकी शहादत के साथ ही सन् 1857 के उस अदभूत सैनानी का अंत हो गया जिसका इतिहासकारों ने एक महान सैनिक नेता के रूप में मूलयांकन किया है ।
 
गुरिल्ला युद्ध में थी महारत -----

ओजस्वी व्यक्तित्व तथा छापामार युद्ध में अपनी अदभुत प्रवीणता तथा अनेक सैनिक सफलताओं से विद्रोह के प्रमुख स्तम्भ बन गये थे ।अनेक इतिहासकारों ने स्वीकार किया कि उनमें वीर शिवाजी जैसा तेज था ।कुंअर सिंह की प्रशंसा करते हुऐ मेजर विंसेट आयर ने स्वयं कहा था ---"बाबू कुंअर सिंह युद्ध कला का जादूगर है ।हम लोग उसके सामने असहाय है ।"

जीवन में पहली बार ठाकुर की आँखों में आये  थे आँसू-----

जब कुंअर सिंह गोली लगने और हाथ काटने से बुरी तरह जख्मी हो गये थे ,तब वे जगदीशपुर चले गये थे ।उनके भाई अमर सिंह के नेतृत्व में छापामार युद्ध चल रहा था ।अमर सिंह अंग्रेजों के छक्के छुड़ा रहे थे ।अस्वस्थ कुंअर सिंह ने अपने एक खास सहयोगी से कहा ---" बुझावन सिंह ,अमर युद्ध में अकेले पड़ रहे है ।मैं उसे बहुत प्यार करता हूँ ।इस समय मैं उनके साथ जाने की स्थित में नहीं हूँ ।इस धर्म युद्ध में तुम मेरी जगह जाओ।"बुझावन सिंह बहुत वीरता से लड़ा ।जब युद्ध इन अंग्रेज अफसर लूथर की हत्या अमर सिंह के द्वारा की गई लेकिन अमर सिंह को दूसरे अंग्रेज के प्रहार से बचाने में बुझावन सिंह शहीद होगया ।अगर बुझावन सिंह मेरे सामने आकर अपनी छाती नहीं करता तो अंग्रेज का भाला मेरी छाती में लागजाता और मैं आपके सामने नही होता ये बात अमर सिंह नेअपने भाई कुंअर सिंह को बताई ।लड़ाई के इस अभियान को बुझावन सिंहने ही पूरा किया ।अतः ये मेरी जीत नही बुझावन सिंह की जीत है ।यह सुनकर ठाकुर की जीवनमें पहली बारआँखें आंसुओं से डब डबा आईं । कुंअर सिंह ने कहा ---"अमर !इसी अहाते में पश्चिमी छोर पर कहीं उसे दफनाओ ताकि शहीदों के निशान भविष्य में भी रहें ।मेरा इतिहास केवल कागज के कुछ पन्नों में सिमिटा रहेगा ,लेकिन बुझावन की यह कब्र सभी शहीदों की कब्र होगी ।"इस लिये बुझावन की लाश उनके किले केभीतर ही दफनाई गई ।कहते है वह कब्र आज भी मौजूद है ।उल्लेखनीय है कि बुझावन सिंह भी राजपूत था ,लेकिन औरंगजेब के ज़माने में उसके पूर्वजों को मुस्लमान बना दिया गया था ।----खैर, जो भी हो ,बुझावन सिंह सच्चा देशभक्त और स्वतंत्रता का अमर वीर सिपाही था ।

सन सत्तावन की क्रांति के समय 80 वर्ष की आयु में कुंअर सिंह ने जिस वीरता रणक्षेत्र की चतुराई ,युद्धकौशल अपार साहस का परिचय दिया ,वह दुर्लभ है ।किसी देश के नायक के लिए जिन गुणों को शास्त्र ने अनिवार्य बताया है ,वे सब तो उनमें मिलते हैं है ,उनके व्यक्तित्व में असाधारणता का एकमौलिक गुण यह भी जुड़ जाता है कि दुनिया के इतिहास में संभवतया वे ऐसे पहले योद्धा है ,जिसने उम्र के चौथेपन में न केवल तलवार उठाई ,बल्कि मजदूरों और किसानों को उत्पीड़क सरकार के खिलाफ संगठित भी किया ।
     कुंअर सिंह ने अंग्रेजों केविरुद्ध केवल निरंतर संघर्ष ही नहीं किया ,बल्कि उन्होंने देशभर के राजाओं ,जमींदारों ,विभिन्न जाति और धर्मों के बिखरे हुये लोगों को एक राष्ट्रसूत्र में पिरोने काभी काम किया ।यद्धपि वे एक जमींदार थे ,लेंकिन उन्होंने आम लोगों के लिए नहर ,बांध ,व्रक्षारोपन , विद्यालय और अस्पताल खोलने जैसे पुनीति कार्य भीकिये थे ।कुंअर सिंह को बिहार शासन प्रति वर्ष 23 अप्रैल को "विजयदिवस"मनाकर याद करता है ।इतिहास और वर्तमानके सन्दर्भ में हमारा मानना है कि जिस कुंअर सिंह लोकमानस में जीवंत नायक है ,उसी प्रकार उनके विशेष अवदानों के अनुकूल उन्हें "लोकनायक"की उपाधि से विभूषित किया जाना चाहिए ,जो इतिहास के वर्तमान ,भूत और भविष्य तीनों कालों के लिए बिल्कुल उपयुक्त प्रतीत होता है ।

वे इतने लोकप्रिय हुए कि भोजपुर जिले का बच्चा -बच्चा उनके बलिदान को  आज तक स्मरण करता है।मैं ऐसे महान स्वतंत्रता सैनानी को सत् -सत् नमन करता हूँऔर आशा करता हूँ कि हमारे समाज की नई पीढ़ी उनके आदर्शों से प्रेरणा लेकर इस आजादी को अक्षुण्ण बनाए रखने में हर संभव त्याग करे;क्यों कि जो समाज अपने इतिहास -पूर्वजों के त्याग ,बलिदान,सत्यपरायणता, शौर्य ,वीरता ,देशभक्ति ,मातृभूमि से प्रेम  एवंम अन्य अवदानों को भुला देता है ,वह अपने वर्तमान के प्रति कृतघ्न होता है तथा अपना भविष्य सुरक्षित नहीं रख सकता ।जय हिन्द ।जय राजपूताना ।

लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव -लढोता ,सासनी ,जिला -हाथरस ,उत्तरप्रदेश ।
मिडिया एडवाइजर नार्थ इंडिया
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा
(अध्यक्ष ,महाराजा दिग्विजय सिंह जी वांकानेर ,कार्यकारी अध्यक्ष,माननीय महेंद्र सिंह जी

Tuesday, 18 April 2017

देखो अपनी बदहाली का दर्द बयां करता हुआ  16वीं सदी के हिन्दुत्व रक्षक अमरपुरोधा हिंदुपति का स्मारक एवं समाधिस्थल---------

 महाराणा प्रताप के पितामह  हिन्दूपति महाराणा संग्राम सिंह जो लोगों  में "सांगा"के नाम से अधिक प्रसिद्ध है  भारतीय इतिहास के एक ऐसे आदर्श महापुरुष हो चुके है जिनका जीवन -चरित्र शौर्यपूर्ण गाथाओं तथा त्याग और बलिदान की अमर उपलब्धियों से अभिमण्डित है।उन्होंने मध्यकालीन राजनीति में सक्रिय भाग लेकर हिंदुत्व की मानमर्यादा का संरक्षण तथा भारतीय संस्कृति  के उच्चादर्शों का प्रतिष्ठान किया था जिसके कारण मेवाड़ का गौरव विश्बभर में समुन्नत हुआ।राणा सांगा अपने समय के श्रेष्ठ व् शिरमौर हिन्दू राजा थे।हिंदुस्तान के सभी राजा उनको सम्मान देते थे।मेवाड़ ने उनके ही शासनकाल में शक्ति और सम्रद्धि की चरमसीमा प्राप्त की। सांगा मेवाड़ की कीर्ति के कलश थे।वे पश्चिमी भारत के हिन्दू राजा और सरदारों के सर्वमान्य नेता थे।उन्हें हिंदुपति अर्थात हिंदुओं का स्वांमी कहते है।महाराणा सांगा वीर ,उदार 'कर्तज्ञ ,बुद्धिमान और न्याय परायण शासक थे।अपने शत्रु को कैद करके छोड़ देना और उसे पीछा राज्य दे देना सांगा जैसे ही उदार और वीर पुरुष का कार्य था।वह एक सच्चे क्षत्रिय थे,।उन्होंने अपनी वीरता निडरता और साहसी युद्ध -कौशल से मेवाड़ को एक सामाराज्य बना दिया था।राजपूताने के बहुधा सभी  तथा कई बाहरी राजा भी मेवाड़ के गौरव के कारण मित्रभाव से उनके झंडे तले लड़ने में अपना गौरव समझते थे।इस प्रकार राजपूत जाति का संगठन होने के कारण वे बाबर से लड़ने को एकत्र हुए।सांगा अंतिम हिन्दू राजा थे ,जिनके सेनापतित्व में सब राजपूत जातियां विदेशियों "तुर्कों "को भारत से निकालने के लिए सम्मलित हुई।यद्धपि इसके बाद और भी वीर राजा उत्पन्न हुए ,तथापि ऐसा कोई न हुआ ,जो सारे राजपूताने की सेना का सेनापति बना हो।राणा सांगा ने देश के सम्मान और आदर्शों की स्थापना हेतु जीवन भर प्रयास किया ।दिल्ली और मालवा के मुगल बादशाहों से 18 बार युद्ध कर विजय प्राप्त की थी। दिल्ली के इब्राहिम लोधी ने 2 बार महाराणा से युद्ध किया ,दोनों ही बार उसकी पराजय हुई।मांडू मालवा के बादशाह महमूद दुतीय को कैद करना महाराणा सांगा के अदभुत पराक्रम का ही परिणाम था।इनके शरीर में युद्ध के 80 घाव थेऔर शायद ही शरीर में कोई अंश ऐसा हो जिस पर युद्धों में लगे हुए घावों के चिन्ह न हों।उसी समय समय बाबर ने दिल्ली के इब्राहिम लोधी को मार कर दिल्ली विजय करली।कुछ समय बाद बाबर ने आगरा भी जीत लिया।बाबर यह अच्छी तरह से जानता था की हिन्दुस्तान में उसका सबसे शक्तिशाली शत्रु महाराणा सांग था।उनकी बढ़ती हुई शक्ति व् प्रतिष्ठा को बाबर जानता था।वह यह भी जनता था कि राणा सांगा  से युद्ध करने के दो ही परिणाम हो सकते है --या तो वह भारत का सम्राट हो जायेगा  या उसकी सब आशाओं पर पानी फिर जायेगा और उसे बापस काबुल जाना पड़ेगा ।
      वि.सं. १५८४ चैत्र सुदि ११ (ई.स. १५२७ मार्च) को दोनों सेनाएँ आमनेसामने हुई। प्रारम्भिक लड़ाइयों में बाबर की पराजय हुई। मुस्लिम सेना में घोर निराशा फैल गई। बाबर ने अपनी सेना में जोश लाने के लिए एक जोशीला भाषण दिया। अपनी सेना की रणनीति बनाई। बाबर के पास बड़ी-बड़ी तोपें थी, उनकी मोचबिन्दी की। वि.सं. १५८४ चैत्र सुदि १४ को (ई.स. १५२७ मार्च १७) दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। बाबर ने तोपखाने का प्रयोग किया। इससे पहले भारत में तोपों का प्रयोग नहीं होता था। तोपों से बहुत से राजपूत मारे गए, लेकिन उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आई। मुगल सेना का पलड़ा हल्का था, वे हार रहे थे। मुगल सेना भी पूरे जोश से युद्ध कर रही थी। इतने में एक तीर राणा साँगा के सिर में लगा, जिससे वे मुर्छित हो गए और कुछ सरदार उन्हें पालकी में बैठा कर युद्ध क्षेत्र के बाहर सुरक्षित जगह पर ले गए। राणा के हटते ही झाला अञ्जा ने राजचिह्न धारण करके राणा साँगा के हाथी पर सवार होकर युद्ध का संचालन किया । झाला अज्रा की अध्यक्षता में सेना लड़ने लगी। लेकिन राणा साँगा की अनुपस्थिति में सेना में निराशा छा गई। राजपूत पक्ष अब भी मजबूत था। तोपखाने ने भयंकर तबाही मचाई, इसी समय बाबर के सुरक्षित दस्ते ने पूरे जोश के साथ में पराजय हुई। राणा साँगा को बसवा नामक स्थान पर लाया गया।  इसी बीच किसी सरदार ने उन्हें विष दे दिया जिससे राणा साँगा का ४६ वर्ष की आयु में स्वर्गवासहो गया। वीर विनोद में बसवा स्थान बताया गया है। बसवा में एक प्राचीन चबूतरा बना हुआ है। यहाँ के लोगों की मान्यता है कि यह चबूतरा राणा साँगा का स्मारक है। मेवाड़ वाले भी इसे ही राणा साँगा का स्मारक मानते हैं। अमर काव्य राणा साँगा की मृत्यु के लगभग सौ वर्ष बाद की रचना है। अत: यही सम्भव है कि राणा साँगा का दाह संस्कार बसवा में ही हुआ होगा। बसवा दौसा जिले में बांदीकुई की और जाने वाली रेलवे लाइन के आस पास स्थित है ।रेलवे क्रासिंग के पास ही बसवा में राणा सांगा की समाधि बनी है ।राणा सांगा का चबूतरा यानी समाधि स्थल ।यहीं पर  यह हिन्दुस्तान का गौरव वीर योद्धा प्रकृति के पंच तत्वों में विलीन हुआ था ऐसी मान्यता है वहां के क्षेत्रीय वाशिन्दों की ।
      राणा सांगा के विषय में जब मैं मंथन और चिंतन करता हूँ तो मन में एक ही ख्याल बार बार आता है कि जिनके जिस्म में 80 घाव ,एक हाथ और एक आँख का आभाव ।अंदर से कितना मजबूत रहे होंगे सांगा ।यह अपनी मातृभूमि के प्रति उनकाअगाध प्रेम और सच्चा समर्पण ही होगा जो उनकी रगों में साहस और वीरता का संचार करता होगा ।उनकी वीरता को नमन करता हूँ जिनके नेतृत्व में जिस राजपुताना संघ का निर्माण हुआ उसके छिन्न -भिन्न हो जाने के उपरांत भी मेवाड़ के प्रति आस्था में कमी नहीं आई ।सांगा ने राजपूताने में ही केवल राजनैतिक -एक्य की स्थापना नहीं की अपितु विभिन्न भारतीय शक्तियों को एक सूत्र में बांध कर बाह्य आक्रमणकारी मुगलों का सामना करने की अतिआवश्यक प्रेरणा दी ।यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं है कि राणा सांगा ने अपने प्रभाव से देश में एक नयी आशा और विश्वास को जन्म दिया । लेकिन बसवा स्थित उनकी समाधि स्थल और स्मारक की बदहाली को देख कर मन व्यथित भी हुआ ।एक ओर मुगलों ने आगरा में अपने घोड़ों तक की इतनी भव्य समाधि बना दी दूसरी ओर आजादी के बाद भी राणा सांगा की ऐसी बेकद्री से अनदेखी ------क्यों?जब उस समाधि स्थल को देखा तो लगा मानो कोई वीरान जगह जहां सूखा ही सूखा ।समाधि के चबूतरे की दुर्दशा जिसको शब्दों में भी वर्णित नहीं किया जा सकता जिसके ऊपर सुखी घास  और कटीली झाड़ियां उगी हुई तथा उसकी चुनी हुई दीवार भी वीरान हालात में ।समाधि स्थल के चारों ओर स्थानीय लोगों के अनुसार राज्य सरकार ने लगभग 6 बीघा जमीन छोड़ रखी है उस पर भी कुछ स्थानीय लोगों ने अतिक्रमण कर रखा है ।कहने का आशय यह है कि न उसका कोई संरक्षण और नहीं कोई संरक्षक।इस देश मे बलिदान ,त्याग ,वीरता ,शौर्यता ,आन-बान -शान ,देशभक्ति और स्वाभिमान का यही तो दुर्भाग्य है ।शहीदों की शहादत का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि स्वतंत्रता के अमर पुरोधाओं के समाधि स्थलों और स्मारकों की दुर्गति ,जिससे उस क्षेत्र की वीरता ,देशभक्ति और उस क्षेत्र के वीरों द्वारा राष्ट्र के लिए किये गये बलिदान और देश के लिए उनके द्वारा किये गये सहादत के कार्यों की जानकारी देश की जनता को होगी इसकी तो कल्पना करना भी बेमानी होगी ।
      आज देश के अंतर्गत न जाने कितने सामाजिक ,हिंदुत्व की दुहाई देने वाले संगठन है जो हर प्रान्त में विद्यमान है किसी भी संगठन को यह बदहाल  जीर्ण -शीर्ण स्थित में पड़ा हुआ राष्ट्र की धरोहर  समाधि स्थल नहीं दिखाई दिया ।आज कल तो स्वच्छ भारत का भी अभियान बहुत तेजी से चल रहा है जिसमें बड़े -बड़े राजनेता भी झाड़ू लगाने का ढोंग दिखाते नजर आये परन्तु किसी स्थानी स्वयं सेवी या राजनेता को इस स्थल की बदहाल हालात दिखाई नही दी ।हो सकता है न जाने देश में ऐसे कितने स्वतंत्रता के पुरोधाओं के समाधि स्थल उपेक्षित होगे जो अपने अच्छे दिनों के आनेका  बेसब्री से इंतजार कर रहे होंगे ।
     आज देश के प्रत्येक प्रान्त में राजपूत /क्षत्रिय संगठन काफी सक्रिय नजर आरहे है ।कुछ काम भी सकारात्मक कर रहे है ।लेकिन कुछ मात्र कागजी और फोटो डालने तक ही सीमित है ।कुछ भाइयों के सुझाव देखता हूँ कहते है कि सभी संगठन एक होकर एक ही संगठन बनायें ।ये राजपूतों में शायद ही संभव हो।आजकल हम अपने परिवार के लोगों को जब संगठित नहीं रख सकते तो देश के इतने बड़े समाज को एक बैनर तले एक व्यक्तित्व के नेतृत्व में संगठित रखना सम्भव कम लगता है बैसे आजकल असम्भव कुछ नहीं ।खैर मैं तो अपनी बात यहकहना चाहता हूँ कि हमारे स्थानीय राजपूत संगठनों को इस बदहाल स्थिति में पड़े हुये बसवा नगर में राणा सांगा के स्मारक तथा समाधि स्थल का संरक्षण एवं विकास खुद  संगठित होकर करना होगा तभी हम अपने पूर्वजों के इस गौरव इतिहास को संजोके रख पाएंगे ।राणा सांगा का जन्म 12अप्रैल 1482 को हुआ था ।शायद ही मेवाड़ को छोड़ कर उनको विगत इसी 12अप्रैल को किसी ने श्रद्धा सुमन अर्पित किये हों।जब मेरे किसी मित्र ने उनकी समाधि स्थल की खस्ता हालात की वीडियो भेजी  जिसमे कुछ स्थानीय राजपूत समाधि पर 12 अप्रैल को श्रद्धांजलि देने आये होंगे मैंने भी उनके दिल के दर्द को महसूस किया वे बहुत ही शासन की अनदेखी से व्यथित थे ।मैं भी उसकी बदहाल स्थिति को देख कर दंग रहगया और मन में भारी बेदना भी हुई ।
     हो सकता है कि आपको लगे कि मेरी लेखनी कुछ अतिश्योक्ति कर रही है ,किन्तु सत्य को लिखने के लिए मैं मजबूर हूँ ।कम से कम अपने क्षत्रिय समाज को बताना तो बहुत जरूरी भी है ।यदि नहीं लिखूंगा तो अपमान होगा एक साहसी हिंदुत्व के रक्षक अमर पुरोधा सच्चे राजपूत के बलिदान ,त्याग ,देशभक्ति ,वीरता और शौर्यता का ।इस लिए मैंने ये सब लिखने का निर्णय किया  ।जो सत्य है वह सत्य ही रहेगा ।
     इस देश की जनता ने ,सरकारों ने ,कर्णधारों ने तथा राजनेताओं ने चाहे राजपूतों के बलिदान की उपेक्षा की हो ,राजपूतों की उपेक्षा की हो ,उनके कार्य और कर्तव्यों को महत्व नहीं दिया गया हो,राजपूत ने कभी अपना फर्ज पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।बड़ी से बड़ी कुर्वानी और बलिदान देकर अपना कर्तव्य पूरा किया ।अपनी जिम्मेदारी को वहन किया ।क्षत्रियों के फर्ज पर ,उनके कर्तव्य पर ,उनकी देशभक्ति पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता ।
     व्यक्तिगत स्वार्थों और राजनैतिक स्वार्थों की खातिर कभी बलिदानों और शहादतों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए ।किन्तु इसे देख कर ऐसा लगता है कि आज ऐसा हो रहा है जो दुर्भाग्यपूर्ण है ।
हमें  और हमारे सभी सामाजिक संगठनों को बिना मतभेद के अपने राजपूत गौरव के अमर पुरोधाओं की जयंती स्वयं मनानी होंगी । उनके स्मारकों और समाधि स्थलों की स्वयं सुरक्षा और विकास करना होगा किसी का मोहताज नहीं बनना ।बैसे कड़वा सच तो यह भी है कि खुद क्षत्रिय /राजपूत संगठन चलाने वाले पदाधिकारियों के घरों में भी राणा सांगा, महाराणा प्रताप ,पृथ्वीराज चौहान ,अमर सिंह राठौड़  ,वीर शिवाजी , कुंवर वीर सिंह ,रानी लक्ष्मीबाई ,रानी दुर्गावती जैसे वीर और वीरांगनाओं की तस्वीर नहीं मिलेगी।कैसे आप कल्पना करेंगे कि हमारी भावी पीढ़ी में कैसे राजपूती संस्कार आएंगे ।अपने गौरवशाली इतिहास को बनाये रखने के लिए हम सब को संगठित होकर समाज के विकास में सहयोग करना होगा तभी हम अपनी इन गौरवशाली धरोहरों का अपनी युवा पीढ़ी और आगे आने वाली पीढ़ी के सामने गुणगान कर पाएंगे ।यही है वास्तविक दिल की वेदना का दर्द ।लेखक ने कुछ लिखने में गलत लिख दिया हो तो उसके लिए क्षमाप्रार्थी भी हूँ ।जय हिंद ।जय राजपूताना ।।

लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव-लढोता ,सासनी ,जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश 
मिडिया सलाहकार नार्थ इंडिया
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा
(अध्यक्ष ,महाराजा दिग्विजय सिंह जी ,वांकानेर,कार्यकारी अध्यक्ष ,माननीय महेंद्र सिंह जी तंवर )


Friday, 14 April 2017


मुग़ल एवं अंग्रेज कालीन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के  रक्त -रंजित इतिहास में क्षत्राणियों का  भी था अतुलनीय बलिदान ----

भारतीय नारी के समस्त आदर्श यदि एक ही जगह कोई खोजना चाहे तो वे ,एक आदर्श  क्षत्रिय नारी में देखे जासकते है ।क्षत्रिय जाति का इस देश के इतिहास और संस्कृति के निर्माण में जोअनुठा योगदान रहा है उसे कोई नकार नहीं सकता ।धर्म और स्वतंत्रता के लिए हंसते -हंसते अपने प्राणों की बलि देना राजपूतों का प्रमुख कर्तव्य रहा है ।अपनी आन -बान समझी जाती रही है क्षत्रियों की अदभुत शौर्य -गाथाओं ,वीरत्व प्रदर्शन और गौरव गरिमा का मूल आधार क्षत्राणियां रही है ।राजपूत रमणियों को ही क्षत्रिय धर्म (रजपूती)की समुचित पालना का श्रेय जाता है ।क्षत्रियों का शौर्य ,उनकी युद्धप्रियता ,स्वामिभक्ति ,धरती प्रेम ,वचन पालन ,राष्ट्रप्रेम इत्यादि भारत तो क्या पुरे विश्व में अतुलनीय है और इसे अतुलनीय स्वरूप प्रदान करने में जीवन्त शक्ति के रूप में क्षत्राणियां ही सतत प्रेरणा दायिनी रही है ।
 
       हमारे इतिहास में क्षत्रिय वीरों की शौर्य -गाथाओं का वर्णन तो बहुत मिलता है किन्तु उन माताओं का जिन्होंने अपनी आन -बान और शान की रक्षार्थ अपने वीर पुत्रों को दूध की लाज रखने रणांगण में भेजा ,उन अर्धांगणियों को जिन्होंने देश की रक्षा व् धर्म पालन हेतु अपने चूडे की लाज बचाने रणबांकुरे पतियों को युद्ध भूमि में भेजा और वे वीरांगनाएं जो सतीत्व रक्षा के लिए जौहर की आग में जल कर भस्म हो गयी उन शक्ति रूपा सबलाओं के त्याग और शौर्य की गाथाओं का समुचित विवेचन नहीं हुआ जिन्होंने शत्रुदल का सफाया  करने स्वयं हाथ  में खड्ग धारण कर रणचंडी का रूप धारण किया ।आवश्यकता पड़ने पर मोम की तरह नरम दिखने वाली राजपूत नारी सख्त चट्टान की भांति प्रबल से प्रबल झंझावात के सम्मुख समर्थ खड़ी रही ।परन्तु दुर्भाग्यवश पुरुष के वीरत्व गर्जन के आगे नारी की अन्तः प्रवाहिनी शक्ति धारा प्रायः आँखों से ओझल ही रही ।
  क्षत्राणियों की वीरता ,साहस ,त्याग ,दृढ संकल्प ,कष्ट ,सहिष्णुता ,धर्म और पति -परायणता ,शरणागत वत्सलता स्तुत्य रही है ।अपने शील व् स्वाभिमान की रक्षा के लिए वीर माता ,वीर पत्नी और पुत्री के रूप में उसकी जो महत्वपूर्ण भूमिका रही है वह अतुलनीय व् स्मरणीय है ।

पौराणिक ,रामायणकालीन व् महाभारतकालीन क्षत्राणियों के आदर्श तत्कालीन युग के अनुरूप निर्धारित हुए ।मध्यकाल जब आया तो उस काल की मांग के अनुरूप कुछ बदलाब आया ।यो तो हर युगमें क्षत्राणियों में थोडा बहुत बदलाब आता रहा है पर मूलभूत शाश्वत संस्कारों में विशेष अंतर नहीं आया और प्राचीन मान्य आदर्शों से क्षत्राणियां सदा संस्कारित होती रही ।संस्कारित नारी सबल राष्ट्र की सबसे बड़ी पहिचान हुआ करती है ।
भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में मुगलों के शासनकाल व् अंग्रेजों के शासनकाल में भी अगणित क्षत्राणियों  को कई तरह के आत्म बलिदान करने पड़े ।क्षत्राणियां जैसी रूपवती ,शीलवती  और तेजस्वनी होती थीं ,वैसेही अवसर पड़ने पर वे अपने शासन की क्षमता भी दिखाती थी  जिनमें प्रमुख थी रानी दुर्गावती ,रानी कर्णावती ,रानी लक्ष्मीबाई ।ऐसे कई मौके आये ,जब राज्य की वागडोर रानियों को संभालनी पडी और हंसते -हंसते अपनी मातृभूमि की रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति दे डाली ।न्योछावर कर दिया अपने आप को देश व् धर्म की आन ,वान और शान की खातिर ।
 रामायण एवं महाभारत काल में भी देश ,धर्म संस्कृति एवं अस्मिता की रक्षार्थ अनेकों वीरांगनाओं द्वारा आत्मोत्सर्जन किया गया जिनमेंकौशल्या जी ,सुमित्रा जी ,  सीता जी , कैकई जी , उर्मिला , देवकी जी , रोहिणी जी , रुक्मिणी , गान्धारी जी , कुन्ती , माद्री , द्रोपदी ,सुभद्रा ,उत्तरा ,सावित्री ,दमयन्ती प्रमुख रही।
 विदेशी आक्रांताओं (यवनोंऔर मुगलों)के समय में भी अनेक क्षत्राणियों ने जिनमें महारानी रत्नकुमारी ,  रणथम्भोर के राजा हम्मीरदेव चौहान की महारानी , महारानी पद्ध्यमिनी , महारानी कर्णवती ,महारानी मनीमाता ,फूलकंवर,जसवंत दे हाडी ,मीरां ,चारुमती , हाडी रानी ,पन्ना धाय ,ताराबाई ,जीजाबाई ,अहल्याबाई ,इंदुमती ,कर्मदेवी ,कर्मवती ,कमलावती प्रमुख थी
 

राजस्थान के इतिहास की वह घटना है जब एक रानी ने विवाह के सिर्फ 7 दिन वाद ही अपना शीश अपने हाथों से काट कर युद्ध के लिए तैयार अपने पति को भिजवा दी ताकि उनका पति अपनी नई नवेली पत्नी की खूबसूरती में उलझकर अपना कर्तव्य भूल न जाय ।कहते है एक पत्नी द्वारा अपने पति को उसका फर्ज याद दिलाने के लिए किया गया इतिहास में सबसे बड़ा वलिदान है ।यह कोई और नहीं ,बल्कि बूंदी के हाडा शासक की बेटी थी और उदयपुर (मेवाड़)के सलूम्बर ठिकाने के रावत चूडावत की रानी थी इतिहास में हाड़ी रानी के नाम से प्रसिद्ध है।
चूडावत माँगी सैनानी ।
    सिर काट भेज दियो क्षत्राणी।।
 
        सन 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी क्षत्राणियों ने भी अपनी देश रक्षा में आन ,वान और शान के साथ वीरता ,साहस ,युद्ध कौसल ,देशभक्ति , का अनुकरणीय योगदान दिया था।यहां तक कि इस मातृशक्ति ने भी इस ग़दर के समय रणचंडी साक्षात माँ दुर्गा का रूप धारण करके अंग्रेजों से भयंकर युद्ध कियाऔर मातृभूमि की रक्षार्थ अपने प्राणों की भी आहुति देकर अमर गाथा में अपना नाम हमेशा के लिए अमर करगयी लेकिन जीते जी गोरों की दासता को स्वीकार नहीं किया जिनमे मुख्य रूप से झांसी की रानी लक्ष्मी बाई , तुलसीपुर की रानी ईश्वरी कुमारी ,अमोरहा की रानी जगतकंवर ,रानी राजेंद्र कँवर महोबा और बुंदेलखंड की लीडर ,रानी द्रोपदी बाई धार ,रानी तपस्वनी बाई ,महारानी जिन्दा , रानी जैतपुर (बुंदेलखंड), चौहान रानी अनूपनगर , रानी अवंतीबाई ,रानी जिंदल कौर पंजाब ,रानी किंटूर कर्नाटक चेन्नम्मा ,सुभद्राकुमारी चौहान प्रमुख थी ।
 
  अंग्रेजों से रानी लक्ष्मीबाई के द्वारा देश के मान सम्मान के लिए किये गये युद्ध के विषय में सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखित ये कविता दिल को दहलाने वाली है ।

सिंहासन हिल उठे ,राजवंशों ने भृकुटी तानी थी ,
बूढ़े भारत में भी आई ,फिर से नई जवानी थी ।
गुमी हुई आजादी की कीमत ,सबने पहचानी थी ,
दूर फिरंगी को करने की ,सबने मन में ठानी थी ।
चमक उठी सन् सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी ,
बुंदेले हरबोलों के मुख ,हमने सूनी कहानी थी ।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो ,झांसी वाली रानी थी ।।

    इस कविता ने जिसे अमर कर दिया ,उस कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने केवल वीरोचित गीत ही नहीं लिखे ,स्वतंत्रता -संग्राम में स्वयं भी अपने पति लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ भाग लिया ।पति -पत्नी दोनों के देश -कार्य में व्यस्त रहने तथा समय -समय पर जेल जाने के कारण ,उन्होंने अपार आर्थिक -पारवारिक कष्ट भी सहे ।सुभद्रा कुमारी चौहान एक सच्ची देशभक्त ,स्वतंत्रताप्रेमी ,सह्रदय लेखिका और ओजस्वी कवयित्री थी ।
शक्ति और भक्ति की गंगा -यमुना की पावन धारा में क्षत्राणियों ने जो अवगाहन किया वह स्तुत्य ,प्रशंसनीय और अनुकरणीय है ।

राष्ट कवि मैथिलीशरण गुप्तजी ने राजपूताने के चित्तौड़ ,रणथम्भोर ,जैसलमेर ,बयाना तथा अन्य स्थानों पर विदेशी आक्रांताओं के काल में वीरांगना क्षत्राणियों के द्वारा किये गये बलिदान तथा जौहर का इस प्रकार वर्णन किया।गुप्तजी के  अनुसार----

विख्यात है जौहर जगत में,आज भी इस देश में ।
हम मग्न है उन वीरांगनाओं देवीयों के शोक में ।।
क्षत्रिय स्त्रियां निज धर्म पर जलती हुई डरती नहीं ।
ऐसी सर्व सतित्व शिक्षा ,विश्व में मिलती नही ।।
   
 मैं इन सभी क्षत्राणी वीरांगनाओं के बलिदान को सत सत नमन करता हूँ ।जय हिन्द।जय मातृशक्ति ।जय राजपूताना ।

लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव -लढोता ,सासनी ,जिला हाथरस ,उत्तरप्रदेश ।
मीडिया सलाहकार नार्थ इंडिया
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा
(राष्ट्रीय अध्यक्ष  माननीय महाराजा दिग्विजय सिंह जी ,वांकानेर)



 

Wednesday, 12 April 2017

उन्नीस वीं सदी में पूर्वांचल का महान व्यक्तित्व जिसने देश के राज परिवारों को क्षत्रियों के शैक्षणिक विकास एवं सामाजिक उत्थान में योगदान देने के लिए किया था प्रेरित -------कर्मयोगी बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी 
 (The great personality of Purvanchal in 19th Century who inspired some Royal Families of India to  give their Contribution  in the field of Educational Development and Social Upliftment of Kshatriyas .
  
जन्म एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि ----

बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह का जन्म चंदौली जनपद (पूर्व में वाराणसी की एक तहसील )में महाइच परगना के कादिराबाद गांव के गहडवाल क्षत्रिय  जमींदार परिवार में ठाकुर रघुराई सिंह जी के यहां हुआ था जो कि एक प्रगतिशील विचारधारा के जमींदार थे ।

शिक्षा -----

बाबू साहिब की प्रारंभिक शिक्षा गहमर (गाजीपुर)में हुई।वहां से मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की ।सन 1876 में सेंट्रल म्योर कालेज इलाहाबाद से स्नातक की उपाधि प्राप्त की ।इसके साथ ही बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह को देश स्तर पर क्षत्रिय वंश में प्रथम स्नातक होने के साथ वाराणसी जनपद का प्रथम स्नातक बनने का महान गौरव प्राप्त हुआ ।अपने प्रथम स्नातक युवक को देखने के लिए जन समुदाय वाराणसी में उमड़ पड़ा ।प्रतिदिन लोगों की बढ़ती भीड़ के कारण तत्कालीन काशी नरेश महाराजा ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह जी ने बाबू साहिब को काशी आमंत्रित कर राजकीय सम्मान प्रदान किया और अपने साथ हाथी पर बैठा कर काशी में घुमाया ।शाही हाथी काशी की सड़कों पर घूम रहा था और जनता गगनभेदी नारों से अपने जनपद के स्नातक युवक का फूलों से स्वागत कर रही थी ।किसी के लिए ऐसा ऐतिहासिक स्वागत गौरव की बात थी ।इस स्वागत ने बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी को भावुक बना दिया और वे पूर्वांचल में व्याप्त अशिक्षा को दूर कर नवयुवकों को अपने जैसा ही शिक्षित बनाने के लिए एक कालेज की स्थापना का स्वप्न देखने लगे ।

   क्षत्रियों के शैक्षणिक विकास एवं  सामाजिक उत्थान के लिए उन्मुख ------

कुछ ही समय बाद आप कलकत्ता से कानून की डिग्री लेंकर वापस आये तो पिता जी ने उनको सरकारी अथवा वेतन पर नौकरी न करने की सौगंध दे डाली ।यहीं से बाबू साहिब अपने क्षत्रिय समाज सेवा की ओर उन्मुख हुये ।बाबू साहिब अपने छात्र जीवन से ही पूर्वांचल के क्षत्रियों में व्याप्त अशिक्षा से चिंतित रहते थे ।इस लिए उन्होंने शिक्षा  के प्रसार द्वारा सामाजिक सेवा और क्षत्रिय स्वाभिमान के उत्थान को अपना प्रमुख कार्यक्षेत्र चुना ।

देश के कुछ राजपरिवारों से क्षत्रियों के शैक्षिणक विकास एवं सामाजिक उत्थान के लिए किया प्रेरित ----

बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी ने विभिन्न प्रमुख रियासतों का व्यापक भृमण किया और राजा -महाराजाओं को शिक्षा प्रसार के लिए प्रेरित करते रहे ।अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आपने विभिन्न रियासतों मुख्यतः ग्वालियर ,अवागढ़ ,कुरीसुडौली ,भिनगा ,विजयपुर ,मांडा ,तिलोई ,और मझौली आदि रियासतों के सलाहकार के रूप में कार्य किया
और कई शिक्षण संस्थाओं की स्थापना कराई ।राजाओं द्वारा इस दिशा में पूर्ण सहयोग न मिलने के कारण बहुत निराश हुये फिर भी समाज उत्थान में लगे रहे । 

The Man with a Mission-----

 अपने मिशन के प्रति समिर्पित बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी ने क्षत्रिय सामाजिक संगठन का सहारा लिया क्षात्र -धर्म के संरक्षण ,सुरक्षा और अपने स्वप्नों की शिक्षा संस्था के स्थापनार्थ संसाधन के एकत्रीकरण हेतु एक मंच प्राप्त करने की दृष्टि से उन्होंने ठा0 छेदा सिंह जी और बाबू सांवल सिंह जी वनारस के सहयोग से मृतावस्था में पडी क्षत्रिय हितकारिणी सभा को पुर्नजीवित किया ।

क्षत्रिय महासभा के गठन में योगदान ----

 बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी के इस पुण्य कार्य में कुछ महानुभावों ने ,जिनमें पूर्वी क्षेत्र से राजा खड्ग बहादुर मल्ल मझौली ,  राजर्षि राजा उदयप्रताप सिंह जी बिसेन  भिनगाऔर ठा0 रामदीन सिंह जी बांकीपुर तथा पश्चिमी क्षेत्र से राजा बलबंत सिंह जी अवागढ़ ,ठा0 उमराव सिंह जी और उनके छोटे भाई कुंवर नौनिहाल सिंह जी कोटला-जाटउ ने तन ,मन और धन से सहयोग प्रदान किया ।आप लोगों ने निश्चय किया कि देश के समस्त क्षत्रियों का प्रतिनिधित्व करने वाली एक सभा संगठित की जाय ।19 अक्टूबर 1897 को क्षत्रिय महासभा का गठन किया गया जिसमें राजा बलबंत सिंह जी अवागढ़ को संस्थापक एवं प्रथम अध्यक्ष बनाया गया ।19-20 जनवरी 1898 को बनारस केबाबू सांवल सिंह जी की सभापतित्व में क्षत्रिय महासभा का प्रथम अधिवेशन आगरा में ठाकुर उमराव सिंह और उनकेछोटे भाई की कोठी "बाघ फरजाना "जो बाद में राजपूत बोर्डिंग हाउस के नाम से जानी गयी उसमे सम्पन्न हुई ।इस अधिवेशन में पूरब -पश्चिम से 300 से अधिक प्रतिष्ठित क्षत्रियों ने भाग लिया जिसमे देशकेकोने -कोने में क्षत्रिय सभाओं की स्थापना तथा क्षत्रियों में शिक्षा काप्रसार करने का प्रस्ताव स्वीकृत हुये ।


बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह के मिलन से  राजर्षि में उत्पन्न हुई थी क्षत्रियों के उत्थान की बृहद चेतना ------

राजर्षि को क्षत्रियों के सामाजिक एवं शैक्षणिक उत्थान के लिए प्रोत्साहित करने में वनारस के बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह के योगदान को भी नजरन्दाज नही किया जा सकता है ।उन्ही के निरंतर आग्रह और प्रयास से भिंगा नरेश मार्च 19o3 के क्षत्रिय महासभा के 7 वें अधिवेशन में अजमेर पधारे ।ये अधिवेशन बीकानेर नरेश महाराजा बहादुर सर गंगा सिंह जी के सभापतित्व में अजमेर में हुआ था ।राजर्षि अजमेर में महासभा के शिक्षा सम्बन्धी उद्देश्यों तथा बाबू साहिब के शिक्षा सम्बन्धी योजनाओं से अत्यधिक प्रभावित हुये तथा उन्होंने हर सम्भव सहयोग का आस्वासन दिया ।तभी राजर्षि ने अपने व्यय से काशी में महासभा का अधिवेशन कराने का निश्चय भी किया।दिसम्बर 1905 में क्षत्रिय महासभा का 9वां अधिवेशन काशी में कौशल किशोर मल्ल ,मझौली नरेश के सभापतित्व तथा बाबू प्रसिद्ध नारायण के कुशल प्रबंधन से बड़ी शान से सम्पन्न हुआ ।इसी अधिवेसन से राजर्षि और बाबू साहब की निकटता घनिष्ठता में बदली और भिंगा नरेश राजर्षि उनको समाज सेवा के क्षेत्र में अपना सलाहकार  मानने लगे । बाबू प्रसिद्ध नारायण जी को ही श्रेय जाता है कि कुरीसुडौली के नरेश माननीय सर राजा रामपाल सिंह जी भिनगा नरेश उदय प्रताप सिंह जी बिसेन के साथ मिल कर समाज सेवा की ओर उन्मुख हुये ।इन दो क्षत्रिय महान नेताओं का मिलान समाज के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी ।बाबू साहिब ने क्षत्रिय महासभा की स्थापना तथा विकास में केंद्रीय भूमिका का निर्वाह किया परन्तु कभी कोई पद स्वीकार नहीं किया ।वे संस्था के पदाधिकारी न बन कर बाहर से अधिक कार्य करते रहे ।उन्होंने अवध और आगरा के रईसों में क्षत्रिय महासभा का व्यापक प्रचार और प्रसार किया ।मध्यप्रदेश और बिहार में भी क्षत्रिय सभाएं उनके प्रयासों से सक्रीय हुई ।क्षत्रिय महासभा का 11वां अधिवेशन 29,30 और 31 दिसंबर 1907 को लखनऊ में हुआ ।उसके सभापति राजा प्रताप बहादुर सिंह जी ,प्रतापगढ़ -अवध थे ।औपचारिकताओं के पूर्ण होने के बाद बाबू प्रसिद्ध नारायण जी ने "कॉलेज योजना "पर विचार -विमर्श का प्रस्ताव रखा ।अब तक संगठन के "शिक्षा फण्ड" में पर्याप्त धन जमा होचुका था ।सभी सदस्य उत्सुक थे कि कॉलेज स्थापना का कार्य अब प्रारम्भ कर देना चाहिए ।इस बात पर विचार होने लगा कि सेंट्रल क्षत्रिय कालेज कहाँ स्थापित किया जाय ?अभाग्यवश सदस्यों में इस बात पर मतभेद हो गया ।पूर्व और पश्चिम का प्रश्न उठा खड़ा हुआ ।पश्चिम के लोगों ने आगरा में सेंट्रल क्षत्रिय कालेज स्थापित करने पर जोर दिया और पूरब क्र लोग लखनऊ में चाहते थे ।बहुत वाद -विवाद के बाद भी ये पूरब और पश्चिम का मतभेद दूर नहीं हुआ ।कुलमिलाकर बाबू प्रसिद्ध नारायण जी की कालेज योजना मटियामेट हो गई ।इससे उनकोबड़ा आघात लगा ।लेकिन बाबू साहिब ने हार नहीं मानी कालेज स्थापना उनका समाज के विकास के लिए मुख्य ध्येय बन चूका था ।उन्होंने भिनगा नरेश को एक क्षत्रिय कालेज की स्थापना हेतु निरंतर प्रेरित करते रहते थे ।भिनगा नरेश के मन में भी विचार मंथन होनेलगा ।

पंडित मदनमोहन मालवीय जी के विचार से नही थे बाबू साहिब सहमत-----

उधर पंडित मदन मोहन मालवीय जी  1905 से ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए सभी राजपरिवारों से सहयोग राशि की याचना कर रहे थे तो उनकी निगाह भिंगा नरेश राजर्षि के संसाधनों पर भी थी।इसी निमित्त मालवीय जी ने एक बैठक कमच्छा में आयोजित की जिसमें काशी के गणमान्य नागरिक ,बुद्धिजीवी और शिक्षाविदों आमंत्रित किया ।इस बैठक में राजर्षि उदयप्रताप जी को भी विशिष्ट अथिति के रूप में आमंत्रित किया गया  था।जब बाबू प्रसिद्ध नारायण जी को इस योजना की जानकारी हुई तो उन्होंने योजनावद्ध तरीके से राजर्षि को बैठक में जाने से रोका और उनका प्रतिनिधित्व स्वयं किया ।बैठक के दौरान मालवीय जी ने प्रसिद्धनारायण जी को संम्बोधित करते हुए कहा "बाबू साहब आप राजा साहब *राजर्षि"को समझाओ कि जब वनारस में काशी विश्वविद्यालय खुल ही रहा हैतो अलग से राजपूत कॉलेज खोलने का कोई औचित्य नहीं है ।वे उसी में अपना महान योगदान दें।जवाव में मालवीय जी से राजर्षि पर दबाव न डालने का आग्रह करते हुए बाबू साहब ने कहा ,"पंडित जी आप का उद्देश्य गंगा को स्वच्छ करना है ,मैं नाले को स्वच्छ करना चाहता हूँ ।यदि मैं अपने उद्देश्य में असफल रहा तो आप की गंगा भी  स्वच्छ नहीं हो पाएगी और बैठक से विदा हो लिए ।दूसरे दिन ठा0 काली प्रसाद सिंह जी ने इस घटना से राजर्षि को अवगत कराया ।राजर्षि ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि "प्रसिद्धि बाबू ने अच्छा किया वरना मालवीय अन्त तक घेरते "।

राजर्षि को पुत्र के देहान्त से हुई थी घोर निराशा------

राजर्षि के पुत्र महेंद्र विक्रम सिंह जी का चेचक से निधन होगया ।पहले से ही वैराग्य मय जीवन व्यतीत कर रहे राजर्षि महा निराशा में डूब गये ।जब यह सूचना और राजर्षि की स्थिति की जानकारी बाबू प्रसिद्धिनारायन सिंह को हुई तो उन्होंने बाबू चन्द्रिका प्रसाद सिंह जी (शिवपुर दीयर ,बलिया )और ठा0 काली प्रसाद सिंह के साथ शोक संवेदना व्यक्त करने पहुचे ।बाबु साहिब ने ही पहल करते हुऐ कहा --"महाराज पुत्र -वियोग जैसा दुःख इस धरा पर दूसरा कोई नहीं ।कितना ही बड़ा सार्थक प्रयास क्यों न हो उस स्थान की पूर्ति सम्भव नहीं ।फिर भी ज्यादा शोकाकुल होना आप जैसे महापुरुष की गरिमा के अनुकूल नहीं ।आप तो वह कार्य करने में सक्षम हैं जिससे एक क्या हजारों पुत्र पैदा हो सकते है ,जो देश और जाति की सेवा कर सदियों तक आपके नाम को अमर कर सकते है ।"राजर्षि में जैसे चेतना लौट आयी ,उनमें सोया हुआ महापुरुष जाग उठा ,उन्होंने महारानी साहिबा को बुला कर बाबू प्रसिद्ध नारायण  के शब्दों को अक्षरशः दोहराया,"अब में बही कार्य करूँगा जिससे मेरे एक नहीं हजारों पुत्र पैदा हों ,जो देश और क्षत्रिय जाति की सेवा करें ।"

हिवेट क्षत्रिय हाई स्कूल की स्थापना----

सन 1908 में राजर्षि ने साढे दस लाख रूपये का अमर दान देकर काशी में एक विद्यालय खोलने का संकल्प लिया ।स्थान के चयन और विद्यालय के स्थापना की जिम्मेदारी बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह ने सम्हाली ।राजर्षि की इच्छा थी कि विद्यालय शहर से दूर हो ।तदनुसार वरूणा पार काशी के पश्चिमोत्तर सीमा पर कुर्ग स्टेट (कर्नाटक)की 50 एकड़ के भू -खण्ड का चुनाव कियागया ।इसके लिए राजर्षि ने संयुक्तप्रान्त के गवर्नर सर जान हिवेट को पत्र लिखा ।बाबू साहिब ने भी जान हिवेट से अपनी मित्रता का उपयोग कियाऔर उस भू -खण्ड को सांकेतिक मूल्य पर "क्षत्रिया खैरात सोसाइटी "के पक्ष में अधिग्रहीत कराया।बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह की देख -रेख में 25 नवम्बर 1909 को तत्कालीन गवर्नर सर जान हिवेट ने विद्यालय का शिलान्यास किया ।बाबू साहिब ने नींव पूजन का संकल्प लिया ।सात नदियों के जल से भूमि का शोधन किया गया ।गर्वरनर के नाम पर विद्यालय का नाम "हिवेट क्षत्रिय हाई स्कूल "पड़ा ।बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी को प्रबंध सिमित का अध्यक्ष बनाया गया ।

बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी चाहते थे वाराणसी में सेंट्रल क्षत्रिय कॉलेज स्थापित करना ----
     अपनी इस आकांक्षा की पूर्ति हेतु बाबु साहिब 1917 में "क्षत्रिय उपकारिणी महासभा कालेज -बनारस का प्रस्ताव लेकर एक बार पुनः कर्मभूमि में उतर पड़े ।प्रस्तावित कॉलेज की स्थापना और संचालन केलिए क्षत्रिय उपकारिणी महासभा की प्रतिनिधि सभा द्वारा निर्वाचित 25 सदस्यों से एक प्रोविजनल बोर्ड ऑफ ट्रास्ट्रीज का गठन किया गया ।इस ट्रस्ट के सचिव कुरीसुडौली के राजा सर रामपाल सिंह जी तथा अध्यक्ष जम्बू और कश्मीर के महाराजा प्रताप सिंह जी थे ।परंतु बाबु साहिब का ये पवित्र प्रयास भी पुनः असफल रहा ।अब तो भिनगा नरेश और अवगढ़नारेश का भी साथ और संरक्षण भी नही था ।इस योजना हेतु 6 लाख रुपया एकत्र किया गया था ।योजना के असफल होने पर इस धन का उपयोग कुछ मेघावी क्षत्रिय विद्यार्थियों को अध्ययन हेतु छात्रवर्ती देने /विदेश भेजने में किया ।ऐसे विद्यार्थीयों में डा0 रामकरन सिंह जी ,भूतपूर्व प्राचार्य राजा बलवंत सिंह कॉलेज आगरा प्रमुख थे ।
     इसके अलावा बाबु प्रसिद्ध नारायण सिंह जी 29 दिसंबर 1925 को बनारस डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के प्रथम निर्वाचित चेयरमैन हुए ।आप के कुशल नेतृत्व में बोर्ड का जो जन कल्याणकारी स्वरूप उभर कर सामने आया उसकी भारत के वायसराय और गवर्नर जनरल लॉर्ड इर्विन ने भी सराहना की थी ।
     गांधी जी द्वारा प्रेरित सभी आंदोलनों को बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंघजी ने पूर्वांचल में अत्यंत सफलता से संचालित किया ।आप उन विरले जमींदारों में से थे जो स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय थे ।
     मैं ऐसे महान सामाजिक ,देशभक्त और उच्च विचारक व्यक्तित्व को सादर सत सत नमन करता हूँ ।आशा करता हूँ कि हमारे समाज के बुद्धिजीवी महानुभाव और भामाशाह उनके जीवन परिचय से अनुग्रहित होकर कुछ समाज सेवा में योगदान देने की अवश्य शिक्षा लेगें ।
     लेखक आभारी है बड़े भाई साहिब प्रोफेसर विनोद कुमार सिंह जी ,कृषि अर्थशास्त्र विभाग ,उदय प्रताप ऑटोनोमस कॉलेज वनारस ,जिनकी मदद एवं प्रोत्साहन से मैने इस महान व्यक्तित्व का समाज के शैक्षिक उन्नयन में योगदान का वर्णन किया ।मैं पुनः उनका ससम्मान आभार व् धन्यवाद व्यक्त करता हूँ वे मुझे हमेशा प्रोत्साहित एवं मार्गदर्शन देते रहते है ।जयहिंद ।जय राजपुताना ।।

लेखक --डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव -लढोता ,सासनी ,जिला हाथरस उत्तरप्रदेश ।
मिडिया एडवाइजर नार्थ इंडिया
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा 
(अध्यक्ष ,।महाराजा दिग्विजय सिंह जी वांकानेर)

Sunday, 9 April 2017


एक ऐतिहासिक परिचय क्षत्रिय महासभा तदर्थनाम अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा स्थापना दिवस ------

A Historical Introducton of Akhil Bhartiya Kshatriya Mahasabha Formelly called Kshatriya Mahasabha Founded by Raja Balwant Singh ji Awagarh with Co-ordination of Rajrshi  Raja Udai Pratap Singh  ji Bisen ,Bhinga and Thakur Umrao Singh ji Kotla .
स्थापना --1857 "राम दल ", 1861 "क्षत्रिय हितकारणी महासभा" 19अक्टूबर 1897 ,लखनऊ ,पंजीकरण 180/1530/1897/2150 /86 /661 /96 /75 /01
संक्षिप्त उदभव इतिहास
 1857 के स्वतंत्रता के इतिहास का अहम् योगदान  था क्षत्रिय सभा के निर्माण में  ---
अंग्रेजी शासन काल में ,प्रथम स्वतंत्रता संग्राम अंग्रेजों द्वारा क्षत्रियों के विरुद्ध अपनाई गई कलुषित नीति के विरुद्ध विदेशी दासता से मुक्ति पाने के लिए एक खुली अघोषित क्रांति थी जिसका प्रमुख केंद्र बिंदु उत्तर भारत था ।शुरुआत में इसके सूत्रपात्र के दो मुख्य श्रोत  "सैनिक क्रांति "और "जन क्रांति "थे ।इसके सूत्रपात्र का जिम्मा शुरुआती दौर में उत्तरप्रदेश ,बिहार ,मध्यप्रदेश ,दिल्ली ,पंजाब (वर्तमान हरियाणा )तथा आँध्रप्रदेश के उत्पीड़ित क्षत्रिय शासकों एवं मुस्लिम नबाबों ने उठाया था ।यह क्षत्रिय -मुस्लिम एकता का अदभुत संगम था ।सयुक्त प्रान्त , आगरा एवं अवध में , अवध की वेगमों ,बनारस के राजा चेत सिंह की फांसी ,रुहेलखण्ड के क्षत्रिय सरदारों के प्रति ईस्ट इंडिया कंपनी की उपेक्षा पूर्ण नीति और दिल्ली के अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह जफ़र के दो बेटों को दिल्ली में बीच मार्ग पर खड़ा करके गोली मारने की घटना ने आग में घी डालने का काम किया ,साथ ही क्षत्रिय राजाओं को गोद लेने की प्रथा को समाप्त करने की लार्ड डलहौजी की घोषणा ने भी भीषण जनक्रांति को जन्म दिया ।
 परिणामस्वरूप मुग़ल शासक बहादुरशाह जफ़र के झंडे के नेतृत्व में बेगम हजरत महल ,झांसी की रानी लक्ष्मीबाई , बाजीराव पेशवा ,अवध के राजा बेनी माधव सिंह ,उन्नाव के राव रामबक्श सिंह बैस ,बाबू कुंवर वीरसिंह पंवार जगदीशपुर ,दरियाव सिंह खागा ,राजा नरपति सिंह हरदोई ,शिवरतन सिंह हिस्था सेमरी बिहार ,गालब सिंह अलुरी ,सीताराम राजू आंध्र प्रदेश तथा रानी निड़ाल नागालैंड आदि ने क्रांति कर लाखों क्रांतिकारियों के साथ क्रांति की ज्वाला को प्रज्जवलित कर दिया ।
   इसी समय गोंडा के राजा देवी बख्श सिंह बिसेन ,कालाकांकर के राजा हनुमंत सिंह ,प्रताप सिंह ,माधोसिंह ,अवध के राजा बैनी माधव सिंह ,दरियाव सिंह ,बाबूसहलन सिंह ,जोधराज सिंह खीरी आदि राजाओं ने अवध की वेगम हजरत महल के योगदान से कालाकांकर के गंगा पुलिन पर "राम दल "का 16मई 1857ई0 में गठन किया जिसका प्रतीक चिन्ह "श्री राम "के चिन्ह के साथ लाल कमल का फूल था और जिसके प्रचार तंत्र में योगी एवं साधुमहात्मा भी घर- घर जाकर क्रांति का प्रचार -प्रसार कर रहे थे ।अंग्रेजी हुकूमत में अवध के जो सरदार लगान नही देपारहे थे उनकी जमीन जप्त कर लीगयी और उनको उनके अधिकारों से वेदखल कर दिया गया ।इस कठोर नीति ने जनक्रांति को वीभत्स रूप प्रदान किया ।इसी समय अंग्रेजों के द्वारा प्रदत्त बंदूकों की गोलियों से गाय और सूअर की चरबियों के लगाने से हिन्दू और मुस्लिम सैनिकों में धार्मिक उन्माद ने क्रांति के रूप में जन्म ले लिया ।क्रांति के लिए निर्धारित तिथि 31 मई0 1857ई0 थी पर इसके पूर्व ही 26फरवरी 1857 ई0 को सैनिक छावनी बहरामपुर में विद्रोह हुआ लेकिन उसे दवा दिया गया ।31 मार्च 1857ई0 में मंगल पांडे ने विद्रोह कर दिया और विद्रोह की ज्वाला भड़क गयी ।बैसवाडा क्षेत्र उस समय ब्रिटिश फ़ौज की छावनी थी ,जहाँ 40000 हजारसे अधिक क्षत्रिय सरदार सेना में सैनिक थे ।करीव तीस हजार पेंशन पारहे थे इनको युद्ध का अनुभव था ।वे सभी राजाओं की क्रांति सेना में भर्ती होगये ।नवाब रुहेलखण्ड की सेना में पिचहत्तर हजार  बैस राजपूत सैनिक ,बैस वाड़ा के राजा बेनी माधव की सेना में 35 हजार सैनिक थे  ।बैस वाङा केहर परिवार से हर एक व्यक्ति उनकी सेना का अंग था ।बिहार के कुंवर वीर सिंह की सेना में 65 हजार  विद्रोही सैनिक शामिल थे  ।
 यह एक महान क्रांति का समय था ।अंग्रेज गरीब भारतीयों को धन के लालच से ईसाई बना रहे थे ।इसी समय कुछ क्षत्रिय राजाओं और नवाबों के अत्याचारों से पीड़ित थे वे परोक्ष रूप से अंग्रेजों से मिले रहे ,जिससे उनको सामाजिक उपेक्षा का शिकार तो होना ही पड़ा ,पर इसे क्षत्रियो को लामबन्द करके इस बलि बेदी पर एक सूत्र में बाँधने की आवश्यकता का अनुभव हुआ  ।कालाकांकर प्रतापगढ़ के राजा हनुमंत सिंह के नेतृत्व में गंगा -जमुना क्रांति के प्रवाह में "राम दल "नाम के संघ ने गोपनीय तरीके से क्लब के रूपमें क्षत्रिय महासभा के सूत्रपात्र को जन्म दिया और क्षत्रियों ने "राम दल " को विघटित कर उसके स्थान पर 1860 ई0 में "क्षत्रिय हितकारणी सभा का गठन किया पर यह राजाओं ,राजदरवारियों और उनके सहयोगियों का संगठन आम बन कर रह गया जिसका कार्य क्षेत्र उत्तरप्रदेश (प्रतापगढ़ ,गोरखपुर ,आजमगढ़ ,बलिया ,रायबरेली ,उन्नाव ,आगरा ,मथुरा ,हरदोई ,मैनपुरी ,गोंडा ),मध्यप्रदेश ,राजस्थान ,गुजरात ,बंगाल ,जम्बू कश्मीर ,पंजाब (वर्तमान हरियाणा )तक ही सीमित था जिसके सरपरस्त अंग्रेजों के शुभचिंतक थे इस कारण इससे क्रांति कारियों के परिवारों ने प्रायः दूरी बना कर रखी गई ।कालाकांकर जन्मी क्षत्रिय  हितकारणी सभा  ने कालान्तर में आगरा और अवध के नाम को परिवर्तित कर संयुक्त प्रान्त आगरा और अवध के नाम से पंजीकृत किया ।
   अवागढ़ ,एटा के राजा बलवंत सिंह  के नेतृत्व में तत्काल समिति के प्रतिनिधि ठाकुर उमराव सिंह कोटला , राजर्षि राजा उदयप्रताप सिंह बिसेन ,भिंगा ,राजा खडग बहादुर सिंह ,मझोली ,बिहार ,श्री रामदीन सिंह ,तथा राजा मल्ल एवं अन्य क्षत्रियों ने "क्षत्रिय हितकारणी सभा "को बदल कर इसका पुनः नामकरण "क्षत्रिय महासभा "रखा गया ।
 इसी समय में संयुक्त प्रान्त आगरा और अवध के प्रदेश 19 अक्टूबर 1897 ई0 में भारतीय सोसाइटी अधिनियम के तहत राजधानी लखनऊ (लक्ष्मणपुर )अवध में सभा का पंजीकरण हुआ ।राजा बलवंत सिंह ,अवागढ़ ,एटा को संयुक्त प्रान्त  आगरा एवं अवध को जनक (Founder )के रूप में  अध्यक्ष निर्वाचित कर इसका पंजीकरण  पंजीकृत कार्यालय 224 महात्मा गांधी मार्ग ,लखनऊ कैंट ,उत्तरप्रदेश तथा प्रधान कार्यालय मथुरा ,संयुक्त प्रान्त आगरा एवं अवध में रखा गया ।
  कालान्तर में 09 -11 -1986ई0 में महाराजा लक्ष्मण सिंह डूंगरपुर के अध्यक्ष एवं श्री कोक सिंह भदौरिया ,राष्ट्रीय महामंत्री के समय में "क्षत्रिय महासभा " यह सभा भारत में "अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा "के रूप में सम्बोधित होगी ,के नाम से पुनरावृत्ति की गयी ।

तुम हमको यूँ ही भुला न पाओगे

देश जब अंग्रेजों की गुलामी की जंजीर में जकड़ा हुआ था उस समय आम राजपूत की आर्थिक एवं शैक्षनिक स्थित बहुत ही दयनीय थी । एक तरफ सामाजिक संगठन का आभाव  व् दूसरी तरफ अशिक्षा ने समाज की उन्नति को खोखला कर रखा था । अधिकांश बड़े बड़े राजा व् महाराजा अंग्रेजों के कठपुतली बन चुके थे ।सामाजिक चेतना की जागृति करने का तो किसी ने सोचा भी नही था ।जादातर राजवाड़े अपनी सुख -सुविधाओं को बनाये रखने के लिए ही अंग्रेजों के आधीन थे ।उन्हें समाज के उत्थान से कोई लेना -देना भी नही था । देशके कुछ गिने -चुने छोटे राजाओं और जागीरदारों के मन में यह विचार आया कि क्षत्रिय समाज का कैसे उत्थान सम्भव है क्यों कि परिस्थितियां उस समय बहुत प्रतिकूल थी । कुछ जागीरदार एवं शिक्षित राजपूतो ने विचार कर समाज के शैक्षणिक विकास व् सामाजिक उत्थान के लिए संगठन बनाने का मंथन और चिंतन किया जिसमें राजा बलवंत सिंह अवागढ़ ,राजर्षि राजा उदयप्रताप सिंह बिसेन ,ठाकुर उमराव सिंह ,राजा प्रताप सिंह जी जम्बू कश्मीर ने प्रचार प्रसार करके क्षत्रियों में शिक्षा व् सामाजिक उत्थान के लिए जागृति के लिए अभियान चलाया ।
     ये हमारे लिए बड़े हर्ष एवँ स्वाभिमान का विषय है क़ि ये उन तीनों महापुरुषो के द्वारा बनाया गया क्षत्रियों का संगठन " क्षत्रिय महासभा" तदर्थ नाम "अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा "  आज इतना बड़ा बट वृक्ष का रूप ले चुका है कि देश के सभी प्रान्तों  के जिलों में विद्यमान है और राजपूत हितों के लिए कार्य कर रहा है ।कितनी उच्च कोटि की सोच थी ये राजपूत समाज के  विकास के लिए उन महान व्यकित्व की ।केवल सोच ही नही थी इन तीनो राजपूत राजाओं  ने समाज के सामाजिक विकास के अलावा शैक्षणिक विकास के लियेअपना महान योगदान भी दिया  जिस आज हमारा समाज राजा बलवंत सिंह महाविद्यालय आगराऔर उदयप्रताप कॉलेज वनारस के रूप में  देखते भी है और उसका हमने लाभ भी लिया जिसके लिए हम उनके हमेशा ऋणी भी रहेंगे। अधिकांश देश के पुराने शिक्षित राजपूत इन्हीं दोनों कॉलेज के पढे हुये है  ।इन महाविद्यालयों का राजपूतों के शैक्षणिक विकास में आज भी बहुत बड़ा योगदान है और हर राजपूत विद्यार्थी बड़े गर्व से फक्र महसूस करते हुए कहता है कि मैं बलवंत राजपूत कॉलेज आगरा या राजा बलवंत सिंह कॉलेज आगरा और उदय प्रताप कॉलेज वनारस का शिक्षित व् संस्कारी क्षात्र हूँ ।सौभाग्य से मैं भी आर0 बी0 एस0 कॉलेज आगरा का छात्र रहा । आज हमारे समाज में केवल ये ही सोच है कि "मैं और मेरा परिवार "।
     अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा की प्रथम सभा आगरा में ठाकुर उमराव सिंह जी और उनके छोटे भाई नौ निहाल सिंह जी की कोठी "बाघ फरजाना "जिसको बाद में राजपूत बोर्डिंग हाउस का नाम दिया गया उसमें संपन्न हुई थी ।
    20जनवरी 1898को राजा बलवंत सिंह जी और उनके दोनों सहयोगी राजा उदय प्रताप सिंह जी भिंगा और कोटिला के राजा उमराव सिंह ने बनारस के बाबू सांवल सिंह जी की अध्यक्षता में प्रस्ताव पारित करके क्षत्रिय समाज में एकता और जागृती लाने के उदेश्य से एक समाचार पत्र जिसका नाम "राजपूत मासिक "दिया गया प्रकाशित कर वाया गया जिसके माध्यम से देश के विभिन्न भागों में फैले हुए समस्त क्षत्रिय समाज में उनकी सामाजिक ,शैक्षणिक विकास एवं समस्याओं के निराकरण के जनसम्पर्क और नुक्कड़ सभाएं शुरू हुई ।
  इस अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा संगठन का निर्माण करके इन तीनों महापुरुषोंने समाज में एकता लाने के महत्व को समझाया और इसके साथ साथ राजपूत समाज के  शैक्षणिक विकास में अपना सब कुछ न्योछावर करके महान योगदान का परिचय करके भी दिखाया जिसे समाज आज भी प्रत्यक्ष रूप में आगरा और वनारस में देख सकता है जो बहुत बड़े राजा और महाराजाओं ने भी समाज के लिए नही किया ।इन्होंने समाजपीड़ा और परिस्थिती को गंभीरता से समझा और समाज के विकास के लिए सार्थक प्रयास किये ।यही उच्च कोटि की समाज के विकास के प्रति देश के सभी राजा और महाराजाओं की होती तो शायद आज राजपूतों के विकास की तस्वीर ही कुछ और होती ।
   इसके बाद महाराजा प्रताप सिंह जी जम्बू एंड कश्मीर ने लाहौर से "राजपूत गजट"नामक उर्दू समाचार पत्र प्रकाशित किया जिसको ठाकुर शुखराम दास चौहान ने एडिट किया था ।इन समाचार पत्रों के माध्यम से अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा ने दूसरे क्षत्रिय संगठनो के सहयोग से देश में जिले और तालुका स्तर पर सभाओं की सूचनाओं के द्वारा समाज में एकता और जागृति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया ।

  Great Contribution of these three Great personalities in Educational Development of Kshatriyas /Rajputs .
  
1--राजा बलवंत सिंह जी अवागढ़ का राजपूतों के शैक्षणिक विकास में महान योगदान ---
       राजा बलवंत सिंह जी अधिक पढे लिखे नही थे ।इस पीड़ा से उनके ह्रदय में राजपूतों के शैक्षणिक विकासकी भावना का दर्द जाग्रत हुआ और इसके लिए उन्होंने साक्षरता के प्रसार की ओर दूरगामी दृष्टि डाली ।सन् 1885स्वर्गीय पंडित मदन मोहन मालवीय जी और कोटिला के राजा उमराव सिंह जी के परामर्श से राजा साहिब ने राजपूत बोर्डिंग हाउस को राजपूत हाई स्कूल में अपग्रेड करवाया जिसके लिए राजा साहिब ने 150000 रूपये ,भवन और 50 एकड़ जमीन दान दी ।जो बाद में 1928 में इंटर मीडिएट कॉलेज में क्रमोन्नत हुआ और जिसका नाम बलवंत राजपूत कॉलेज किया गया ।सन् 1940 में ये डिग्री कॉलेज बनगया जिसके विकास में अवागढ़ राजपरिवार का महत्वपूर्ण योगदान रहा जो आज दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा कॉलेज है जिसके पास लगभग 1000 एकड़ कृषि फ़ार्म है ।राजा साहिब ने स्वर्गीय रवीन्द्रनाथ टैगौर को भी शांतिनिकेतन के निर्माण में आर्थिक मदद की थी ।

Contribution of Raja Udai Pratap Singh Ji of Bhinga in Educational Development of Rajput Community.

     राजा उदय प्रताप सिंह जी भिंगा राजपरिवार का भी राजपूतों के सामाजिक विकास के अतरिक्त शैक्षणिक विकास मेंभी महत्वपूर्ण व् सराहनीय योगदान रहा था ।वे स्वयं भी बहुत शिक्षित थे ।राजपूतों के शैक्षणिक विकास में उनके योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा ।उन्होंने वाराणसी में सन् 1909 में हेवेत्त क्षत्रिय हाई स्कूल की स्थापना की जिसके लिए 100000 0रूपये दान दिए जो 1921 में इंटरमीडिएट कॉलेज में अपग्रेड हुआ जो बाद मेंउदय प्रताप इंटरमीडिएट कॉलेज के नाम से जाना गया ।बाद में 1949में डिग्री कॉलेज में अपग्रेड हुआ और जिसका नाम उदय प्रताप  ऑटोनोमस कॉलेज हुआ ।राजा उदय प्रताप सिंह जी ने क्षत्रिय उपकर्णी महासभा की स्थापना की जिसके लिए भींगा राज क्षत्रियों के लिए 35000रूपये दान दिए ।इसके अलावा वे हर साल क्षत्रिय ग्रेजुएट को ऑक्सफ़ोर्ड और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में शिक्षा पाने के लिए11000रूपये क्षात्रवृति के रूप में देते थे ।
   राजा साहिब स्वर्गीय पंडित मदन मोहन मालवीय जी की विचाधारा के अनुयायी थे ।उन्होंने उदय प्रताप कॉलेज के आलावा कई दूसरी संस्थाओं  को आर्थिक सहायता प्रदान की ।राजा साहिब ने वाराणसी के कमच्छा में उर्फन्स होम ,भिनगा राज अनाथालय एस्टेब्लिशद किये जिसके लिए 123000रूपये खर्चे के लिए दान दिए ।उन्होंने लाखों रूपये दूसरे सामाजिक संगठनो को दान दिए जिनमें के0 जी0 मेडिकल कॉलेज लखनऊ ,कैल्विन तालुकुदार कॉलेज लखनऊ ,मूलघंध कुतिविहार ,सारनाथ ,हिंदी प्रचारिणी सभा  सम्लित है ।उन्होंने राजपूत छात्रों के लिए कई छात्रवृति के रूप में फण्ड दिए जिसके लिए वे हमेशा याद किये जाएंगे ।
   
   Contribution of Raja Umrao Singh ji of Kotila Rajpriwar in Rajput Educational Development . 

     ये कोटिला जादौन राजपूतों की बहुत पुरानी रियासत है जो संवत 1225 के लगभग बनी थी।इस रियासत के पूर्वज संवत 1100 में बयाना से माइग्रेट होकर जलेसर आकर बसे थे ।पहले ये रियासत उमारगढ़ कोटिला के नाम से आगरा जिले के अंतर्गत आती थी जो आज फिरोजावाद जिले में है ।
राजपूतों के शैक्षणिक विकास में कोटिला के राजा उमराव सिंह जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा था ।कोटिला राजपरिवार के लोग उस समय शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी थे ।वे शिक्षा की महत्ता को समझते थे ।इस लिए उनकी सोच राजपूतों की शिक्षा के लिए दूरगामी भी थी ।उनकी जयपुर राजपरिवार से भी नजदीकी रिलेशन था ।राजा मान सिंह जी दुतीय जो ईसरदा ठिकाने से जयपुर की गद्दी पर बिराजे थे उनकी ननिहाल कोटिला जादौन राजपरिवार में उमराव सिंह जी के यहाँ थी ।सन् 1878में एक शिक्षण संस्था की स्थापना का प्रयत्न कुछ विचारशील व्यक्तिओं के द्वारा एक काल्पनिक योजना को मूर्तरूप देने का प्रयास किया गया था ।उस समय आगरा ही शिक्षा का इस क्षेत्र में बड़ा विकसित शहर था ।कोटिला के राजा उमराव सिंह जी और उनके छोटे भाई नौ निहाल सिंह जी के निजी निवास स्थान के आउट हाउस में केवल 20 राजपूत छात्रों को रहने व् पढ़ने के लिए एक बोर्डिंग हाउस खोल गया ।उनकी ये कोठी बाग़ फरजाना नाम से आगरा में मशहूर थी ।उसमे एक वार्डन व् एक ट्यूटर भी रखा गया ।इस संस्था को आगे सुचारू रूप से संचालन के लिए दूसरे प्रमुख जादौन राजपूत जमींदारों का भी सहयोग लिया गया जिनमें मुख्य रूप से राजा बलदेव सिंह जी अवागढ़ ,राजा लक्षमण सिंह जी बजीर पूरा जिला आगरा ,ठाकुर लेखराज सिंह जी गभाना रियासत ,अलीगढ ,ठाकुर कल्याण सिंह जी ठिकाना जलालपुर ,अलीगढ थे ।
   इसके बाद समाज के कुछ बुद्धिजीविओं के मन में विचार आया कि इस बोर्डिंग हाउस से काम नही चलने बाला ।सन् 1905 में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा का इसी राजपूत बोर्डिंग हाउस में 9वां अधिवेशन हुआ जिसमे आगरा में एक सेंट्रल राजपूत कॉलेज खोलने का प्रस्ताव रखा गया लेकिन किन्ही कारणों से पूर्ण न होसका ।इसके बाद फिर सन् 1910में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा का 14 वां अधिवेशन महाराजा जम्बू &कश्मीर  H .H .Major General Sir Prtap Singh ji की अध्यक्षता में हुई जिसमें केंद्रीय राजपूत कॉलेज आगरा में खोलने का प्रस्ताव पुनः पारित किया गया लेकिन इलाहावाद यूनिवर्सिटी ने इस प्रस्ताव को मान्यता देने से इनकार कर दिया ।उस समय आगरा अंग्रेजी शिक्षा के लिए उपर्युक्त शहर था ।इसके बाद अवागढ़ राजपरिवार ने राजपूतों की शिक्षा के लिए सराहनीय योगदान दिया
    इसके बाद शुरू हुआ देश के अन्य राजपूत शासकों के द्वारा अन्य प्रांतों में राजपूतों के लिए राजपूत बोर्डिंग हाउस और स्कूल खोलने प्रचलन जिसमें ईडर के राजा प्रताप सिंह जी ने जोधपुर में चौपान्सी स्कूल खोला ।इसके बाद राजकोट ,अजमेर ,लाहौर ,रायपुर और इंदौर शहरों में राजपूतों की शिक्षा के लिए स्कूल आरम्भ हुये जिससे समाज में शिक्षा का काफी स्तर ऊंचा हुआ ।
    अंत मैं अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा की सभी इकाइयों से विनम्र आग्रह करता हूँ कि वे 19 अक्टूबर को हर वर्ष इस संगठन के स्थापना दिवस के रूप में मनायें तो हमारे समाज के युवाओं में जागृति का संचार होगा और इस अवसर पर हम इन तीनो महान पुन्य आत्माओं के समाज के विकास में योगदान को श्र्द्धा सुमन अर्पित करके स्मरण करें । लेकिन मुझे बड़े अफशोस के साथ ये भी लिखना पड़ रहा है कि में आज कल अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभाओं के वैनरो को भी फेसबुक के माध्यम से देख रहा हूँ कि जिस पर संगठन के पदाधिकारी लोग केवल अपने फ़ोटो व् नाम लिखा कर अपना प्रचार  प्रसार कर रहे है कोई सामाजिक जनचेतना किसी भी क्षेत्र में दिखाई नही देरही ।और तो क्या कहूँ संगठन के संस्थापक का फ़ोटो व् नाम भी संगठन के बैनर पर लिखना मुनासिब नही समझते हमारे समाज के बुद्धिजीवी पदाधिकारी लोग ।तो कैसे समझूँ कि ये संगठन इतने बड़े राजपूत समाज को कोई नई सकारात्मक दिशा दे पयेगा जिसमे अपने ही महापुरुषों को याद नहीं किया जाता है ।मैं,आज इस संगठन के 120 वें स्थापना दिवस के शुभ अवसर पर इन तीनो महान आत्माओं को सत् सत् नमन करता हुआ श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ तथा अपनी आज की इस पोस्ट को इन तीनों महापुरुषों को समर्पित करता हूँ ।जय हिन्द ।जय राजपूताना ।।
1 -राजा बलवंत सिंह जी, अवागढ़ ,जादौन रियासत एटा
2-राजा उदय प्रताप सिंह जी बिसेन भिनगा रियासत
3-राजा उमराव सिंह जी कोटिला जादौन रियासत

   लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन ,
   गांव -लाढोता ,सासनी ,जिला -हाथरस ,उत्तरप्रदेश 
   मिडिया एडवाइजर नार्थ इंडिया
   अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा 
   (अध्यक्ष ,महाराजा डा0 दिग्विजय सिंह जी वांकानेर)