Tuesday, 25 April 2017

1857 की क्रान्ति के महानायक की गौरवमयी जीवनगाथा महाकाव्य के महानायक जैसी ------

(26 अप्रैल बाबु वीर कुंवर सिंह की पुण्यतिथि पर समर्पित)

देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में एक ऐसा भी "सिंह"था ,जिसकी 80 साल की उम्र में भी दहाड़ से अंग्रेजों के छक्के छूट जाते थे ।ये नायक थे बिहार के बाबू कुंवर सिंह ।दुनिया के इतिहास में यह पहला उदाहरण है ,जब इतने व्रद्ध योद्धा ने इस तरह तलवार उठाकर फिरंगी सेना को युद्ध के लिए ललकारा ।
हुकूमत की बुनियाद ढहाये चला जा ।
जवानों को बागी बनाए चला जा ।।
बरस आग बन कर फिरंगी के सर पे।
तकब्बुर की दुनिया ढहाये चला जा ।।

80 वर्ष के" युवा सिंह" इसी लय और जज्वे से भरपूर अंग्रेंजी हुकूमत को तहस -नहस करते हुए एक ऐसी महागाथा छोड़ गये जिसे याद करके हर हिन्दुस्तानी का सिर श्रद्धा से झुक जाता है ।जगदीशपुर के कुंवर सिंह की जीवनगाथा महाकाव्य के महानायक जैसी है ।सत्तावनी क्रांति का सर्वाधिक योग्य सेनानायक ,युद्धकला का महान प्रणेता ,अदम्य साहसी ,1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बिहार स्थित "दानापुर छावनी "के सिपाहियों को अपने नेता के रूप में जिस नायक की प्राप्ति हुई उन्हीं का नाम था वीर कुंवर सिंह ।जैसा नाम बैसा ही किया उन्होंने काम ।

‘खूब लड़ी मर्दानी’ की तरह ही ‘कुंअर सिंह भी बडे वीर मर्दाने योद्धा थे । कविता को प्राचार्य मनोरंजन प्रसाद सिंह ने लिखा था और जब यह 1929 में रामवृक्ष बेनीपुरी के संपादन में निकलने वाली ‘युवक’ में छपी, तो ब्रिटिश सरकार ने इसे तत्काल प्रतिबंधित कर दिया। इस कविता की शुरुआत कुछ इस प्रकार थी ------

था बूढा पर वीर वाकुंडा कुंवर सिंह मर्दाना था।
मस्ती की थी छिड़ी रागिनी आजादी का गाना था।।
भारत के कोने कोने में होता यही तराना था।
उधर खड़ी थी लक्ष्मीबाई और पेशवा नाना था।।
इधर बिहारी-वीर बांकुड़ा खड़ा हुआ मस्ताना था।
अस्सी बरस की हड्डी में जागा जोश पुराना था ।
सब कहते हैं, कुंअर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था। ।

और अंतिम पद कुछ इस प्रकार ---

दुष्मन तट पर पहुंच गए, जब कुंअरसिंह करते थे पार।
गोली आकर लगी बांह में, दायां हाथ हुआ बेकार।
हुई अपावन बाहु जान, बस काट दिया लेकर तलवार।
ले  गंगे यह हाथ आज  तुझको  ही देता हूं उपहार। ।
वीर-भक्त की वही जान्हवी को मानो नजराना था ।
सब कहते हैं कुंबर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था। ।

जीवन परिचय-----
 सत्तावनी भारतीय विद्रोह के इस महानायक का जन्म एक कुलीन क्षत्रिय वंश में सन 1777में बिहार के शाहाबाद (अब भोजपुर) जिले के उज्जैनी क्षत्रिय (परमार) राज परिवार में राजा साहबजादा सिंह के यहां हुआ था ।इनकी माता का नाम रानी पंचरत्न देवी था ।ये परिवार राजा विक्रमादित्य और राजाभोज का वंश माना जाता है ।कुंवर सिंह के अपने पिता से विचार नहीं मिलते थे ।वे जितौरा के जंगलों में ही रहा करते थे ।वे वहीँ रह कर जंगली जानवरों का शिकारकिया करते थे और घुड़सवारी के शौक़ीन थे ।उनमें वीरता कूट -कूट करभरी थी ।वे किसी से डरते नहीं थे ।उन्हेंस्वतंत्र जीवन जीना पसंद था ।पिता की मृत्यु के बाद जब 1826 में कुंवर सिंह ने जगदीशपुर की गद्दी संभाली थी ,तब रियासत पर कर्ज का भारी बोझ था ।इसके वाबजूद भीउन्होंने अपने कुशल सूझ -बूझ से जगदीशपुर का विकास ओरविस्तार किया ।नए बाजार बनवाये ,गढ़ के पास मंदिर और तालाबों का निर्माण कराया ।

बंसुरिया बाबा से मिली थी देशभक्ति की  प्रेरणा-----

इसमे एक नया नाम की चर्चा आवश्यक है,जिससे कुअंर  सिंह पूरी तरह प्रभावित थे ।वह था ---बंसुरिया बाबा ।बंसुरिया बाबा अपने घर से रुष्ट होकर भागा हुआ एक स्वाभिमानी व्यक्ति था।उसने दावा के जंगलों में सिद्धि प्राप्त की थी ।बाद में एक दिन कुअंर सिंह के दरबार में आकर उसने सबको प्रेरित किया ----"अंग्रेजों से डटकर लड़ना हमारा कर्तव्य है ।"उसने आम लोगों से उसके लिए अपील भी की ।उन्हें अहसास दिलाया---"फिरंगी खतरनाक बनिये है और मानव विरोधी है ।वे साम्राज्यवादी है ।फुट डाल कर हमें लूट रहे है और हमारे भाइयों की हत्या कर रहे है ।"बंसुरिया बाबा की बांसुरी में देश-प्रेम की अद्भुत मिठास और देश -प्रेम का जज्बा था जिसका कुंवर सिंह पर बहुत गहरा प्रभाव देश -भक्ति का पड़ा ।आजादी की लड़ाई और कुअंर सिंह का साथ देनेमें उसने अभूतपूर्व मिसाल पेश की थी ।

बिहार में विद्रोहियों का किया कुशल नेतृत्व -----
   
  बाबू वीर कुंअर  सिंह (1777-1858)विदेशी शासन के खिलाफ लोगों द्वारा छेड़े गए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम  (1857-58)के नायकों में से एक थे ।1857के विद्रोह। के दौरान इस देदीप्यमान व्यक्ति ने ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों से डट कर मुकावला किया ।वीर कुंवर सिंह जी जगदीशपुर ,निकट आरा  ,जो वर्तमान में भोजपुर का एक भाग है ,के राजपूत घराने के जमींदार थे ।भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने ब्रिटिश सेना के खिलाफ सशस्त्र बलौ के एक दल का कुशल नेतृत्व किया ।80 वर्षकी व्रद्ध अवस्था के बाबजूद ,उनके नाम ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों में भय उत्पन्न कर देता था ।उन्होंने कई स्थानों परब्रटिश सेना को कड़ी चुनौती दी ।ऐसा लगता था कि कुंअर सिंह के कारण पूरा पश्चिमी बिहार विद्रोह की आग में जल उठेगा और ब्रिटिश नियंत्रण से बाहर हो जायेगा ।वह बिहार के अंतिम शेर थे ।उनकेनेत्रत्व में बिहार के राजपूतों ने अंग्रेजों के विरुद्ध जो सशस्त्र संघर्ष किया वह इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ है ।उनके संघर्ष की दास्तांन ,बिहार के कोने -कोने में गांव -गांव में चर्चित रही है ।किन्तु इसे दुर्भाग्यही कहा जायगा क़ि राजपूतों का अंग्रेजों के विरुद्ध यह संघर्ष देश के कोने -कोने में न जाना जा सका है  ,न पढ़ा जा सका है ।जन साधारण तो बहुत दूर की बात है ,आम राजपूतो को भी कुअंर सिंह पंवार के संघर्ष ,उनके त्याग ,वीरता ,साहस ,शौर्य और बलिदान की कोई विशेष जानकारी नही है ।
   अंग्रेजों के विरुद्ध बिहार में विद्रोह का प्रारम्भ 12जून 1857को हुआ ।25जुलाई ,1857 को दानापुर छावनी में जब अंग्रेज अधिकारियों ने सैनिकों को शस्त्र जमा करा देने का आदेश दिया तो वहां भी विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी ।26 जुलाई को विद्रोही पलटन मुक्ति सेना के रूप में आरा पहुँच गई ।मुक्ति सेना ने उसी क्षेत्र के जगदीशपुर निवासी 80 वर्षीय कुंअर सिंह पंवार को अपना सर्वोच्च नेता स्वीकार किया और प्रधान शासक के रूप में उनका अभिषेक किया ।कुंअर सिंह पंवार छापामार युद्ध के विशेषज्ञ माने गये ।
   उत्तरप्रदेश में भी दिखाए हाथ -------

     कुछ समय बाद कुअंर सिंह अपनी सेना की एक टुकड़ी के साथ युद्ध का मूल्यांकन करने तथा उसको नया आयाम देने के उदेश्य से 1858के प्रारम्भ में सासाराम ,रोहतास ,मिर्जापुर /रींवा ,बांदा ,कालपी ,कानपूर के प्रमुख विद्रोही नायकों से संपर्क करते हुए मार्च के प्रारम्भ में लखनऊ पहुंचे जहां उनका क्रांतिकारियों ने बड़ा सम्मान किया।अवध के राजा ने उन्हें शाही पोशाक से सम्मानित किया और आजमगढ़ जिले में आने वाले क्षेत्र की जागीर प्रदान की ।मार्च ,1858 में उन्होंने आजमगढ़ को अधिकृत कर लिया ।22मार्च 1858 को कुंअर सिंह जी और उनके साथियों ने अतरौलिया पर बहुत बड़ा आकस्मिक हमला किया और कर्नल मिलमैन के नेतृत्व वाले ब्रिटिश बलों को आजमगढ़ तक वापिस खदेड़ दिया कुंअर सिंह की सेना में 5 से 12 हजार तक सिपाही थे जो उनकी बेजोड़ संगठन श
क्ति के परिचायक थे ।कुंअर  सिंह जी द्वारा उस क्षेत्र के घेराव से ब्रिटिश अधिकारीयों को पुरे क्षेत्र की पराजय का भय और अधिक बढ़ गया ।गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग को स्थिति से निपटने के लिए अत्यावश्यक उपाय करने पड़े क्यों कि कुंअर सिंह के साहस व् शौर्य से वे परिचित थे ।ब्रिटिश सेना के नये -नए दस्ते आते रहे ,परन्तु कुंअर  सिंह ने उन्हें बार -बार क्रांतिकारियों के नियंत्रण में लड़ाई में रखा ।
 
फिर लौटे बिहार -----
     
      15अप्रैल 1858 को जनरल लुगार्ड से कुंअर सिंह जी की आजमगढ़ में ही सामना हो गया जिसमें वे अविजित रहे किन्तु अगले ही दिन उन्होंने आरा लौट जाने का कार्यक्रम बना लिया ।वे 18अप्रैल को बलिया के नगरा सिकंदरपुर होते हुए मनिथर आये और वहीँ पड़ाव डाल दिया ।20 अप्रैल को कैप्टेन डगलस ने उनकी सेना पर आक्रमण कर दिया किन्तु कुंअर सिंह जी अपनी सेना को बचाकर शिबपुर घाट पहुंचा देने में सफल होगये ।उन्होंने उसी दिन गंगा पार कर लिया ,किन्तु गंगा नदी पार करते समय अंग्रेजी सेना ने उनकी नाव पर भयंकर गोलिया चलायी जिससे एक गोली कुंवर सिंह जी की बाह में लगी ।
   
 हाथ काटकर गंगा को कर दिया  था समर्पित-----

ऐसा कहा जाता है कि गोली का शरीर में जहर फैलने की बजह से कुंअर सिंह जी ने अपना एक हाथ स्वयं तलवार से काट कर गंगा को भेंट कर दिया और गंगा पार कर हाथी पर सवार होकर 22 अप्रैल 1858 को अपने गृह नगर जगदीशपुर पहुँच गये । उस समय वे घायल थे ।

23 अप्रैल 1858 को जगदीशपुर में हुआ था ऐतिहासिक युद्ध-----


23 अप्रैल को अंग्रेज सेना तोपों से सुसज्जित होकर उनका पीछा करते हुए उनके गृह निवास जगदीशपुर तक पहुँच गई जहाँ एक ऐतिहासिक युद्ध हुआ ।कैप्टन ली गैंड के नेतृत्व में एक सैनिक टुकड़ी के साथ कुंअर सिंह की अंतिम और निर्णायक लड़ाई लड़ी गयी ,जिसमें कुंअर सिंह को विजयश्री मिली । पुरे क्षेत्र की जनता विजय के उल्लास में झूम उठी।अंग्रेज कमांडर ली ग्रैंड भी मारा गया  ।इस लड़ाई में उनके भाई अमर सिंह  ,हरे कृष्ण सिंह तथा अन्य की भूमिका बहुत सराहनीय थी ।इस युद्ध में अंग्रेजों को भारी हानि उठानी पड़ी ।
मगर व्रद्ध अवस्था और अनवरत युद्ध करते -करते थकने तथा घायल होने से कुंअर सिंह की अंतिम यात्रा का समय भी निकट आगया ।सो इस लंबे युद्ध का अंतिम विजय का उल्लास तीन दिनों के बाद ही समाप्त हो गया अर्थात 26अप्रैल 1858 को कुंअर सिंह का स्वर्गवास हो गया ।किन्तु जगदीशपुर और बिहार के विद्रोहियों के लिए संघर्ष की  एक लम्बी यात्रा  तय करना शेष था ।कुंअर सिंह की मृत्यु के बाद यह उत्तरदायित्व उनके भाई अमर सिंह और हरे कृष्ण सिंह के कन्धों पर आगया ।बिरगेडियर लुगार्ड ने 9 मई 1858 को जब आक्रमण किया तो पाया ---"वीर कुंअर सिंह के अनुयायी अपने दुधर्ष नेता की मृत्यु से विचलित नहीं हुये एवं उनके भाई अमर सिंह तथा हरि किशन सिंह के नेतृत्व में टिके रहे "। बाबु कुंअर सिंह  विजेता के रूप में इस भारत भूमि से हमेशा के लिए विदा होगये ।भयंकर लड़ाइयों के बावजूद उन्होंने राजपूतों की शानदार परम्परा को बरकरार रखा।
   उनकी शहादत के साथ ही सन् 1857 के उस अदभूत सैनानी का अंत हो गया जिसका इतिहासकारों ने एक महान सैनिक नेता के रूप में मूलयांकन किया है ।
 
गुरिल्ला युद्ध में थी महारत -----

ओजस्वी व्यक्तित्व तथा छापामार युद्ध में अपनी अदभुत प्रवीणता तथा अनेक सैनिक सफलताओं से विद्रोह के प्रमुख स्तम्भ बन गये थे ।अनेक इतिहासकारों ने स्वीकार किया कि उनमें वीर शिवाजी जैसा तेज था ।कुंअर सिंह की प्रशंसा करते हुऐ मेजर विंसेट आयर ने स्वयं कहा था ---"बाबू कुंअर सिंह युद्ध कला का जादूगर है ।हम लोग उसके सामने असहाय है ।"

जीवन में पहली बार ठाकुर की आँखों में आये  थे आँसू-----

जब कुंअर सिंह गोली लगने और हाथ काटने से बुरी तरह जख्मी हो गये थे ,तब वे जगदीशपुर चले गये थे ।उनके भाई अमर सिंह के नेतृत्व में छापामार युद्ध चल रहा था ।अमर सिंह अंग्रेजों के छक्के छुड़ा रहे थे ।अस्वस्थ कुंअर सिंह ने अपने एक खास सहयोगी से कहा ---" बुझावन सिंह ,अमर युद्ध में अकेले पड़ रहे है ।मैं उसे बहुत प्यार करता हूँ ।इस समय मैं उनके साथ जाने की स्थित में नहीं हूँ ।इस धर्म युद्ध में तुम मेरी जगह जाओ।"बुझावन सिंह बहुत वीरता से लड़ा ।जब युद्ध इन अंग्रेज अफसर लूथर की हत्या अमर सिंह के द्वारा की गई लेकिन अमर सिंह को दूसरे अंग्रेज के प्रहार से बचाने में बुझावन सिंह शहीद होगया ।अगर बुझावन सिंह मेरे सामने आकर अपनी छाती नहीं करता तो अंग्रेज का भाला मेरी छाती में लागजाता और मैं आपके सामने नही होता ये बात अमर सिंह नेअपने भाई कुंअर सिंह को बताई ।लड़ाई के इस अभियान को बुझावन सिंहने ही पूरा किया ।अतः ये मेरी जीत नही बुझावन सिंह की जीत है ।यह सुनकर ठाकुर की जीवनमें पहली बारआँखें आंसुओं से डब डबा आईं । कुंअर सिंह ने कहा ---"अमर !इसी अहाते में पश्चिमी छोर पर कहीं उसे दफनाओ ताकि शहीदों के निशान भविष्य में भी रहें ।मेरा इतिहास केवल कागज के कुछ पन्नों में सिमिटा रहेगा ,लेकिन बुझावन की यह कब्र सभी शहीदों की कब्र होगी ।"इस लिये बुझावन की लाश उनके किले केभीतर ही दफनाई गई ।कहते है वह कब्र आज भी मौजूद है ।उल्लेखनीय है कि बुझावन सिंह भी राजपूत था ,लेकिन औरंगजेब के ज़माने में उसके पूर्वजों को मुस्लमान बना दिया गया था ।----खैर, जो भी हो ,बुझावन सिंह सच्चा देशभक्त और स्वतंत्रता का अमर वीर सिपाही था ।

सन सत्तावन की क्रांति के समय 80 वर्ष की आयु में कुंअर सिंह ने जिस वीरता रणक्षेत्र की चतुराई ,युद्धकौशल अपार साहस का परिचय दिया ,वह दुर्लभ है ।किसी देश के नायक के लिए जिन गुणों को शास्त्र ने अनिवार्य बताया है ,वे सब तो उनमें मिलते हैं है ,उनके व्यक्तित्व में असाधारणता का एकमौलिक गुण यह भी जुड़ जाता है कि दुनिया के इतिहास में संभवतया वे ऐसे पहले योद्धा है ,जिसने उम्र के चौथेपन में न केवल तलवार उठाई ,बल्कि मजदूरों और किसानों को उत्पीड़क सरकार के खिलाफ संगठित भी किया ।
     कुंअर सिंह ने अंग्रेजों केविरुद्ध केवल निरंतर संघर्ष ही नहीं किया ,बल्कि उन्होंने देशभर के राजाओं ,जमींदारों ,विभिन्न जाति और धर्मों के बिखरे हुये लोगों को एक राष्ट्रसूत्र में पिरोने काभी काम किया ।यद्धपि वे एक जमींदार थे ,लेंकिन उन्होंने आम लोगों के लिए नहर ,बांध ,व्रक्षारोपन , विद्यालय और अस्पताल खोलने जैसे पुनीति कार्य भीकिये थे ।कुंअर सिंह को बिहार शासन प्रति वर्ष 23 अप्रैल को "विजयदिवस"मनाकर याद करता है ।इतिहास और वर्तमानके सन्दर्भ में हमारा मानना है कि जिस कुंअर सिंह लोकमानस में जीवंत नायक है ,उसी प्रकार उनके विशेष अवदानों के अनुकूल उन्हें "लोकनायक"की उपाधि से विभूषित किया जाना चाहिए ,जो इतिहास के वर्तमान ,भूत और भविष्य तीनों कालों के लिए बिल्कुल उपयुक्त प्रतीत होता है ।

वे इतने लोकप्रिय हुए कि भोजपुर जिले का बच्चा -बच्चा उनके बलिदान को  आज तक स्मरण करता है।मैं ऐसे महान स्वतंत्रता सैनानी को सत् -सत् नमन करता हूँऔर आशा करता हूँ कि हमारे समाज की नई पीढ़ी उनके आदर्शों से प्रेरणा लेकर इस आजादी को अक्षुण्ण बनाए रखने में हर संभव त्याग करे;क्यों कि जो समाज अपने इतिहास -पूर्वजों के त्याग ,बलिदान,सत्यपरायणता, शौर्य ,वीरता ,देशभक्ति ,मातृभूमि से प्रेम  एवंम अन्य अवदानों को भुला देता है ,वह अपने वर्तमान के प्रति कृतघ्न होता है तथा अपना भविष्य सुरक्षित नहीं रख सकता ।जय हिन्द ।जय राजपूताना ।

लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव -लढोता ,सासनी ,जिला -हाथरस ,उत्तरप्रदेश ।
मिडिया एडवाइजर नार्थ इंडिया
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा
(अध्यक्ष ,महाराजा दिग्विजय सिंह जी वांकानेर ,कार्यकारी अध्यक्ष,माननीय महेंद्र सिंह जी

Tuesday, 18 April 2017

देखो अपनी बदहाली का दर्द बयां करता हुआ  16वीं सदी के हिन्दुत्व रक्षक अमरपुरोधा हिंदुपति का स्मारक एवं समाधिस्थल---------

 महाराणा प्रताप के पितामह  हिन्दूपति महाराणा संग्राम सिंह जो लोगों  में "सांगा"के नाम से अधिक प्रसिद्ध है  भारतीय इतिहास के एक ऐसे आदर्श महापुरुष हो चुके है जिनका जीवन -चरित्र शौर्यपूर्ण गाथाओं तथा त्याग और बलिदान की अमर उपलब्धियों से अभिमण्डित है।उन्होंने मध्यकालीन राजनीति में सक्रिय भाग लेकर हिंदुत्व की मानमर्यादा का संरक्षण तथा भारतीय संस्कृति  के उच्चादर्शों का प्रतिष्ठान किया था जिसके कारण मेवाड़ का गौरव विश्बभर में समुन्नत हुआ।राणा सांगा अपने समय के श्रेष्ठ व् शिरमौर हिन्दू राजा थे।हिंदुस्तान के सभी राजा उनको सम्मान देते थे।मेवाड़ ने उनके ही शासनकाल में शक्ति और सम्रद्धि की चरमसीमा प्राप्त की। सांगा मेवाड़ की कीर्ति के कलश थे।वे पश्चिमी भारत के हिन्दू राजा और सरदारों के सर्वमान्य नेता थे।उन्हें हिंदुपति अर्थात हिंदुओं का स्वांमी कहते है।महाराणा सांगा वीर ,उदार 'कर्तज्ञ ,बुद्धिमान और न्याय परायण शासक थे।अपने शत्रु को कैद करके छोड़ देना और उसे पीछा राज्य दे देना सांगा जैसे ही उदार और वीर पुरुष का कार्य था।वह एक सच्चे क्षत्रिय थे,।उन्होंने अपनी वीरता निडरता और साहसी युद्ध -कौशल से मेवाड़ को एक सामाराज्य बना दिया था।राजपूताने के बहुधा सभी  तथा कई बाहरी राजा भी मेवाड़ के गौरव के कारण मित्रभाव से उनके झंडे तले लड़ने में अपना गौरव समझते थे।इस प्रकार राजपूत जाति का संगठन होने के कारण वे बाबर से लड़ने को एकत्र हुए।सांगा अंतिम हिन्दू राजा थे ,जिनके सेनापतित्व में सब राजपूत जातियां विदेशियों "तुर्कों "को भारत से निकालने के लिए सम्मलित हुई।यद्धपि इसके बाद और भी वीर राजा उत्पन्न हुए ,तथापि ऐसा कोई न हुआ ,जो सारे राजपूताने की सेना का सेनापति बना हो।राणा सांगा ने देश के सम्मान और आदर्शों की स्थापना हेतु जीवन भर प्रयास किया ।दिल्ली और मालवा के मुगल बादशाहों से 18 बार युद्ध कर विजय प्राप्त की थी। दिल्ली के इब्राहिम लोधी ने 2 बार महाराणा से युद्ध किया ,दोनों ही बार उसकी पराजय हुई।मांडू मालवा के बादशाह महमूद दुतीय को कैद करना महाराणा सांगा के अदभुत पराक्रम का ही परिणाम था।इनके शरीर में युद्ध के 80 घाव थेऔर शायद ही शरीर में कोई अंश ऐसा हो जिस पर युद्धों में लगे हुए घावों के चिन्ह न हों।उसी समय समय बाबर ने दिल्ली के इब्राहिम लोधी को मार कर दिल्ली विजय करली।कुछ समय बाद बाबर ने आगरा भी जीत लिया।बाबर यह अच्छी तरह से जानता था की हिन्दुस्तान में उसका सबसे शक्तिशाली शत्रु महाराणा सांग था।उनकी बढ़ती हुई शक्ति व् प्रतिष्ठा को बाबर जानता था।वह यह भी जनता था कि राणा सांगा  से युद्ध करने के दो ही परिणाम हो सकते है --या तो वह भारत का सम्राट हो जायेगा  या उसकी सब आशाओं पर पानी फिर जायेगा और उसे बापस काबुल जाना पड़ेगा ।
      वि.सं. १५८४ चैत्र सुदि ११ (ई.स. १५२७ मार्च) को दोनों सेनाएँ आमनेसामने हुई। प्रारम्भिक लड़ाइयों में बाबर की पराजय हुई। मुस्लिम सेना में घोर निराशा फैल गई। बाबर ने अपनी सेना में जोश लाने के लिए एक जोशीला भाषण दिया। अपनी सेना की रणनीति बनाई। बाबर के पास बड़ी-बड़ी तोपें थी, उनकी मोचबिन्दी की। वि.सं. १५८४ चैत्र सुदि १४ को (ई.स. १५२७ मार्च १७) दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। बाबर ने तोपखाने का प्रयोग किया। इससे पहले भारत में तोपों का प्रयोग नहीं होता था। तोपों से बहुत से राजपूत मारे गए, लेकिन उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आई। मुगल सेना का पलड़ा हल्का था, वे हार रहे थे। मुगल सेना भी पूरे जोश से युद्ध कर रही थी। इतने में एक तीर राणा साँगा के सिर में लगा, जिससे वे मुर्छित हो गए और कुछ सरदार उन्हें पालकी में बैठा कर युद्ध क्षेत्र के बाहर सुरक्षित जगह पर ले गए। राणा के हटते ही झाला अञ्जा ने राजचिह्न धारण करके राणा साँगा के हाथी पर सवार होकर युद्ध का संचालन किया । झाला अज्रा की अध्यक्षता में सेना लड़ने लगी। लेकिन राणा साँगा की अनुपस्थिति में सेना में निराशा छा गई। राजपूत पक्ष अब भी मजबूत था। तोपखाने ने भयंकर तबाही मचाई, इसी समय बाबर के सुरक्षित दस्ते ने पूरे जोश के साथ में पराजय हुई। राणा साँगा को बसवा नामक स्थान पर लाया गया।  इसी बीच किसी सरदार ने उन्हें विष दे दिया जिससे राणा साँगा का ४६ वर्ष की आयु में स्वर्गवासहो गया। वीर विनोद में बसवा स्थान बताया गया है। बसवा में एक प्राचीन चबूतरा बना हुआ है। यहाँ के लोगों की मान्यता है कि यह चबूतरा राणा साँगा का स्मारक है। मेवाड़ वाले भी इसे ही राणा साँगा का स्मारक मानते हैं। अमर काव्य राणा साँगा की मृत्यु के लगभग सौ वर्ष बाद की रचना है। अत: यही सम्भव है कि राणा साँगा का दाह संस्कार बसवा में ही हुआ होगा। बसवा दौसा जिले में बांदीकुई की और जाने वाली रेलवे लाइन के आस पास स्थित है ।रेलवे क्रासिंग के पास ही बसवा में राणा सांगा की समाधि बनी है ।राणा सांगा का चबूतरा यानी समाधि स्थल ।यहीं पर  यह हिन्दुस्तान का गौरव वीर योद्धा प्रकृति के पंच तत्वों में विलीन हुआ था ऐसी मान्यता है वहां के क्षेत्रीय वाशिन्दों की ।
      राणा सांगा के विषय में जब मैं मंथन और चिंतन करता हूँ तो मन में एक ही ख्याल बार बार आता है कि जिनके जिस्म में 80 घाव ,एक हाथ और एक आँख का आभाव ।अंदर से कितना मजबूत रहे होंगे सांगा ।यह अपनी मातृभूमि के प्रति उनकाअगाध प्रेम और सच्चा समर्पण ही होगा जो उनकी रगों में साहस और वीरता का संचार करता होगा ।उनकी वीरता को नमन करता हूँ जिनके नेतृत्व में जिस राजपुताना संघ का निर्माण हुआ उसके छिन्न -भिन्न हो जाने के उपरांत भी मेवाड़ के प्रति आस्था में कमी नहीं आई ।सांगा ने राजपूताने में ही केवल राजनैतिक -एक्य की स्थापना नहीं की अपितु विभिन्न भारतीय शक्तियों को एक सूत्र में बांध कर बाह्य आक्रमणकारी मुगलों का सामना करने की अतिआवश्यक प्रेरणा दी ।यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं है कि राणा सांगा ने अपने प्रभाव से देश में एक नयी आशा और विश्वास को जन्म दिया । लेकिन बसवा स्थित उनकी समाधि स्थल और स्मारक की बदहाली को देख कर मन व्यथित भी हुआ ।एक ओर मुगलों ने आगरा में अपने घोड़ों तक की इतनी भव्य समाधि बना दी दूसरी ओर आजादी के बाद भी राणा सांगा की ऐसी बेकद्री से अनदेखी ------क्यों?जब उस समाधि स्थल को देखा तो लगा मानो कोई वीरान जगह जहां सूखा ही सूखा ।समाधि के चबूतरे की दुर्दशा जिसको शब्दों में भी वर्णित नहीं किया जा सकता जिसके ऊपर सुखी घास  और कटीली झाड़ियां उगी हुई तथा उसकी चुनी हुई दीवार भी वीरान हालात में ।समाधि स्थल के चारों ओर स्थानीय लोगों के अनुसार राज्य सरकार ने लगभग 6 बीघा जमीन छोड़ रखी है उस पर भी कुछ स्थानीय लोगों ने अतिक्रमण कर रखा है ।कहने का आशय यह है कि न उसका कोई संरक्षण और नहीं कोई संरक्षक।इस देश मे बलिदान ,त्याग ,वीरता ,शौर्यता ,आन-बान -शान ,देशभक्ति और स्वाभिमान का यही तो दुर्भाग्य है ।शहीदों की शहादत का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि स्वतंत्रता के अमर पुरोधाओं के समाधि स्थलों और स्मारकों की दुर्गति ,जिससे उस क्षेत्र की वीरता ,देशभक्ति और उस क्षेत्र के वीरों द्वारा राष्ट्र के लिए किये गये बलिदान और देश के लिए उनके द्वारा किये गये सहादत के कार्यों की जानकारी देश की जनता को होगी इसकी तो कल्पना करना भी बेमानी होगी ।
      आज देश के अंतर्गत न जाने कितने सामाजिक ,हिंदुत्व की दुहाई देने वाले संगठन है जो हर प्रान्त में विद्यमान है किसी भी संगठन को यह बदहाल  जीर्ण -शीर्ण स्थित में पड़ा हुआ राष्ट्र की धरोहर  समाधि स्थल नहीं दिखाई दिया ।आज कल तो स्वच्छ भारत का भी अभियान बहुत तेजी से चल रहा है जिसमें बड़े -बड़े राजनेता भी झाड़ू लगाने का ढोंग दिखाते नजर आये परन्तु किसी स्थानी स्वयं सेवी या राजनेता को इस स्थल की बदहाल हालात दिखाई नही दी ।हो सकता है न जाने देश में ऐसे कितने स्वतंत्रता के पुरोधाओं के समाधि स्थल उपेक्षित होगे जो अपने अच्छे दिनों के आनेका  बेसब्री से इंतजार कर रहे होंगे ।
     आज देश के प्रत्येक प्रान्त में राजपूत /क्षत्रिय संगठन काफी सक्रिय नजर आरहे है ।कुछ काम भी सकारात्मक कर रहे है ।लेकिन कुछ मात्र कागजी और फोटो डालने तक ही सीमित है ।कुछ भाइयों के सुझाव देखता हूँ कहते है कि सभी संगठन एक होकर एक ही संगठन बनायें ।ये राजपूतों में शायद ही संभव हो।आजकल हम अपने परिवार के लोगों को जब संगठित नहीं रख सकते तो देश के इतने बड़े समाज को एक बैनर तले एक व्यक्तित्व के नेतृत्व में संगठित रखना सम्भव कम लगता है बैसे आजकल असम्भव कुछ नहीं ।खैर मैं तो अपनी बात यहकहना चाहता हूँ कि हमारे स्थानीय राजपूत संगठनों को इस बदहाल स्थिति में पड़े हुये बसवा नगर में राणा सांगा के स्मारक तथा समाधि स्थल का संरक्षण एवं विकास खुद  संगठित होकर करना होगा तभी हम अपने पूर्वजों के इस गौरव इतिहास को संजोके रख पाएंगे ।राणा सांगा का जन्म 12अप्रैल 1482 को हुआ था ।शायद ही मेवाड़ को छोड़ कर उनको विगत इसी 12अप्रैल को किसी ने श्रद्धा सुमन अर्पित किये हों।जब मेरे किसी मित्र ने उनकी समाधि स्थल की खस्ता हालात की वीडियो भेजी  जिसमे कुछ स्थानीय राजपूत समाधि पर 12 अप्रैल को श्रद्धांजलि देने आये होंगे मैंने भी उनके दिल के दर्द को महसूस किया वे बहुत ही शासन की अनदेखी से व्यथित थे ।मैं भी उसकी बदहाल स्थिति को देख कर दंग रहगया और मन में भारी बेदना भी हुई ।
     हो सकता है कि आपको लगे कि मेरी लेखनी कुछ अतिश्योक्ति कर रही है ,किन्तु सत्य को लिखने के लिए मैं मजबूर हूँ ।कम से कम अपने क्षत्रिय समाज को बताना तो बहुत जरूरी भी है ।यदि नहीं लिखूंगा तो अपमान होगा एक साहसी हिंदुत्व के रक्षक अमर पुरोधा सच्चे राजपूत के बलिदान ,त्याग ,देशभक्ति ,वीरता और शौर्यता का ।इस लिए मैंने ये सब लिखने का निर्णय किया  ।जो सत्य है वह सत्य ही रहेगा ।
     इस देश की जनता ने ,सरकारों ने ,कर्णधारों ने तथा राजनेताओं ने चाहे राजपूतों के बलिदान की उपेक्षा की हो ,राजपूतों की उपेक्षा की हो ,उनके कार्य और कर्तव्यों को महत्व नहीं दिया गया हो,राजपूत ने कभी अपना फर्ज पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।बड़ी से बड़ी कुर्वानी और बलिदान देकर अपना कर्तव्य पूरा किया ।अपनी जिम्मेदारी को वहन किया ।क्षत्रियों के फर्ज पर ,उनके कर्तव्य पर ,उनकी देशभक्ति पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता ।
     व्यक्तिगत स्वार्थों और राजनैतिक स्वार्थों की खातिर कभी बलिदानों और शहादतों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए ।किन्तु इसे देख कर ऐसा लगता है कि आज ऐसा हो रहा है जो दुर्भाग्यपूर्ण है ।
हमें  और हमारे सभी सामाजिक संगठनों को बिना मतभेद के अपने राजपूत गौरव के अमर पुरोधाओं की जयंती स्वयं मनानी होंगी । उनके स्मारकों और समाधि स्थलों की स्वयं सुरक्षा और विकास करना होगा किसी का मोहताज नहीं बनना ।बैसे कड़वा सच तो यह भी है कि खुद क्षत्रिय /राजपूत संगठन चलाने वाले पदाधिकारियों के घरों में भी राणा सांगा, महाराणा प्रताप ,पृथ्वीराज चौहान ,अमर सिंह राठौड़  ,वीर शिवाजी , कुंवर वीर सिंह ,रानी लक्ष्मीबाई ,रानी दुर्गावती जैसे वीर और वीरांगनाओं की तस्वीर नहीं मिलेगी।कैसे आप कल्पना करेंगे कि हमारी भावी पीढ़ी में कैसे राजपूती संस्कार आएंगे ।अपने गौरवशाली इतिहास को बनाये रखने के लिए हम सब को संगठित होकर समाज के विकास में सहयोग करना होगा तभी हम अपनी इन गौरवशाली धरोहरों का अपनी युवा पीढ़ी और आगे आने वाली पीढ़ी के सामने गुणगान कर पाएंगे ।यही है वास्तविक दिल की वेदना का दर्द ।लेखक ने कुछ लिखने में गलत लिख दिया हो तो उसके लिए क्षमाप्रार्थी भी हूँ ।जय हिंद ।जय राजपूताना ।।

लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव-लढोता ,सासनी ,जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश 
मिडिया सलाहकार नार्थ इंडिया
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा
(अध्यक्ष ,महाराजा दिग्विजय सिंह जी ,वांकानेर,कार्यकारी अध्यक्ष ,माननीय महेंद्र सिंह जी तंवर )


Friday, 14 April 2017


मुग़ल एवं अंग्रेज कालीन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के  रक्त -रंजित इतिहास में क्षत्राणियों का  भी था अतुलनीय बलिदान ----

भारतीय नारी के समस्त आदर्श यदि एक ही जगह कोई खोजना चाहे तो वे ,एक आदर्श  क्षत्रिय नारी में देखे जासकते है ।क्षत्रिय जाति का इस देश के इतिहास और संस्कृति के निर्माण में जोअनुठा योगदान रहा है उसे कोई नकार नहीं सकता ।धर्म और स्वतंत्रता के लिए हंसते -हंसते अपने प्राणों की बलि देना राजपूतों का प्रमुख कर्तव्य रहा है ।अपनी आन -बान समझी जाती रही है क्षत्रियों की अदभुत शौर्य -गाथाओं ,वीरत्व प्रदर्शन और गौरव गरिमा का मूल आधार क्षत्राणियां रही है ।राजपूत रमणियों को ही क्षत्रिय धर्म (रजपूती)की समुचित पालना का श्रेय जाता है ।क्षत्रियों का शौर्य ,उनकी युद्धप्रियता ,स्वामिभक्ति ,धरती प्रेम ,वचन पालन ,राष्ट्रप्रेम इत्यादि भारत तो क्या पुरे विश्व में अतुलनीय है और इसे अतुलनीय स्वरूप प्रदान करने में जीवन्त शक्ति के रूप में क्षत्राणियां ही सतत प्रेरणा दायिनी रही है ।
 
       हमारे इतिहास में क्षत्रिय वीरों की शौर्य -गाथाओं का वर्णन तो बहुत मिलता है किन्तु उन माताओं का जिन्होंने अपनी आन -बान और शान की रक्षार्थ अपने वीर पुत्रों को दूध की लाज रखने रणांगण में भेजा ,उन अर्धांगणियों को जिन्होंने देश की रक्षा व् धर्म पालन हेतु अपने चूडे की लाज बचाने रणबांकुरे पतियों को युद्ध भूमि में भेजा और वे वीरांगनाएं जो सतीत्व रक्षा के लिए जौहर की आग में जल कर भस्म हो गयी उन शक्ति रूपा सबलाओं के त्याग और शौर्य की गाथाओं का समुचित विवेचन नहीं हुआ जिन्होंने शत्रुदल का सफाया  करने स्वयं हाथ  में खड्ग धारण कर रणचंडी का रूप धारण किया ।आवश्यकता पड़ने पर मोम की तरह नरम दिखने वाली राजपूत नारी सख्त चट्टान की भांति प्रबल से प्रबल झंझावात के सम्मुख समर्थ खड़ी रही ।परन्तु दुर्भाग्यवश पुरुष के वीरत्व गर्जन के आगे नारी की अन्तः प्रवाहिनी शक्ति धारा प्रायः आँखों से ओझल ही रही ।
  क्षत्राणियों की वीरता ,साहस ,त्याग ,दृढ संकल्प ,कष्ट ,सहिष्णुता ,धर्म और पति -परायणता ,शरणागत वत्सलता स्तुत्य रही है ।अपने शील व् स्वाभिमान की रक्षा के लिए वीर माता ,वीर पत्नी और पुत्री के रूप में उसकी जो महत्वपूर्ण भूमिका रही है वह अतुलनीय व् स्मरणीय है ।

पौराणिक ,रामायणकालीन व् महाभारतकालीन क्षत्राणियों के आदर्श तत्कालीन युग के अनुरूप निर्धारित हुए ।मध्यकाल जब आया तो उस काल की मांग के अनुरूप कुछ बदलाब आया ।यो तो हर युगमें क्षत्राणियों में थोडा बहुत बदलाब आता रहा है पर मूलभूत शाश्वत संस्कारों में विशेष अंतर नहीं आया और प्राचीन मान्य आदर्शों से क्षत्राणियां सदा संस्कारित होती रही ।संस्कारित नारी सबल राष्ट्र की सबसे बड़ी पहिचान हुआ करती है ।
भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में मुगलों के शासनकाल व् अंग्रेजों के शासनकाल में भी अगणित क्षत्राणियों  को कई तरह के आत्म बलिदान करने पड़े ।क्षत्राणियां जैसी रूपवती ,शीलवती  और तेजस्वनी होती थीं ,वैसेही अवसर पड़ने पर वे अपने शासन की क्षमता भी दिखाती थी  जिनमें प्रमुख थी रानी दुर्गावती ,रानी कर्णावती ,रानी लक्ष्मीबाई ।ऐसे कई मौके आये ,जब राज्य की वागडोर रानियों को संभालनी पडी और हंसते -हंसते अपनी मातृभूमि की रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति दे डाली ।न्योछावर कर दिया अपने आप को देश व् धर्म की आन ,वान और शान की खातिर ।
 रामायण एवं महाभारत काल में भी देश ,धर्म संस्कृति एवं अस्मिता की रक्षार्थ अनेकों वीरांगनाओं द्वारा आत्मोत्सर्जन किया गया जिनमेंकौशल्या जी ,सुमित्रा जी ,  सीता जी , कैकई जी , उर्मिला , देवकी जी , रोहिणी जी , रुक्मिणी , गान्धारी जी , कुन्ती , माद्री , द्रोपदी ,सुभद्रा ,उत्तरा ,सावित्री ,दमयन्ती प्रमुख रही।
 विदेशी आक्रांताओं (यवनोंऔर मुगलों)के समय में भी अनेक क्षत्राणियों ने जिनमें महारानी रत्नकुमारी ,  रणथम्भोर के राजा हम्मीरदेव चौहान की महारानी , महारानी पद्ध्यमिनी , महारानी कर्णवती ,महारानी मनीमाता ,फूलकंवर,जसवंत दे हाडी ,मीरां ,चारुमती , हाडी रानी ,पन्ना धाय ,ताराबाई ,जीजाबाई ,अहल्याबाई ,इंदुमती ,कर्मदेवी ,कर्मवती ,कमलावती प्रमुख थी
 

राजस्थान के इतिहास की वह घटना है जब एक रानी ने विवाह के सिर्फ 7 दिन वाद ही अपना शीश अपने हाथों से काट कर युद्ध के लिए तैयार अपने पति को भिजवा दी ताकि उनका पति अपनी नई नवेली पत्नी की खूबसूरती में उलझकर अपना कर्तव्य भूल न जाय ।कहते है एक पत्नी द्वारा अपने पति को उसका फर्ज याद दिलाने के लिए किया गया इतिहास में सबसे बड़ा वलिदान है ।यह कोई और नहीं ,बल्कि बूंदी के हाडा शासक की बेटी थी और उदयपुर (मेवाड़)के सलूम्बर ठिकाने के रावत चूडावत की रानी थी इतिहास में हाड़ी रानी के नाम से प्रसिद्ध है।
चूडावत माँगी सैनानी ।
    सिर काट भेज दियो क्षत्राणी।।
 
        सन 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी क्षत्राणियों ने भी अपनी देश रक्षा में आन ,वान और शान के साथ वीरता ,साहस ,युद्ध कौसल ,देशभक्ति , का अनुकरणीय योगदान दिया था।यहां तक कि इस मातृशक्ति ने भी इस ग़दर के समय रणचंडी साक्षात माँ दुर्गा का रूप धारण करके अंग्रेजों से भयंकर युद्ध कियाऔर मातृभूमि की रक्षार्थ अपने प्राणों की भी आहुति देकर अमर गाथा में अपना नाम हमेशा के लिए अमर करगयी लेकिन जीते जी गोरों की दासता को स्वीकार नहीं किया जिनमे मुख्य रूप से झांसी की रानी लक्ष्मी बाई , तुलसीपुर की रानी ईश्वरी कुमारी ,अमोरहा की रानी जगतकंवर ,रानी राजेंद्र कँवर महोबा और बुंदेलखंड की लीडर ,रानी द्रोपदी बाई धार ,रानी तपस्वनी बाई ,महारानी जिन्दा , रानी जैतपुर (बुंदेलखंड), चौहान रानी अनूपनगर , रानी अवंतीबाई ,रानी जिंदल कौर पंजाब ,रानी किंटूर कर्नाटक चेन्नम्मा ,सुभद्राकुमारी चौहान प्रमुख थी ।
 
  अंग्रेजों से रानी लक्ष्मीबाई के द्वारा देश के मान सम्मान के लिए किये गये युद्ध के विषय में सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखित ये कविता दिल को दहलाने वाली है ।

सिंहासन हिल उठे ,राजवंशों ने भृकुटी तानी थी ,
बूढ़े भारत में भी आई ,फिर से नई जवानी थी ।
गुमी हुई आजादी की कीमत ,सबने पहचानी थी ,
दूर फिरंगी को करने की ,सबने मन में ठानी थी ।
चमक उठी सन् सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी ,
बुंदेले हरबोलों के मुख ,हमने सूनी कहानी थी ।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो ,झांसी वाली रानी थी ।।

    इस कविता ने जिसे अमर कर दिया ,उस कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने केवल वीरोचित गीत ही नहीं लिखे ,स्वतंत्रता -संग्राम में स्वयं भी अपने पति लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ भाग लिया ।पति -पत्नी दोनों के देश -कार्य में व्यस्त रहने तथा समय -समय पर जेल जाने के कारण ,उन्होंने अपार आर्थिक -पारवारिक कष्ट भी सहे ।सुभद्रा कुमारी चौहान एक सच्ची देशभक्त ,स्वतंत्रताप्रेमी ,सह्रदय लेखिका और ओजस्वी कवयित्री थी ।
शक्ति और भक्ति की गंगा -यमुना की पावन धारा में क्षत्राणियों ने जो अवगाहन किया वह स्तुत्य ,प्रशंसनीय और अनुकरणीय है ।

राष्ट कवि मैथिलीशरण गुप्तजी ने राजपूताने के चित्तौड़ ,रणथम्भोर ,जैसलमेर ,बयाना तथा अन्य स्थानों पर विदेशी आक्रांताओं के काल में वीरांगना क्षत्राणियों के द्वारा किये गये बलिदान तथा जौहर का इस प्रकार वर्णन किया।गुप्तजी के  अनुसार----

विख्यात है जौहर जगत में,आज भी इस देश में ।
हम मग्न है उन वीरांगनाओं देवीयों के शोक में ।।
क्षत्रिय स्त्रियां निज धर्म पर जलती हुई डरती नहीं ।
ऐसी सर्व सतित्व शिक्षा ,विश्व में मिलती नही ।।
   
 मैं इन सभी क्षत्राणी वीरांगनाओं के बलिदान को सत सत नमन करता हूँ ।जय हिन्द।जय मातृशक्ति ।जय राजपूताना ।

लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव -लढोता ,सासनी ,जिला हाथरस ,उत्तरप्रदेश ।
मीडिया सलाहकार नार्थ इंडिया
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा
(राष्ट्रीय अध्यक्ष  माननीय महाराजा दिग्विजय सिंह जी ,वांकानेर)



 

Wednesday, 12 April 2017

उन्नीस वीं सदी में पूर्वांचल का महान व्यक्तित्व जिसने देश के राज परिवारों को क्षत्रियों के शैक्षणिक विकास एवं सामाजिक उत्थान में योगदान देने के लिए किया था प्रेरित -------कर्मयोगी बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी 
 (The great personality of Purvanchal in 19th Century who inspired some Royal Families of India to  give their Contribution  in the field of Educational Development and Social Upliftment of Kshatriyas .
  
जन्म एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि ----

बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह का जन्म चंदौली जनपद (पूर्व में वाराणसी की एक तहसील )में महाइच परगना के कादिराबाद गांव के गहडवाल क्षत्रिय  जमींदार परिवार में ठाकुर रघुराई सिंह जी के यहां हुआ था जो कि एक प्रगतिशील विचारधारा के जमींदार थे ।

शिक्षा -----

बाबू साहिब की प्रारंभिक शिक्षा गहमर (गाजीपुर)में हुई।वहां से मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की ।सन 1876 में सेंट्रल म्योर कालेज इलाहाबाद से स्नातक की उपाधि प्राप्त की ।इसके साथ ही बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह को देश स्तर पर क्षत्रिय वंश में प्रथम स्नातक होने के साथ वाराणसी जनपद का प्रथम स्नातक बनने का महान गौरव प्राप्त हुआ ।अपने प्रथम स्नातक युवक को देखने के लिए जन समुदाय वाराणसी में उमड़ पड़ा ।प्रतिदिन लोगों की बढ़ती भीड़ के कारण तत्कालीन काशी नरेश महाराजा ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह जी ने बाबू साहिब को काशी आमंत्रित कर राजकीय सम्मान प्रदान किया और अपने साथ हाथी पर बैठा कर काशी में घुमाया ।शाही हाथी काशी की सड़कों पर घूम रहा था और जनता गगनभेदी नारों से अपने जनपद के स्नातक युवक का फूलों से स्वागत कर रही थी ।किसी के लिए ऐसा ऐतिहासिक स्वागत गौरव की बात थी ।इस स्वागत ने बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी को भावुक बना दिया और वे पूर्वांचल में व्याप्त अशिक्षा को दूर कर नवयुवकों को अपने जैसा ही शिक्षित बनाने के लिए एक कालेज की स्थापना का स्वप्न देखने लगे ।

   क्षत्रियों के शैक्षणिक विकास एवं  सामाजिक उत्थान के लिए उन्मुख ------

कुछ ही समय बाद आप कलकत्ता से कानून की डिग्री लेंकर वापस आये तो पिता जी ने उनको सरकारी अथवा वेतन पर नौकरी न करने की सौगंध दे डाली ।यहीं से बाबू साहिब अपने क्षत्रिय समाज सेवा की ओर उन्मुख हुये ।बाबू साहिब अपने छात्र जीवन से ही पूर्वांचल के क्षत्रियों में व्याप्त अशिक्षा से चिंतित रहते थे ।इस लिए उन्होंने शिक्षा  के प्रसार द्वारा सामाजिक सेवा और क्षत्रिय स्वाभिमान के उत्थान को अपना प्रमुख कार्यक्षेत्र चुना ।

देश के कुछ राजपरिवारों से क्षत्रियों के शैक्षिणक विकास एवं सामाजिक उत्थान के लिए किया प्रेरित ----

बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी ने विभिन्न प्रमुख रियासतों का व्यापक भृमण किया और राजा -महाराजाओं को शिक्षा प्रसार के लिए प्रेरित करते रहे ।अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आपने विभिन्न रियासतों मुख्यतः ग्वालियर ,अवागढ़ ,कुरीसुडौली ,भिनगा ,विजयपुर ,मांडा ,तिलोई ,और मझौली आदि रियासतों के सलाहकार के रूप में कार्य किया
और कई शिक्षण संस्थाओं की स्थापना कराई ।राजाओं द्वारा इस दिशा में पूर्ण सहयोग न मिलने के कारण बहुत निराश हुये फिर भी समाज उत्थान में लगे रहे । 

The Man with a Mission-----

 अपने मिशन के प्रति समिर्पित बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी ने क्षत्रिय सामाजिक संगठन का सहारा लिया क्षात्र -धर्म के संरक्षण ,सुरक्षा और अपने स्वप्नों की शिक्षा संस्था के स्थापनार्थ संसाधन के एकत्रीकरण हेतु एक मंच प्राप्त करने की दृष्टि से उन्होंने ठा0 छेदा सिंह जी और बाबू सांवल सिंह जी वनारस के सहयोग से मृतावस्था में पडी क्षत्रिय हितकारिणी सभा को पुर्नजीवित किया ।

क्षत्रिय महासभा के गठन में योगदान ----

 बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी के इस पुण्य कार्य में कुछ महानुभावों ने ,जिनमें पूर्वी क्षेत्र से राजा खड्ग बहादुर मल्ल मझौली ,  राजर्षि राजा उदयप्रताप सिंह जी बिसेन  भिनगाऔर ठा0 रामदीन सिंह जी बांकीपुर तथा पश्चिमी क्षेत्र से राजा बलबंत सिंह जी अवागढ़ ,ठा0 उमराव सिंह जी और उनके छोटे भाई कुंवर नौनिहाल सिंह जी कोटला-जाटउ ने तन ,मन और धन से सहयोग प्रदान किया ।आप लोगों ने निश्चय किया कि देश के समस्त क्षत्रियों का प्रतिनिधित्व करने वाली एक सभा संगठित की जाय ।19 अक्टूबर 1897 को क्षत्रिय महासभा का गठन किया गया जिसमें राजा बलबंत सिंह जी अवागढ़ को संस्थापक एवं प्रथम अध्यक्ष बनाया गया ।19-20 जनवरी 1898 को बनारस केबाबू सांवल सिंह जी की सभापतित्व में क्षत्रिय महासभा का प्रथम अधिवेशन आगरा में ठाकुर उमराव सिंह और उनकेछोटे भाई की कोठी "बाघ फरजाना "जो बाद में राजपूत बोर्डिंग हाउस के नाम से जानी गयी उसमे सम्पन्न हुई ।इस अधिवेशन में पूरब -पश्चिम से 300 से अधिक प्रतिष्ठित क्षत्रियों ने भाग लिया जिसमे देशकेकोने -कोने में क्षत्रिय सभाओं की स्थापना तथा क्षत्रियों में शिक्षा काप्रसार करने का प्रस्ताव स्वीकृत हुये ।


बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह के मिलन से  राजर्षि में उत्पन्न हुई थी क्षत्रियों के उत्थान की बृहद चेतना ------

राजर्षि को क्षत्रियों के सामाजिक एवं शैक्षणिक उत्थान के लिए प्रोत्साहित करने में वनारस के बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह के योगदान को भी नजरन्दाज नही किया जा सकता है ।उन्ही के निरंतर आग्रह और प्रयास से भिंगा नरेश मार्च 19o3 के क्षत्रिय महासभा के 7 वें अधिवेशन में अजमेर पधारे ।ये अधिवेशन बीकानेर नरेश महाराजा बहादुर सर गंगा सिंह जी के सभापतित्व में अजमेर में हुआ था ।राजर्षि अजमेर में महासभा के शिक्षा सम्बन्धी उद्देश्यों तथा बाबू साहिब के शिक्षा सम्बन्धी योजनाओं से अत्यधिक प्रभावित हुये तथा उन्होंने हर सम्भव सहयोग का आस्वासन दिया ।तभी राजर्षि ने अपने व्यय से काशी में महासभा का अधिवेशन कराने का निश्चय भी किया।दिसम्बर 1905 में क्षत्रिय महासभा का 9वां अधिवेशन काशी में कौशल किशोर मल्ल ,मझौली नरेश के सभापतित्व तथा बाबू प्रसिद्ध नारायण के कुशल प्रबंधन से बड़ी शान से सम्पन्न हुआ ।इसी अधिवेसन से राजर्षि और बाबू साहब की निकटता घनिष्ठता में बदली और भिंगा नरेश राजर्षि उनको समाज सेवा के क्षेत्र में अपना सलाहकार  मानने लगे । बाबू प्रसिद्ध नारायण जी को ही श्रेय जाता है कि कुरीसुडौली के नरेश माननीय सर राजा रामपाल सिंह जी भिनगा नरेश उदय प्रताप सिंह जी बिसेन के साथ मिल कर समाज सेवा की ओर उन्मुख हुये ।इन दो क्षत्रिय महान नेताओं का मिलान समाज के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी ।बाबू साहिब ने क्षत्रिय महासभा की स्थापना तथा विकास में केंद्रीय भूमिका का निर्वाह किया परन्तु कभी कोई पद स्वीकार नहीं किया ।वे संस्था के पदाधिकारी न बन कर बाहर से अधिक कार्य करते रहे ।उन्होंने अवध और आगरा के रईसों में क्षत्रिय महासभा का व्यापक प्रचार और प्रसार किया ।मध्यप्रदेश और बिहार में भी क्षत्रिय सभाएं उनके प्रयासों से सक्रीय हुई ।क्षत्रिय महासभा का 11वां अधिवेशन 29,30 और 31 दिसंबर 1907 को लखनऊ में हुआ ।उसके सभापति राजा प्रताप बहादुर सिंह जी ,प्रतापगढ़ -अवध थे ।औपचारिकताओं के पूर्ण होने के बाद बाबू प्रसिद्ध नारायण जी ने "कॉलेज योजना "पर विचार -विमर्श का प्रस्ताव रखा ।अब तक संगठन के "शिक्षा फण्ड" में पर्याप्त धन जमा होचुका था ।सभी सदस्य उत्सुक थे कि कॉलेज स्थापना का कार्य अब प्रारम्भ कर देना चाहिए ।इस बात पर विचार होने लगा कि सेंट्रल क्षत्रिय कालेज कहाँ स्थापित किया जाय ?अभाग्यवश सदस्यों में इस बात पर मतभेद हो गया ।पूर्व और पश्चिम का प्रश्न उठा खड़ा हुआ ।पश्चिम के लोगों ने आगरा में सेंट्रल क्षत्रिय कालेज स्थापित करने पर जोर दिया और पूरब क्र लोग लखनऊ में चाहते थे ।बहुत वाद -विवाद के बाद भी ये पूरब और पश्चिम का मतभेद दूर नहीं हुआ ।कुलमिलाकर बाबू प्रसिद्ध नारायण जी की कालेज योजना मटियामेट हो गई ।इससे उनकोबड़ा आघात लगा ।लेकिन बाबू साहिब ने हार नहीं मानी कालेज स्थापना उनका समाज के विकास के लिए मुख्य ध्येय बन चूका था ।उन्होंने भिनगा नरेश को एक क्षत्रिय कालेज की स्थापना हेतु निरंतर प्रेरित करते रहते थे ।भिनगा नरेश के मन में भी विचार मंथन होनेलगा ।

पंडित मदनमोहन मालवीय जी के विचार से नही थे बाबू साहिब सहमत-----

उधर पंडित मदन मोहन मालवीय जी  1905 से ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए सभी राजपरिवारों से सहयोग राशि की याचना कर रहे थे तो उनकी निगाह भिंगा नरेश राजर्षि के संसाधनों पर भी थी।इसी निमित्त मालवीय जी ने एक बैठक कमच्छा में आयोजित की जिसमें काशी के गणमान्य नागरिक ,बुद्धिजीवी और शिक्षाविदों आमंत्रित किया ।इस बैठक में राजर्षि उदयप्रताप जी को भी विशिष्ट अथिति के रूप में आमंत्रित किया गया  था।जब बाबू प्रसिद्ध नारायण जी को इस योजना की जानकारी हुई तो उन्होंने योजनावद्ध तरीके से राजर्षि को बैठक में जाने से रोका और उनका प्रतिनिधित्व स्वयं किया ।बैठक के दौरान मालवीय जी ने प्रसिद्धनारायण जी को संम्बोधित करते हुए कहा "बाबू साहब आप राजा साहब *राजर्षि"को समझाओ कि जब वनारस में काशी विश्वविद्यालय खुल ही रहा हैतो अलग से राजपूत कॉलेज खोलने का कोई औचित्य नहीं है ।वे उसी में अपना महान योगदान दें।जवाव में मालवीय जी से राजर्षि पर दबाव न डालने का आग्रह करते हुए बाबू साहब ने कहा ,"पंडित जी आप का उद्देश्य गंगा को स्वच्छ करना है ,मैं नाले को स्वच्छ करना चाहता हूँ ।यदि मैं अपने उद्देश्य में असफल रहा तो आप की गंगा भी  स्वच्छ नहीं हो पाएगी और बैठक से विदा हो लिए ।दूसरे दिन ठा0 काली प्रसाद सिंह जी ने इस घटना से राजर्षि को अवगत कराया ।राजर्षि ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि "प्रसिद्धि बाबू ने अच्छा किया वरना मालवीय अन्त तक घेरते "।

राजर्षि को पुत्र के देहान्त से हुई थी घोर निराशा------

राजर्षि के पुत्र महेंद्र विक्रम सिंह जी का चेचक से निधन होगया ।पहले से ही वैराग्य मय जीवन व्यतीत कर रहे राजर्षि महा निराशा में डूब गये ।जब यह सूचना और राजर्षि की स्थिति की जानकारी बाबू प्रसिद्धिनारायन सिंह को हुई तो उन्होंने बाबू चन्द्रिका प्रसाद सिंह जी (शिवपुर दीयर ,बलिया )और ठा0 काली प्रसाद सिंह के साथ शोक संवेदना व्यक्त करने पहुचे ।बाबु साहिब ने ही पहल करते हुऐ कहा --"महाराज पुत्र -वियोग जैसा दुःख इस धरा पर दूसरा कोई नहीं ।कितना ही बड़ा सार्थक प्रयास क्यों न हो उस स्थान की पूर्ति सम्भव नहीं ।फिर भी ज्यादा शोकाकुल होना आप जैसे महापुरुष की गरिमा के अनुकूल नहीं ।आप तो वह कार्य करने में सक्षम हैं जिससे एक क्या हजारों पुत्र पैदा हो सकते है ,जो देश और जाति की सेवा कर सदियों तक आपके नाम को अमर कर सकते है ।"राजर्षि में जैसे चेतना लौट आयी ,उनमें सोया हुआ महापुरुष जाग उठा ,उन्होंने महारानी साहिबा को बुला कर बाबू प्रसिद्ध नारायण  के शब्दों को अक्षरशः दोहराया,"अब में बही कार्य करूँगा जिससे मेरे एक नहीं हजारों पुत्र पैदा हों ,जो देश और क्षत्रिय जाति की सेवा करें ।"

हिवेट क्षत्रिय हाई स्कूल की स्थापना----

सन 1908 में राजर्षि ने साढे दस लाख रूपये का अमर दान देकर काशी में एक विद्यालय खोलने का संकल्प लिया ।स्थान के चयन और विद्यालय के स्थापना की जिम्मेदारी बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह ने सम्हाली ।राजर्षि की इच्छा थी कि विद्यालय शहर से दूर हो ।तदनुसार वरूणा पार काशी के पश्चिमोत्तर सीमा पर कुर्ग स्टेट (कर्नाटक)की 50 एकड़ के भू -खण्ड का चुनाव कियागया ।इसके लिए राजर्षि ने संयुक्तप्रान्त के गवर्नर सर जान हिवेट को पत्र लिखा ।बाबू साहिब ने भी जान हिवेट से अपनी मित्रता का उपयोग कियाऔर उस भू -खण्ड को सांकेतिक मूल्य पर "क्षत्रिया खैरात सोसाइटी "के पक्ष में अधिग्रहीत कराया।बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह की देख -रेख में 25 नवम्बर 1909 को तत्कालीन गवर्नर सर जान हिवेट ने विद्यालय का शिलान्यास किया ।बाबू साहिब ने नींव पूजन का संकल्प लिया ।सात नदियों के जल से भूमि का शोधन किया गया ।गर्वरनर के नाम पर विद्यालय का नाम "हिवेट क्षत्रिय हाई स्कूल "पड़ा ।बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी को प्रबंध सिमित का अध्यक्ष बनाया गया ।

बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी चाहते थे वाराणसी में सेंट्रल क्षत्रिय कॉलेज स्थापित करना ----
     अपनी इस आकांक्षा की पूर्ति हेतु बाबु साहिब 1917 में "क्षत्रिय उपकारिणी महासभा कालेज -बनारस का प्रस्ताव लेकर एक बार पुनः कर्मभूमि में उतर पड़े ।प्रस्तावित कॉलेज की स्थापना और संचालन केलिए क्षत्रिय उपकारिणी महासभा की प्रतिनिधि सभा द्वारा निर्वाचित 25 सदस्यों से एक प्रोविजनल बोर्ड ऑफ ट्रास्ट्रीज का गठन किया गया ।इस ट्रस्ट के सचिव कुरीसुडौली के राजा सर रामपाल सिंह जी तथा अध्यक्ष जम्बू और कश्मीर के महाराजा प्रताप सिंह जी थे ।परंतु बाबु साहिब का ये पवित्र प्रयास भी पुनः असफल रहा ।अब तो भिनगा नरेश और अवगढ़नारेश का भी साथ और संरक्षण भी नही था ।इस योजना हेतु 6 लाख रुपया एकत्र किया गया था ।योजना के असफल होने पर इस धन का उपयोग कुछ मेघावी क्षत्रिय विद्यार्थियों को अध्ययन हेतु छात्रवर्ती देने /विदेश भेजने में किया ।ऐसे विद्यार्थीयों में डा0 रामकरन सिंह जी ,भूतपूर्व प्राचार्य राजा बलवंत सिंह कॉलेज आगरा प्रमुख थे ।
     इसके अलावा बाबु प्रसिद्ध नारायण सिंह जी 29 दिसंबर 1925 को बनारस डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के प्रथम निर्वाचित चेयरमैन हुए ।आप के कुशल नेतृत्व में बोर्ड का जो जन कल्याणकारी स्वरूप उभर कर सामने आया उसकी भारत के वायसराय और गवर्नर जनरल लॉर्ड इर्विन ने भी सराहना की थी ।
     गांधी जी द्वारा प्रेरित सभी आंदोलनों को बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंघजी ने पूर्वांचल में अत्यंत सफलता से संचालित किया ।आप उन विरले जमींदारों में से थे जो स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय थे ।
     मैं ऐसे महान सामाजिक ,देशभक्त और उच्च विचारक व्यक्तित्व को सादर सत सत नमन करता हूँ ।आशा करता हूँ कि हमारे समाज के बुद्धिजीवी महानुभाव और भामाशाह उनके जीवन परिचय से अनुग्रहित होकर कुछ समाज सेवा में योगदान देने की अवश्य शिक्षा लेगें ।
     लेखक आभारी है बड़े भाई साहिब प्रोफेसर विनोद कुमार सिंह जी ,कृषि अर्थशास्त्र विभाग ,उदय प्रताप ऑटोनोमस कॉलेज वनारस ,जिनकी मदद एवं प्रोत्साहन से मैने इस महान व्यक्तित्व का समाज के शैक्षिक उन्नयन में योगदान का वर्णन किया ।मैं पुनः उनका ससम्मान आभार व् धन्यवाद व्यक्त करता हूँ वे मुझे हमेशा प्रोत्साहित एवं मार्गदर्शन देते रहते है ।जयहिंद ।जय राजपुताना ।।

लेखक --डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव -लढोता ,सासनी ,जिला हाथरस उत्तरप्रदेश ।
मिडिया एडवाइजर नार्थ इंडिया
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा 
(अध्यक्ष ,।महाराजा दिग्विजय सिंह जी वांकानेर)

Sunday, 9 April 2017


एक ऐतिहासिक परिचय क्षत्रिय महासभा तदर्थनाम अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा स्थापना दिवस ------

A Historical Introducton of Akhil Bhartiya Kshatriya Mahasabha Formelly called Kshatriya Mahasabha Founded by Raja Balwant Singh ji Awagarh with Co-ordination of Rajrshi  Raja Udai Pratap Singh  ji Bisen ,Bhinga and Thakur Umrao Singh ji Kotla .
स्थापना --1857 "राम दल ", 1861 "क्षत्रिय हितकारणी महासभा" 19अक्टूबर 1897 ,लखनऊ ,पंजीकरण 180/1530/1897/2150 /86 /661 /96 /75 /01
संक्षिप्त उदभव इतिहास
 1857 के स्वतंत्रता के इतिहास का अहम् योगदान  था क्षत्रिय सभा के निर्माण में  ---
अंग्रेजी शासन काल में ,प्रथम स्वतंत्रता संग्राम अंग्रेजों द्वारा क्षत्रियों के विरुद्ध अपनाई गई कलुषित नीति के विरुद्ध विदेशी दासता से मुक्ति पाने के लिए एक खुली अघोषित क्रांति थी जिसका प्रमुख केंद्र बिंदु उत्तर भारत था ।शुरुआत में इसके सूत्रपात्र के दो मुख्य श्रोत  "सैनिक क्रांति "और "जन क्रांति "थे ।इसके सूत्रपात्र का जिम्मा शुरुआती दौर में उत्तरप्रदेश ,बिहार ,मध्यप्रदेश ,दिल्ली ,पंजाब (वर्तमान हरियाणा )तथा आँध्रप्रदेश के उत्पीड़ित क्षत्रिय शासकों एवं मुस्लिम नबाबों ने उठाया था ।यह क्षत्रिय -मुस्लिम एकता का अदभुत संगम था ।सयुक्त प्रान्त , आगरा एवं अवध में , अवध की वेगमों ,बनारस के राजा चेत सिंह की फांसी ,रुहेलखण्ड के क्षत्रिय सरदारों के प्रति ईस्ट इंडिया कंपनी की उपेक्षा पूर्ण नीति और दिल्ली के अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह जफ़र के दो बेटों को दिल्ली में बीच मार्ग पर खड़ा करके गोली मारने की घटना ने आग में घी डालने का काम किया ,साथ ही क्षत्रिय राजाओं को गोद लेने की प्रथा को समाप्त करने की लार्ड डलहौजी की घोषणा ने भी भीषण जनक्रांति को जन्म दिया ।
 परिणामस्वरूप मुग़ल शासक बहादुरशाह जफ़र के झंडे के नेतृत्व में बेगम हजरत महल ,झांसी की रानी लक्ष्मीबाई , बाजीराव पेशवा ,अवध के राजा बेनी माधव सिंह ,उन्नाव के राव रामबक्श सिंह बैस ,बाबू कुंवर वीरसिंह पंवार जगदीशपुर ,दरियाव सिंह खागा ,राजा नरपति सिंह हरदोई ,शिवरतन सिंह हिस्था सेमरी बिहार ,गालब सिंह अलुरी ,सीताराम राजू आंध्र प्रदेश तथा रानी निड़ाल नागालैंड आदि ने क्रांति कर लाखों क्रांतिकारियों के साथ क्रांति की ज्वाला को प्रज्जवलित कर दिया ।
   इसी समय गोंडा के राजा देवी बख्श सिंह बिसेन ,कालाकांकर के राजा हनुमंत सिंह ,प्रताप सिंह ,माधोसिंह ,अवध के राजा बैनी माधव सिंह ,दरियाव सिंह ,बाबूसहलन सिंह ,जोधराज सिंह खीरी आदि राजाओं ने अवध की वेगम हजरत महल के योगदान से कालाकांकर के गंगा पुलिन पर "राम दल "का 16मई 1857ई0 में गठन किया जिसका प्रतीक चिन्ह "श्री राम "के चिन्ह के साथ लाल कमल का फूल था और जिसके प्रचार तंत्र में योगी एवं साधुमहात्मा भी घर- घर जाकर क्रांति का प्रचार -प्रसार कर रहे थे ।अंग्रेजी हुकूमत में अवध के जो सरदार लगान नही देपारहे थे उनकी जमीन जप्त कर लीगयी और उनको उनके अधिकारों से वेदखल कर दिया गया ।इस कठोर नीति ने जनक्रांति को वीभत्स रूप प्रदान किया ।इसी समय अंग्रेजों के द्वारा प्रदत्त बंदूकों की गोलियों से गाय और सूअर की चरबियों के लगाने से हिन्दू और मुस्लिम सैनिकों में धार्मिक उन्माद ने क्रांति के रूप में जन्म ले लिया ।क्रांति के लिए निर्धारित तिथि 31 मई0 1857ई0 थी पर इसके पूर्व ही 26फरवरी 1857 ई0 को सैनिक छावनी बहरामपुर में विद्रोह हुआ लेकिन उसे दवा दिया गया ।31 मार्च 1857ई0 में मंगल पांडे ने विद्रोह कर दिया और विद्रोह की ज्वाला भड़क गयी ।बैसवाडा क्षेत्र उस समय ब्रिटिश फ़ौज की छावनी थी ,जहाँ 40000 हजारसे अधिक क्षत्रिय सरदार सेना में सैनिक थे ।करीव तीस हजार पेंशन पारहे थे इनको युद्ध का अनुभव था ।वे सभी राजाओं की क्रांति सेना में भर्ती होगये ।नवाब रुहेलखण्ड की सेना में पिचहत्तर हजार  बैस राजपूत सैनिक ,बैस वाड़ा के राजा बेनी माधव की सेना में 35 हजार सैनिक थे  ।बैस वाङा केहर परिवार से हर एक व्यक्ति उनकी सेना का अंग था ।बिहार के कुंवर वीर सिंह की सेना में 65 हजार  विद्रोही सैनिक शामिल थे  ।
 यह एक महान क्रांति का समय था ।अंग्रेज गरीब भारतीयों को धन के लालच से ईसाई बना रहे थे ।इसी समय कुछ क्षत्रिय राजाओं और नवाबों के अत्याचारों से पीड़ित थे वे परोक्ष रूप से अंग्रेजों से मिले रहे ,जिससे उनको सामाजिक उपेक्षा का शिकार तो होना ही पड़ा ,पर इसे क्षत्रियो को लामबन्द करके इस बलि बेदी पर एक सूत्र में बाँधने की आवश्यकता का अनुभव हुआ  ।कालाकांकर प्रतापगढ़ के राजा हनुमंत सिंह के नेतृत्व में गंगा -जमुना क्रांति के प्रवाह में "राम दल "नाम के संघ ने गोपनीय तरीके से क्लब के रूपमें क्षत्रिय महासभा के सूत्रपात्र को जन्म दिया और क्षत्रियों ने "राम दल " को विघटित कर उसके स्थान पर 1860 ई0 में "क्षत्रिय हितकारणी सभा का गठन किया पर यह राजाओं ,राजदरवारियों और उनके सहयोगियों का संगठन आम बन कर रह गया जिसका कार्य क्षेत्र उत्तरप्रदेश (प्रतापगढ़ ,गोरखपुर ,आजमगढ़ ,बलिया ,रायबरेली ,उन्नाव ,आगरा ,मथुरा ,हरदोई ,मैनपुरी ,गोंडा ),मध्यप्रदेश ,राजस्थान ,गुजरात ,बंगाल ,जम्बू कश्मीर ,पंजाब (वर्तमान हरियाणा )तक ही सीमित था जिसके सरपरस्त अंग्रेजों के शुभचिंतक थे इस कारण इससे क्रांति कारियों के परिवारों ने प्रायः दूरी बना कर रखी गई ।कालाकांकर जन्मी क्षत्रिय  हितकारणी सभा  ने कालान्तर में आगरा और अवध के नाम को परिवर्तित कर संयुक्त प्रान्त आगरा और अवध के नाम से पंजीकृत किया ।
   अवागढ़ ,एटा के राजा बलवंत सिंह  के नेतृत्व में तत्काल समिति के प्रतिनिधि ठाकुर उमराव सिंह कोटला , राजर्षि राजा उदयप्रताप सिंह बिसेन ,भिंगा ,राजा खडग बहादुर सिंह ,मझोली ,बिहार ,श्री रामदीन सिंह ,तथा राजा मल्ल एवं अन्य क्षत्रियों ने "क्षत्रिय हितकारणी सभा "को बदल कर इसका पुनः नामकरण "क्षत्रिय महासभा "रखा गया ।
 इसी समय में संयुक्त प्रान्त आगरा और अवध के प्रदेश 19 अक्टूबर 1897 ई0 में भारतीय सोसाइटी अधिनियम के तहत राजधानी लखनऊ (लक्ष्मणपुर )अवध में सभा का पंजीकरण हुआ ।राजा बलवंत सिंह ,अवागढ़ ,एटा को संयुक्त प्रान्त  आगरा एवं अवध को जनक (Founder )के रूप में  अध्यक्ष निर्वाचित कर इसका पंजीकरण  पंजीकृत कार्यालय 224 महात्मा गांधी मार्ग ,लखनऊ कैंट ,उत्तरप्रदेश तथा प्रधान कार्यालय मथुरा ,संयुक्त प्रान्त आगरा एवं अवध में रखा गया ।
  कालान्तर में 09 -11 -1986ई0 में महाराजा लक्ष्मण सिंह डूंगरपुर के अध्यक्ष एवं श्री कोक सिंह भदौरिया ,राष्ट्रीय महामंत्री के समय में "क्षत्रिय महासभा " यह सभा भारत में "अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा "के रूप में सम्बोधित होगी ,के नाम से पुनरावृत्ति की गयी ।

तुम हमको यूँ ही भुला न पाओगे

देश जब अंग्रेजों की गुलामी की जंजीर में जकड़ा हुआ था उस समय आम राजपूत की आर्थिक एवं शैक्षनिक स्थित बहुत ही दयनीय थी । एक तरफ सामाजिक संगठन का आभाव  व् दूसरी तरफ अशिक्षा ने समाज की उन्नति को खोखला कर रखा था । अधिकांश बड़े बड़े राजा व् महाराजा अंग्रेजों के कठपुतली बन चुके थे ।सामाजिक चेतना की जागृति करने का तो किसी ने सोचा भी नही था ।जादातर राजवाड़े अपनी सुख -सुविधाओं को बनाये रखने के लिए ही अंग्रेजों के आधीन थे ।उन्हें समाज के उत्थान से कोई लेना -देना भी नही था । देशके कुछ गिने -चुने छोटे राजाओं और जागीरदारों के मन में यह विचार आया कि क्षत्रिय समाज का कैसे उत्थान सम्भव है क्यों कि परिस्थितियां उस समय बहुत प्रतिकूल थी । कुछ जागीरदार एवं शिक्षित राजपूतो ने विचार कर समाज के शैक्षणिक विकास व् सामाजिक उत्थान के लिए संगठन बनाने का मंथन और चिंतन किया जिसमें राजा बलवंत सिंह अवागढ़ ,राजर्षि राजा उदयप्रताप सिंह बिसेन ,ठाकुर उमराव सिंह ,राजा प्रताप सिंह जी जम्बू कश्मीर ने प्रचार प्रसार करके क्षत्रियों में शिक्षा व् सामाजिक उत्थान के लिए जागृति के लिए अभियान चलाया ।
     ये हमारे लिए बड़े हर्ष एवँ स्वाभिमान का विषय है क़ि ये उन तीनों महापुरुषो के द्वारा बनाया गया क्षत्रियों का संगठन " क्षत्रिय महासभा" तदर्थ नाम "अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा "  आज इतना बड़ा बट वृक्ष का रूप ले चुका है कि देश के सभी प्रान्तों  के जिलों में विद्यमान है और राजपूत हितों के लिए कार्य कर रहा है ।कितनी उच्च कोटि की सोच थी ये राजपूत समाज के  विकास के लिए उन महान व्यकित्व की ।केवल सोच ही नही थी इन तीनो राजपूत राजाओं  ने समाज के सामाजिक विकास के अलावा शैक्षणिक विकास के लियेअपना महान योगदान भी दिया  जिस आज हमारा समाज राजा बलवंत सिंह महाविद्यालय आगराऔर उदयप्रताप कॉलेज वनारस के रूप में  देखते भी है और उसका हमने लाभ भी लिया जिसके लिए हम उनके हमेशा ऋणी भी रहेंगे। अधिकांश देश के पुराने शिक्षित राजपूत इन्हीं दोनों कॉलेज के पढे हुये है  ।इन महाविद्यालयों का राजपूतों के शैक्षणिक विकास में आज भी बहुत बड़ा योगदान है और हर राजपूत विद्यार्थी बड़े गर्व से फक्र महसूस करते हुए कहता है कि मैं बलवंत राजपूत कॉलेज आगरा या राजा बलवंत सिंह कॉलेज आगरा और उदय प्रताप कॉलेज वनारस का शिक्षित व् संस्कारी क्षात्र हूँ ।सौभाग्य से मैं भी आर0 बी0 एस0 कॉलेज आगरा का छात्र रहा । आज हमारे समाज में केवल ये ही सोच है कि "मैं और मेरा परिवार "।
     अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा की प्रथम सभा आगरा में ठाकुर उमराव सिंह जी और उनके छोटे भाई नौ निहाल सिंह जी की कोठी "बाघ फरजाना "जिसको बाद में राजपूत बोर्डिंग हाउस का नाम दिया गया उसमें संपन्न हुई थी ।
    20जनवरी 1898को राजा बलवंत सिंह जी और उनके दोनों सहयोगी राजा उदय प्रताप सिंह जी भिंगा और कोटिला के राजा उमराव सिंह ने बनारस के बाबू सांवल सिंह जी की अध्यक्षता में प्रस्ताव पारित करके क्षत्रिय समाज में एकता और जागृती लाने के उदेश्य से एक समाचार पत्र जिसका नाम "राजपूत मासिक "दिया गया प्रकाशित कर वाया गया जिसके माध्यम से देश के विभिन्न भागों में फैले हुए समस्त क्षत्रिय समाज में उनकी सामाजिक ,शैक्षणिक विकास एवं समस्याओं के निराकरण के जनसम्पर्क और नुक्कड़ सभाएं शुरू हुई ।
  इस अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा संगठन का निर्माण करके इन तीनों महापुरुषोंने समाज में एकता लाने के महत्व को समझाया और इसके साथ साथ राजपूत समाज के  शैक्षणिक विकास में अपना सब कुछ न्योछावर करके महान योगदान का परिचय करके भी दिखाया जिसे समाज आज भी प्रत्यक्ष रूप में आगरा और वनारस में देख सकता है जो बहुत बड़े राजा और महाराजाओं ने भी समाज के लिए नही किया ।इन्होंने समाजपीड़ा और परिस्थिती को गंभीरता से समझा और समाज के विकास के लिए सार्थक प्रयास किये ।यही उच्च कोटि की समाज के विकास के प्रति देश के सभी राजा और महाराजाओं की होती तो शायद आज राजपूतों के विकास की तस्वीर ही कुछ और होती ।
   इसके बाद महाराजा प्रताप सिंह जी जम्बू एंड कश्मीर ने लाहौर से "राजपूत गजट"नामक उर्दू समाचार पत्र प्रकाशित किया जिसको ठाकुर शुखराम दास चौहान ने एडिट किया था ।इन समाचार पत्रों के माध्यम से अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा ने दूसरे क्षत्रिय संगठनो के सहयोग से देश में जिले और तालुका स्तर पर सभाओं की सूचनाओं के द्वारा समाज में एकता और जागृति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया ।

  Great Contribution of these three Great personalities in Educational Development of Kshatriyas /Rajputs .
  
1--राजा बलवंत सिंह जी अवागढ़ का राजपूतों के शैक्षणिक विकास में महान योगदान ---
       राजा बलवंत सिंह जी अधिक पढे लिखे नही थे ।इस पीड़ा से उनके ह्रदय में राजपूतों के शैक्षणिक विकासकी भावना का दर्द जाग्रत हुआ और इसके लिए उन्होंने साक्षरता के प्रसार की ओर दूरगामी दृष्टि डाली ।सन् 1885स्वर्गीय पंडित मदन मोहन मालवीय जी और कोटिला के राजा उमराव सिंह जी के परामर्श से राजा साहिब ने राजपूत बोर्डिंग हाउस को राजपूत हाई स्कूल में अपग्रेड करवाया जिसके लिए राजा साहिब ने 150000 रूपये ,भवन और 50 एकड़ जमीन दान दी ।जो बाद में 1928 में इंटर मीडिएट कॉलेज में क्रमोन्नत हुआ और जिसका नाम बलवंत राजपूत कॉलेज किया गया ।सन् 1940 में ये डिग्री कॉलेज बनगया जिसके विकास में अवागढ़ राजपरिवार का महत्वपूर्ण योगदान रहा जो आज दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा कॉलेज है जिसके पास लगभग 1000 एकड़ कृषि फ़ार्म है ।राजा साहिब ने स्वर्गीय रवीन्द्रनाथ टैगौर को भी शांतिनिकेतन के निर्माण में आर्थिक मदद की थी ।

Contribution of Raja Udai Pratap Singh Ji of Bhinga in Educational Development of Rajput Community.

     राजा उदय प्रताप सिंह जी भिंगा राजपरिवार का भी राजपूतों के सामाजिक विकास के अतरिक्त शैक्षणिक विकास मेंभी महत्वपूर्ण व् सराहनीय योगदान रहा था ।वे स्वयं भी बहुत शिक्षित थे ।राजपूतों के शैक्षणिक विकास में उनके योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा ।उन्होंने वाराणसी में सन् 1909 में हेवेत्त क्षत्रिय हाई स्कूल की स्थापना की जिसके लिए 100000 0रूपये दान दिए जो 1921 में इंटरमीडिएट कॉलेज में अपग्रेड हुआ जो बाद मेंउदय प्रताप इंटरमीडिएट कॉलेज के नाम से जाना गया ।बाद में 1949में डिग्री कॉलेज में अपग्रेड हुआ और जिसका नाम उदय प्रताप  ऑटोनोमस कॉलेज हुआ ।राजा उदय प्रताप सिंह जी ने क्षत्रिय उपकर्णी महासभा की स्थापना की जिसके लिए भींगा राज क्षत्रियों के लिए 35000रूपये दान दिए ।इसके अलावा वे हर साल क्षत्रिय ग्रेजुएट को ऑक्सफ़ोर्ड और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में शिक्षा पाने के लिए11000रूपये क्षात्रवृति के रूप में देते थे ।
   राजा साहिब स्वर्गीय पंडित मदन मोहन मालवीय जी की विचाधारा के अनुयायी थे ।उन्होंने उदय प्रताप कॉलेज के आलावा कई दूसरी संस्थाओं  को आर्थिक सहायता प्रदान की ।राजा साहिब ने वाराणसी के कमच्छा में उर्फन्स होम ,भिनगा राज अनाथालय एस्टेब्लिशद किये जिसके लिए 123000रूपये खर्चे के लिए दान दिए ।उन्होंने लाखों रूपये दूसरे सामाजिक संगठनो को दान दिए जिनमें के0 जी0 मेडिकल कॉलेज लखनऊ ,कैल्विन तालुकुदार कॉलेज लखनऊ ,मूलघंध कुतिविहार ,सारनाथ ,हिंदी प्रचारिणी सभा  सम्लित है ।उन्होंने राजपूत छात्रों के लिए कई छात्रवृति के रूप में फण्ड दिए जिसके लिए वे हमेशा याद किये जाएंगे ।
   
   Contribution of Raja Umrao Singh ji of Kotila Rajpriwar in Rajput Educational Development . 

     ये कोटिला जादौन राजपूतों की बहुत पुरानी रियासत है जो संवत 1225 के लगभग बनी थी।इस रियासत के पूर्वज संवत 1100 में बयाना से माइग्रेट होकर जलेसर आकर बसे थे ।पहले ये रियासत उमारगढ़ कोटिला के नाम से आगरा जिले के अंतर्गत आती थी जो आज फिरोजावाद जिले में है ।
राजपूतों के शैक्षणिक विकास में कोटिला के राजा उमराव सिंह जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा था ।कोटिला राजपरिवार के लोग उस समय शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी थे ।वे शिक्षा की महत्ता को समझते थे ।इस लिए उनकी सोच राजपूतों की शिक्षा के लिए दूरगामी भी थी ।उनकी जयपुर राजपरिवार से भी नजदीकी रिलेशन था ।राजा मान सिंह जी दुतीय जो ईसरदा ठिकाने से जयपुर की गद्दी पर बिराजे थे उनकी ननिहाल कोटिला जादौन राजपरिवार में उमराव सिंह जी के यहाँ थी ।सन् 1878में एक शिक्षण संस्था की स्थापना का प्रयत्न कुछ विचारशील व्यक्तिओं के द्वारा एक काल्पनिक योजना को मूर्तरूप देने का प्रयास किया गया था ।उस समय आगरा ही शिक्षा का इस क्षेत्र में बड़ा विकसित शहर था ।कोटिला के राजा उमराव सिंह जी और उनके छोटे भाई नौ निहाल सिंह जी के निजी निवास स्थान के आउट हाउस में केवल 20 राजपूत छात्रों को रहने व् पढ़ने के लिए एक बोर्डिंग हाउस खोल गया ।उनकी ये कोठी बाग़ फरजाना नाम से आगरा में मशहूर थी ।उसमे एक वार्डन व् एक ट्यूटर भी रखा गया ।इस संस्था को आगे सुचारू रूप से संचालन के लिए दूसरे प्रमुख जादौन राजपूत जमींदारों का भी सहयोग लिया गया जिनमें मुख्य रूप से राजा बलदेव सिंह जी अवागढ़ ,राजा लक्षमण सिंह जी बजीर पूरा जिला आगरा ,ठाकुर लेखराज सिंह जी गभाना रियासत ,अलीगढ ,ठाकुर कल्याण सिंह जी ठिकाना जलालपुर ,अलीगढ थे ।
   इसके बाद समाज के कुछ बुद्धिजीविओं के मन में विचार आया कि इस बोर्डिंग हाउस से काम नही चलने बाला ।सन् 1905 में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा का इसी राजपूत बोर्डिंग हाउस में 9वां अधिवेशन हुआ जिसमे आगरा में एक सेंट्रल राजपूत कॉलेज खोलने का प्रस्ताव रखा गया लेकिन किन्ही कारणों से पूर्ण न होसका ।इसके बाद फिर सन् 1910में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा का 14 वां अधिवेशन महाराजा जम्बू &कश्मीर  H .H .Major General Sir Prtap Singh ji की अध्यक्षता में हुई जिसमें केंद्रीय राजपूत कॉलेज आगरा में खोलने का प्रस्ताव पुनः पारित किया गया लेकिन इलाहावाद यूनिवर्सिटी ने इस प्रस्ताव को मान्यता देने से इनकार कर दिया ।उस समय आगरा अंग्रेजी शिक्षा के लिए उपर्युक्त शहर था ।इसके बाद अवागढ़ राजपरिवार ने राजपूतों की शिक्षा के लिए सराहनीय योगदान दिया
    इसके बाद शुरू हुआ देश के अन्य राजपूत शासकों के द्वारा अन्य प्रांतों में राजपूतों के लिए राजपूत बोर्डिंग हाउस और स्कूल खोलने प्रचलन जिसमें ईडर के राजा प्रताप सिंह जी ने जोधपुर में चौपान्सी स्कूल खोला ।इसके बाद राजकोट ,अजमेर ,लाहौर ,रायपुर और इंदौर शहरों में राजपूतों की शिक्षा के लिए स्कूल आरम्भ हुये जिससे समाज में शिक्षा का काफी स्तर ऊंचा हुआ ।
    अंत मैं अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा की सभी इकाइयों से विनम्र आग्रह करता हूँ कि वे 19 अक्टूबर को हर वर्ष इस संगठन के स्थापना दिवस के रूप में मनायें तो हमारे समाज के युवाओं में जागृति का संचार होगा और इस अवसर पर हम इन तीनो महान पुन्य आत्माओं के समाज के विकास में योगदान को श्र्द्धा सुमन अर्पित करके स्मरण करें । लेकिन मुझे बड़े अफशोस के साथ ये भी लिखना पड़ रहा है कि में आज कल अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभाओं के वैनरो को भी फेसबुक के माध्यम से देख रहा हूँ कि जिस पर संगठन के पदाधिकारी लोग केवल अपने फ़ोटो व् नाम लिखा कर अपना प्रचार  प्रसार कर रहे है कोई सामाजिक जनचेतना किसी भी क्षेत्र में दिखाई नही देरही ।और तो क्या कहूँ संगठन के संस्थापक का फ़ोटो व् नाम भी संगठन के बैनर पर लिखना मुनासिब नही समझते हमारे समाज के बुद्धिजीवी पदाधिकारी लोग ।तो कैसे समझूँ कि ये संगठन इतने बड़े राजपूत समाज को कोई नई सकारात्मक दिशा दे पयेगा जिसमे अपने ही महापुरुषों को याद नहीं किया जाता है ।मैं,आज इस संगठन के 120 वें स्थापना दिवस के शुभ अवसर पर इन तीनो महान आत्माओं को सत् सत् नमन करता हुआ श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ तथा अपनी आज की इस पोस्ट को इन तीनों महापुरुषों को समर्पित करता हूँ ।जय हिन्द ।जय राजपूताना ।।
1 -राजा बलवंत सिंह जी, अवागढ़ ,जादौन रियासत एटा
2-राजा उदय प्रताप सिंह जी बिसेन भिनगा रियासत
3-राजा उमराव सिंह जी कोटिला जादौन रियासत

   लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन ,
   गांव -लाढोता ,सासनी ,जिला -हाथरस ,उत्तरप्रदेश 
   मिडिया एडवाइजर नार्थ इंडिया
   अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा 
   (अध्यक्ष ,महाराजा डा0 दिग्विजय सिंह जी वांकानेर)



Friday, 7 April 2017

बाह ये कैसी वीरांगना क्षत्राणी।हे हिन्द के हिंदुस्तानी।।ऐसी नहीं देखी कुर्वानी।।चुण्डावत मांगी सैनानी।सिर काट भेज दिया क्षत्राणी।।
        मेवाड़ के राणा राज सिंह की ओर से औरंगजेब की सेना से टक्कर लेने के लिए बीड़ा उठाया सलुम्बर के रावत रतन सिंह चूड़ावत ने जो युवा होने के साथ ही वीर साहसी लड़ाकू और युद्ध कौशल में पारंगत होने के साथ ही बलिष्ठ और द्रण निश्चस्यी युवक था।तभी रतन सिंह की बूंदी के हाड़ा राजपूत घराने से शादी हुई थी।एक ओर युद्ध का बिगुल बज रहा था और दूसरी ओर युवा एवम सुन्दर रानी का चेहरा चूड़ावत सरदार के मन मंदिर में खलबली मचाये हुए था।उनकी शादी को कुछ ही दिन हुए थे,कुछ माह भी नही बीते थे ,रानी के हाथों की मेंहदी भी नही सुखी थी और चूड़ावत को मातृभूमि ने याद कर लिया था ,हे ईश्वर ये कैसी परीक्षा कीघड़ी एक ओर जीवन का सुख -सागर हिलौरे ले रहा था दूसरी ओर मौत का आलिंगन निमंत्रण दे रहा था क्या करे और क्या न करे निरयण करना मुश्किल था।आखिर जीत राजपूती संस्कारों की ही हुई और चूड़ावत सरदार युद्ध में जाने को तैयार हुआ सेना सजी और कूच का आदेश हुआ।राजपूती परम्परा के अनुसार हाड़ी रानी ने माथे पर विजयी तिलक लगा कर विदा किया और खुद सेना को जाते देखने के लिए महल के गोखडे में बैठ गई। चूड़ावत का मन कुछ बिचलित था।रानी ने दूत भेज कर पुछबाया क़ि "युद्ध में जाने के समय यह हिचकिचाहट कैसी है " सरदार ने दूत से कहा क़ि रानी से कहना क़ि उनको प्रेम निशानी चाहिए तो रानी समझ गई क़ि "चूड़ावत का मन डगमगा रहा है और इस स्थित में ये युद्ध भूमि में गए तो इनकी वीरता,और साहसशायद साथ न दे और कोई अनहोनी भी हो सकती है ।राजकुमार का मन रानी के रूप सौंदर्य और प्रेम में उलझ गया है।क्षत्राणी ने कुछ पल सोचा और एक ऐसा अदभुत निर्णय लिया जो आज से पूर्व इतिहास में न तो किसी ने लिया था और न उसके बाद भी ऐसी मिसाल आज तक कायम हो सकी ।अपनी दासी को भेज कर एक थाल मगाया उसे सब कुछ समझाया और तलवार के एक वार से अपना सिर काटकर अलग कर दिया।दासी ने उसेकहे अनुसार खुले बाल का कटा सिर थाल में सजाकर चूड़ावत सरदार के सामने उपस्थित हो गई सरदार प्रेम निशानी को देख कर विस्मय और आश्चर्य में रह गया।इससे चुण्डावत के मन में तांडव का भूचाल उमड़ आया ,बड़े प्यार और आदर से उस रक्त रंजित कटे सिर को उठाया और खुले बालों वाले उस सिर को अपने गले में लटका लिया जोरदार हुंकार भरी और घोड़े को ऐडलगायी और उग्र रूप धारण करके चुण्डावत की उस सेना ने युद्ध भूमि में पहुँचने से पहले पीछे मुड़कर नही देखा।पूर्व योजना के अनुसार इस सेना ने औरंगजेव की सेना को रोके रखा और उधर महाराणा राज सिंह किशनगढ़ की राजकुमारी को ब्याह कर मेवाड़ पहुँच गये ।चुण्डावत सरदारने मुग़ल सेना में ऐसी तबाही मचायी क़ि कई मुग़ल सैनिक उनकारौद्र रूप देख कर आश्चर्य चकित रह गये।रानी के बलिदान केबाद तो सरदार को सर्वस्व बलिदान करना ही था और वैसा ही हुआ सलूम्बर के इस वीर युवा योद्धा ने युद्ध में वीरगति पाई।कहते है क़ि एक पत्नी के दुआरा अपने पति को उसका फर्जयाद दिलाने के लिए किया गया ,इतिहास में सबसे बड़ा बलिदान है।यह रानी कोई और नही थी,बल्कि बूंदी के हाड़ा शासक की बेटी और उदयपुर(मेवाड़ )के सलुमवर ठिकाने के रावत चूड़ावत की रानी थी जो इतिहास में यह हाड़ी रानी के नाम से प्रसिद्ध है।मैं दोनों के बलिदान को सत् सत् नमन करता हूँ।जब तक धरती रहेगी ,इतिहास पढ़आ जायगा तब -तब हाड़ी रानीका बलिदान अवश्य याद किया जायगा।धन्य है क्षत्रिय बाला ,धन्य है क्षत्रिय जाति ,धन्य है उनका कर्तव्य पथ और धन्य है उनका मातृ भूमि के प्रति प्रेम और आदर।जय हिन्द।जय राजपुताना।डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन गांव लरहोता सासनी जिला हाथरसउत्तरप्रदेश।


1857 की क्रांति के नायक बिहार की शान---बाबू वीर कुँवर सिंह पंवार
   महाभारत युद्ध के बाद बीते हजारों वर्षों में 75 वर्ष की उम्र के बाद किसी वीर ने युद्ध के लिए तलवार उठाई ,ऐसा सिर्फ एक ही उदाहरण है वह है बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर के राजा वीरवर कुँवर सिंह पंवार ।जिन्होंने 80 वर्ष की आयू में अंग्रेजों के विरुद्ध बिगुल बजाकर ,संघर्ष का नेतृत्व कर इतिहास के पन्नों में ऐसा स्वर्णिम पृष्ठ जोड़ा है ,जिसकी तुलना नहीं की जासकती है ।इतिहास के इस महान क्रांति नायक बिहार के शेर कुँवर सिंह जी पँवार ने सिद्ध कर दिया कि "शेर और राजपूत कभी वृद्ध (बूढ़े )नहीं होते "किन्तु ऐसा लगता है कि हर कहावत को चरितार्थ होने सदियों लग जाते है।जिन लोगों ने कहावतों को चरितार्थ कियाहै ,उन्हें अंगुलियों पर गिना जा सकता है ।
  बाबू वीर कुंवर सिंह (1777-1858)विदेशी शासन के खिलाफ लोगों द्वारा छेड़े गए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम  (1857-58)के नायकों में से एक थे ।1857के विद्रोह। के दौरान इस देदीप्यमान व्यक्ति ने ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों से डट कर मुकावला किया ।वीर कुंवर सिंह जी जगदीशपुर ,निकट आरा  ,जो वर्तमान में भोजपुर का एक भाग है ,के राजपूत घराने के जमींदार थे ।भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने ब्रिटिश सेना के खिलाफ सशस्त्र बलौ के एक दल का कुशल नेतृत्व किया ।80 वर्षकी व्रद्ध अवस्था के बाबजूद ,उनके नाम ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों में भय उत्पन्न कर देता था ।उन्होंने कई स्थानों परब्रटिश सेना को कड़ी चुनौती दी ।ऐसा लगता था कि कुंवर सिंह के कारण पूरा पश्चिमी बिहार विद्रोह की आग में जल उठेगा और ब्रिटिश नियंत्रण से बाहर हो जायेगा ।वह बिहार के अंतिम शेर थे ।उनकेनेत्रत्व में बिहार के राजपूतों ने अंग्रेजों के विरुद्ध जो सशस्त्र संघर्ष किया वह इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ है ।उनके संघर्ष की दास्तांन ,बिहार के कोने -कोने में गांव -गांव में चर्चित रही है ।किन्तु इसे दुर्भाग्यही कहा जायगा क़ि राजपूतों का अंग्रेजों के विरुद्ध यह संघर्ष देश के कोने -कोने में न जाना जा सका है  ,न पढ़ा जा सका है ।जन साधारण तो बहुत दूर की बात है ,आम राजपूतो को भी कुंवर सिंह पंवार के संघर्ष ,उनके त्याग ,वीरता ,साहस ,शौर्य और बलिदान की कोई विशेष जानकारी नही है ।
   अंग्रेजों के विरुद्ध बिहार में विद्रोह का प्रारम्भ 12जून 1857को हुआ ।25जुलाई ,1857 को दानापुर छावनी में जब अंग्रेज अधिकारियों ने सैनिकों को शस्त्र जमा करा देने का आदेश दिया तो वहां भी विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी ।26 जुलाई को विद्रोही पलटन मुक्ति सेना के रूप में आरा पहुँच गई ।मुक्ति सेना ने उसी क्षेत्र के जगदीशपुर निवासी 80 वर्षीय कुंवर सिंह पंवार को अपना सर्वोच्च नेता स्वीकार किया और प्रधान शासक के रूप में उनका अभिषेक किया ।कुंवर सिंह पंवार छापामार युद्ध के विशेषज्ञ माने गये ।कुछ समय बाद कुंवर सिंह अपनी सेना की एक टुकड़ी के साथ युद्ध का मूल्यांकन करने तथा उसको नया आयाम देने के उदेश्य से 1858के प्रारम्भ में सासाराम ,रोहतास ,मिर्जापुर /रींवा ,बांदा ,कालपी ,कानपूर के प्रमुख विद्रोही नायकों से संपर्क करते हुए मार्च के प्रारम्भ में लखनऊ पहुंचे जहां उनका क्रांतिकारियों ने बड़ा सम्मान किया।अवध के राजा ने उन्हें शाही पोशाक से सम्मानित किया और आजमगढ़ जिले में आने वाले क्षेत्र की जागीर प्रदान की ।मार्च ,1858 में उन्होंने आजमगढ़ को अधिकृत कर लिया ।22मार्च 1858 को कुंवर सिंह जी और उनके साथियों ने अतरौलिया पर बहुत बड़ा आकस्मिक हमला किया और कर्नल मिलमैन के नेतृत्व वाले ब्रिटिश बलों को आजमगढ़ तक वापिस खदेड़ दियाकुंवर सिंह की सेना में 5 से 12 हजार तक सिपाही थे जो उनकी बेजोड़ संगठन श
क्ति के परिचायक थे ।कुंवर सिंह जी द्वारा उस क्षेत्र के घेराव से ब्रिटिश अधिकारीयों को पुरे क्षेत्र की पराजय का भय और अधिक बढ़ गया ।गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग को स्थिति से निपटने के लिए अत्यावश्यक उपाय करने पड़े क्यों कि कुंवर सिंह के साहस व् शौर्य से वे परिचित थे ।ब्रिटिश सेना के नये -नए दस्ते आते रहे ,परन्तु कुंवर सिंह ने उन्हें बार -बार क्रांतिकारियों के नियंत्रण में लड़ाई में रखा ।
   15अप्रैल 1858 को जनरल लुगाई से कुंवर सिंह जी की आजमगढ़ में ही सामना हो गया जिसमें वे अविजित रहे किन्तु अगले ही दिन उन्होंने आरा लौट जाने का कार्यक्रम बना लिया ।वे 18अप्रैल को बलिया के नगरा सिकंदरपुर होते हुए मनिथर आये और वहीँ पड़ाव डाल दिया ।20 अप्रैल को कैप्टेन डगलस ने उनकी सेना पर आक्रमण कर दिया किन्तु कुंवर सिंह जी अपनी सेना को बचाकर शिबपुर घाट पहुंचा देने में सफल होगये ।उन्होंने उसी दिन गंगा पार कर लिया ,किन्तु गंगा नदी पार करते समय अंग्रेजी सेना ने उनकी नाव पर भयंकर गोलिया चलायी जिससे एक गोली कुंवर सिंह जी की बाह में लगी ।ऐसा कहा जाता है कि गोली का शरीर में जहर फैलने की बजह से कुंवर सिंह जी ने अपना एक हाथ स्वयं तलवार से काट कर गंगा को भेंट कर दिया और गंगा पार कर हाथी पर सवार होकर अपने गृह नगर जगदीशपुर पहुँच गये ।23 अप्रैल को अंग्रेज सेना तोपों से सुसज्जित होकर उनका पीछा करते हुए उनके गृह निवास तक पहुँच गई जहाँ उनके छोटे भाई अमर सिंह जी ने अंग्रेजों का बड़े साहस से जोरदार मुकावला किया ।अंग्रेज कमांडर ली ग्रैंड भी मारा गया किन्तु 24 अप्रेक् को घायल कुंवर सिंह जी भी शहीद हो गए ।वे विजेता के रूप में इस भारत भूमि से हमेशा के लिए विदा होगये ।भयंकर लड़ाइयों के बावजूद उन्होंने राजपूतों की शानदार परम्परा को बरकरार रखा।
   उनकी शहादत के साथ ही सन् 1857 के उस अदभूत सैनानी का अंत हो गया जिसका इतिहासकारों ने एक महान सैनिक नेता के रूप में मूलयांकन किया है ।ओजस्वी व्यक्तित्व तथा छापामार युद्ध में अपनी अदभुत प्रवीणता तथा अनेक सैनिक सफलताओं से विद्रोह के प्रमुख स्तम्भ बन गये थे ।अनेक इतिहासकारों ने स्वीकार किया कि उनमें वीर शिवाजी जैसा तेज था ।वे इतने लोकप्रिय हुए कि भोजपुर जिले का बच्चा -बच्चा उनके बलिदान को  आज तक स्मरण करता है।मैं ऐसे महान स्वतंत्रता सैनानी को सत् -सत् नमन करता हूँऔर आशा करता हूँ कि हमारे समाज की नई पीढ़ी उनके आदर्शों से प्रेरणा लेकर देश व् समाज के उत्थान में सहभागी बनेगी ।।जय हिन्द ।जय राजपूताना ।

लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन ,गांव -लढोता ,सासनी ,जिला -हाथरस ,उत्तरप्रदेश ।

Saturday, 1 April 2017

इन की भी याद करो कुर्वानी ।
जो गढ़मंडल की थी वीरांगना रानी ।।
महान पराक्रमी वीरांगना थी --रानी दुर्गावती
भारतीय परंम्परा में वीरांगनाओं का भीअपनी वीरता और शौर्यता ,आन एवंस्वाभिमान ,त्याग एवं बलिदान का इतिहास रहा है।वे भी अपने शौहरों की भाँति रणभूमि में अपने प्राणों का बलिदान करके इतिहास के पन्नें रंग कर चली गयी ।ऐसी ही महापराक्रमी  वीरांगना थी मध्य प्रदेश के हिन्दू राज्य गोंडवाना के गढ़मंडल के अधिपति दलपतशाह की जीवन -संगिनी  और महोबा के चंदेल वंशीय राजा चन्दनराय की गुणवान और रूपवान पुत्री रानी दुर्गावती। रानी दुर्गावती के पति राजा दलपतशाह का विवाह के 4 वर्ष बाद ही निधन होगया था। रानी के वीरनारायण नाम का एक पुत्र था।रानी ने राज्य की सम्पूर्ण बागडोर अपने हाथों में लेली।इधर अकबर मुग़ल साम्रराज्य के बिस्तार के खुवाब बन रहा था।उसने सन्1564 में गढ़मंडल की अतुलित सम्पति को लूटने के लिए सूबेदार आसफ खान के नेतृत्वमें उस पर चढ़ाई करदी।
दुर्गावती ने खुद दुर्गा मां का रूप धारण करके क्षत्रिय गौरव की याद दिलाते हुए अपने सैनिकों के सम्मुख बिजली की तरह गरजते हुऐ कहा --देश पर तन -मन न्योछावर करने बालेराजपूत वीरो !देशकी आन -बान -शान पर मर मिटने बाले राजपूती शूरो ,केशरीया बाना पहन कर तैयार हो जाओ ,आज हमारी मातृभूमि पर संकट के बादल छाये हुऐ है।जन्मभूमि आज तुम्हे रक्षा के लिए पुकार रही है।उसकी आजादी और सम्मान की रक्षा करना हमारा पुनीत कर्तव्य ही नही हमारा परम धर्म है।तुम दिखा दो क़ि जब तक हमारा एक  भी राजपूत सैनिक ज़िंदा रहेगा ,तब तक इस  वीर वसुंधराहिन्दुस्तानी भूमि को कोई भी मुग़ल गुलाम नहीं बना सकता।दुश्मनों पर कहर बन कर इस तरह टूट पडो क़ि तूफ़ान भी तुम्हारे पराक्रम को देखने के लिए थम जाय।दुश्मनों पर ऐसे बरसो क़ि काले -काले घने मेघों की आँखे फटी की फटी रह जायं ।हे मेरे योद्धाओ तुम्हें अब मातृभूमि के लिए बलिदानी इतिहास रचना है।मैं अपने जीते -जी शत्रु को इस पावन पवित्र धरती पर पाँव न धरने दूंगी ।रानी के मुख से निकले एक -एक शब्द ने राजपूत वीरों के सीनों में जोश ही नहीं बल्कि बारूद भर दिया था।रानी का जयघोष करते हुए राजपूत वीर योद्धा मुगलों की सेना पर दावानल का रूप धारणकर सिंह की तरह टूट पड़े।मुंडों के झुण्ड लगा दिए। मंडेला की पहाड़ी के पास हुए इस युद्ध में आसफ खान की पराजय हुई। वह युद्ध छोड़ कर भाग गया और अपने प्राण बचाने में सफल हुआ।
दूसरी बार अकबर ने फिर रानी के सिंगौर दुर्ग पर आक्रमण के लिए आसफ खान के साथ मजीद खान  को सेना के साथ भेजा।इस बार मुगलों ने रानी के विश्वस्त सरदारों को धन का प्रलोभन देकर रानी की शक्ति का आशाफ खान को भेद मिल गया।रानी की सेना पर आक्रमण किया गया।रानी रणचंडी बनी दुश्मनों का बिनाश कर रही थी किन्तु एक तीर उसकी आँख में जालगा।दूसरा तीर कंठ में आलगा।वह असहनीय दर्द को सह कर भी युद्ध में डटी रही।लड़ते -लड़ते घायल हो गई।विजयश्री की कोई संभावना दिखाई नही देरही थी।ऐसी हालत में रानी ने कमर से कटार निकालकर अपने हाथों से खुद की छाती में कटार घौंप कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली।शत्रु चित्रवत आँखें फाड़कर साहस के इस द्रश्य को हक्के -बक्के होकर देखते रह गये।रानी ने अपना प्रण पूरा कर दिखाया --मैं जीते जी शत्रु को इस धरती पर अधिकार नहीं करने दूंगी।उनका पुत्र भी युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ।इस प्रकार रानी दुर्गावती के राज्य पर अकबर का आधिपत्य हुआ।धर्म ,कुल तथा राजपूती सुवाभिमान एवं  मर्यादा के लिए वह वीरगति को प्राप्त हुई।रानी के बलिदानकी अमर गाथा इतिहास के पन्नों पर सदैव के लिए स्वर्णाक्षरों में अंकित है।
यह राजपूती वीरांगना तो अपना धर्म निभाकर देश एवं राज्य की जनता के लिए बलिदान हो गयी।लेकिन जिनकीरक्षा और सलामती के लिए उन्होंने बलिदान दिया क्या उन्होंने अपना धर्म और फर्ज निभाया ?क्या महोबा की जनता ने और चंदेल राजपूतों ने उनके वंश को गौरव दिलाने बाली इस वीरांगना के बलिदान को कभी याद किया ?सिर्फ पूवर्जों के नाम से मस्तक ऊंचा करके चलना ,पूर्वन्जों के प्रति बिशेष आदर तो नहीं ही दर्शाता है।और तो क्या न किसी राजपूत महासभा ने उनकी जन्म की जयंती मनाई।
हमें दूसरों को देख कर सीख भी लेने की आवस्यकता है और मंथन  और चिंतन करने की जरूरत है।कैसे याद करेंगी रानी दुर्गावती के बलिदान को हमारी आगे आने वाली पीढ़ीयां।जब हम उनके बलिदान को याद करेंगे तो हमारी आगे की पीढ़ीयां भी याद करेंगी ।नही तो सब अतीत बन कर रह जायगा ।जय हिन्द ।जय राजपूताना ।।

लेखक--डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन गांव लढोता , सासनी जिला हाथरस उत्तरप्रदेश ।