1857 की क्रान्ति के महानायक की गौरवमयी जीवनगाथा महाकाव्य के महानायक जैसी ------
(26 अप्रैल बाबु वीर कुंवर सिंह की पुण्यतिथि पर समर्पित)
देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में एक ऐसा भी "सिंह"था ,जिसकी 80 साल की उम्र में भी दहाड़ से अंग्रेजों के छक्के छूट जाते थे ।ये नायक थे बिहार के बाबू कुंवर सिंह ।दुनिया के इतिहास में यह पहला उदाहरण है ,जब इतने व्रद्ध योद्धा ने इस तरह तलवार उठाकर फिरंगी सेना को युद्ध के लिए ललकारा ।
हुकूमत की बुनियाद ढहाये चला जा ।
जवानों को बागी बनाए चला जा ।।
बरस आग बन कर फिरंगी के सर पे।
तकब्बुर की दुनिया ढहाये चला जा ।।
80 वर्ष के" युवा सिंह" इसी लय और जज्वे से भरपूर अंग्रेंजी हुकूमत को तहस -नहस करते हुए एक ऐसी महागाथा छोड़ गये जिसे याद करके हर हिन्दुस्तानी का सिर श्रद्धा से झुक जाता है ।जगदीशपुर के कुंवर सिंह की जीवनगाथा महाकाव्य के महानायक जैसी है ।सत्तावनी क्रांति का सर्वाधिक योग्य सेनानायक ,युद्धकला का महान प्रणेता ,अदम्य साहसी ,1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बिहार स्थित "दानापुर छावनी "के सिपाहियों को अपने नेता के रूप में जिस नायक की प्राप्ति हुई उन्हीं का नाम था वीर कुंवर सिंह ।जैसा नाम बैसा ही किया उन्होंने काम ।
‘खूब लड़ी मर्दानी’ की तरह ही ‘कुंअर सिंह भी बडे वीर मर्दाने योद्धा थे । कविता को प्राचार्य मनोरंजन प्रसाद सिंह ने लिखा था और जब यह 1929 में रामवृक्ष बेनीपुरी के संपादन में निकलने वाली ‘युवक’ में छपी, तो ब्रिटिश सरकार ने इसे तत्काल प्रतिबंधित कर दिया। इस कविता की शुरुआत कुछ इस प्रकार थी ------
था बूढा पर वीर वाकुंडा कुंवर सिंह मर्दाना था।
मस्ती की थी छिड़ी रागिनी आजादी का गाना था।।
भारत के कोने कोने में होता यही तराना था।
उधर खड़ी थी लक्ष्मीबाई और पेशवा नाना था।।
इधर बिहारी-वीर बांकुड़ा खड़ा हुआ मस्ताना था।
अस्सी बरस की हड्डी में जागा जोश पुराना था ।
सब कहते हैं, कुंअर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था। ।
और अंतिम पद कुछ इस प्रकार ---
दुष्मन तट पर पहुंच गए, जब कुंअरसिंह करते थे पार।
गोली आकर लगी बांह में, दायां हाथ हुआ बेकार।
हुई अपावन बाहु जान, बस काट दिया लेकर तलवार।
ले गंगे यह हाथ आज तुझको ही देता हूं उपहार। ।
वीर-भक्त की वही जान्हवी को मानो नजराना था ।
सब कहते हैं कुंबर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था। ।
जीवन परिचय-----
सत्तावनी भारतीय विद्रोह के इस महानायक का जन्म एक कुलीन क्षत्रिय वंश में सन 1777में बिहार के शाहाबाद (अब भोजपुर) जिले के उज्जैनी क्षत्रिय (परमार) राज परिवार में राजा साहबजादा सिंह के यहां हुआ था ।इनकी माता का नाम रानी पंचरत्न देवी था ।ये परिवार राजा विक्रमादित्य और राजाभोज का वंश माना जाता है ।कुंवर सिंह के अपने पिता से विचार नहीं मिलते थे ।वे जितौरा के जंगलों में ही रहा करते थे ।वे वहीँ रह कर जंगली जानवरों का शिकारकिया करते थे और घुड़सवारी के शौक़ीन थे ।उनमें वीरता कूट -कूट करभरी थी ।वे किसी से डरते नहीं थे ।उन्हेंस्वतंत्र जीवन जीना पसंद था ।पिता की मृत्यु के बाद जब 1826 में कुंवर सिंह ने जगदीशपुर की गद्दी संभाली थी ,तब रियासत पर कर्ज का भारी बोझ था ।इसके वाबजूद भीउन्होंने अपने कुशल सूझ -बूझ से जगदीशपुर का विकास ओरविस्तार किया ।नए बाजार बनवाये ,गढ़ के पास मंदिर और तालाबों का निर्माण कराया ।
बंसुरिया बाबा से मिली थी देशभक्ति की प्रेरणा-----
इसमे एक नया नाम की चर्चा आवश्यक है,जिससे कुअंर सिंह पूरी तरह प्रभावित थे ।वह था ---बंसुरिया बाबा ।बंसुरिया बाबा अपने घर से रुष्ट होकर भागा हुआ एक स्वाभिमानी व्यक्ति था।उसने दावा के जंगलों में सिद्धि प्राप्त की थी ।बाद में एक दिन कुअंर सिंह के दरबार में आकर उसने सबको प्रेरित किया ----"अंग्रेजों से डटकर लड़ना हमारा कर्तव्य है ।"उसने आम लोगों से उसके लिए अपील भी की ।उन्हें अहसास दिलाया---"फिरंगी खतरनाक बनिये है और मानव विरोधी है ।वे साम्राज्यवादी है ।फुट डाल कर हमें लूट रहे है और हमारे भाइयों की हत्या कर रहे है ।"बंसुरिया बाबा की बांसुरी में देश-प्रेम की अद्भुत मिठास और देश -प्रेम का जज्बा था जिसका कुंवर सिंह पर बहुत गहरा प्रभाव देश -भक्ति का पड़ा ।आजादी की लड़ाई और कुअंर सिंह का साथ देनेमें उसने अभूतपूर्व मिसाल पेश की थी ।
बिहार में विद्रोहियों का किया कुशल नेतृत्व -----
बाबू वीर कुंअर सिंह (1777-1858)विदेशी शासन के खिलाफ लोगों द्वारा छेड़े गए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857-58)के नायकों में से एक थे ।1857के विद्रोह। के दौरान इस देदीप्यमान व्यक्ति ने ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों से डट कर मुकावला किया ।वीर कुंवर सिंह जी जगदीशपुर ,निकट आरा ,जो वर्तमान में भोजपुर का एक भाग है ,के राजपूत घराने के जमींदार थे ।भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने ब्रिटिश सेना के खिलाफ सशस्त्र बलौ के एक दल का कुशल नेतृत्व किया ।80 वर्षकी व्रद्ध अवस्था के बाबजूद ,उनके नाम ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों में भय उत्पन्न कर देता था ।उन्होंने कई स्थानों परब्रटिश सेना को कड़ी चुनौती दी ।ऐसा लगता था कि कुंअर सिंह के कारण पूरा पश्चिमी बिहार विद्रोह की आग में जल उठेगा और ब्रिटिश नियंत्रण से बाहर हो जायेगा ।वह बिहार के अंतिम शेर थे ।उनकेनेत्रत्व में बिहार के राजपूतों ने अंग्रेजों के विरुद्ध जो सशस्त्र संघर्ष किया वह इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ है ।उनके संघर्ष की दास्तांन ,बिहार के कोने -कोने में गांव -गांव में चर्चित रही है ।किन्तु इसे दुर्भाग्यही कहा जायगा क़ि राजपूतों का अंग्रेजों के विरुद्ध यह संघर्ष देश के कोने -कोने में न जाना जा सका है ,न पढ़ा जा सका है ।जन साधारण तो बहुत दूर की बात है ,आम राजपूतो को भी कुअंर सिंह पंवार के संघर्ष ,उनके त्याग ,वीरता ,साहस ,शौर्य और बलिदान की कोई विशेष जानकारी नही है ।
अंग्रेजों के विरुद्ध बिहार में विद्रोह का प्रारम्भ 12जून 1857को हुआ ।25जुलाई ,1857 को दानापुर छावनी में जब अंग्रेज अधिकारियों ने सैनिकों को शस्त्र जमा करा देने का आदेश दिया तो वहां भी विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी ।26 जुलाई को विद्रोही पलटन मुक्ति सेना के रूप में आरा पहुँच गई ।मुक्ति सेना ने उसी क्षेत्र के जगदीशपुर निवासी 80 वर्षीय कुंअर सिंह पंवार को अपना सर्वोच्च नेता स्वीकार किया और प्रधान शासक के रूप में उनका अभिषेक किया ।कुंअर सिंह पंवार छापामार युद्ध के विशेषज्ञ माने गये ।
उत्तरप्रदेश में भी दिखाए हाथ -------
कुछ समय बाद कुअंर सिंह अपनी सेना की एक टुकड़ी के साथ युद्ध का मूल्यांकन करने तथा उसको नया आयाम देने के उदेश्य से 1858के प्रारम्भ में सासाराम ,रोहतास ,मिर्जापुर /रींवा ,बांदा ,कालपी ,कानपूर के प्रमुख विद्रोही नायकों से संपर्क करते हुए मार्च के प्रारम्भ में लखनऊ पहुंचे जहां उनका क्रांतिकारियों ने बड़ा सम्मान किया।अवध के राजा ने उन्हें शाही पोशाक से सम्मानित किया और आजमगढ़ जिले में आने वाले क्षेत्र की जागीर प्रदान की ।मार्च ,1858 में उन्होंने आजमगढ़ को अधिकृत कर लिया ।22मार्च 1858 को कुंअर सिंह जी और उनके साथियों ने अतरौलिया पर बहुत बड़ा आकस्मिक हमला किया और कर्नल मिलमैन के नेतृत्व वाले ब्रिटिश बलों को आजमगढ़ तक वापिस खदेड़ दिया कुंअर सिंह की सेना में 5 से 12 हजार तक सिपाही थे जो उनकी बेजोड़ संगठन श
क्ति के परिचायक थे ।कुंअर सिंह जी द्वारा उस क्षेत्र के घेराव से ब्रिटिश अधिकारीयों को पुरे क्षेत्र की पराजय का भय और अधिक बढ़ गया ।गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग को स्थिति से निपटने के लिए अत्यावश्यक उपाय करने पड़े क्यों कि कुंअर सिंह के साहस व् शौर्य से वे परिचित थे ।ब्रिटिश सेना के नये -नए दस्ते आते रहे ,परन्तु कुंअर सिंह ने उन्हें बार -बार क्रांतिकारियों के नियंत्रण में लड़ाई में रखा ।
फिर लौटे बिहार -----
15अप्रैल 1858 को जनरल लुगार्ड से कुंअर सिंह जी की आजमगढ़ में ही सामना हो गया जिसमें वे अविजित रहे किन्तु अगले ही दिन उन्होंने आरा लौट जाने का कार्यक्रम बना लिया ।वे 18अप्रैल को बलिया के नगरा सिकंदरपुर होते हुए मनिथर आये और वहीँ पड़ाव डाल दिया ।20 अप्रैल को कैप्टेन डगलस ने उनकी सेना पर आक्रमण कर दिया किन्तु कुंअर सिंह जी अपनी सेना को बचाकर शिबपुर घाट पहुंचा देने में सफल होगये ।उन्होंने उसी दिन गंगा पार कर लिया ,किन्तु गंगा नदी पार करते समय अंग्रेजी सेना ने उनकी नाव पर भयंकर गोलिया चलायी जिससे एक गोली कुंवर सिंह जी की बाह में लगी ।
हाथ काटकर गंगा को कर दिया था समर्पित-----
ऐसा कहा जाता है कि गोली का शरीर में जहर फैलने की बजह से कुंअर सिंह जी ने अपना एक हाथ स्वयं तलवार से काट कर गंगा को भेंट कर दिया और गंगा पार कर हाथी पर सवार होकर 22 अप्रैल 1858 को अपने गृह नगर जगदीशपुर पहुँच गये । उस समय वे घायल थे ।
23 अप्रैल 1858 को जगदीशपुर में हुआ था ऐतिहासिक युद्ध-----
23 अप्रैल को अंग्रेज सेना तोपों से सुसज्जित होकर उनका पीछा करते हुए उनके गृह निवास जगदीशपुर तक पहुँच गई जहाँ एक ऐतिहासिक युद्ध हुआ ।कैप्टन ली गैंड के नेतृत्व में एक सैनिक टुकड़ी के साथ कुंअर सिंह की अंतिम और निर्णायक लड़ाई लड़ी गयी ,जिसमें कुंअर सिंह को विजयश्री मिली । पुरे क्षेत्र की जनता विजय के उल्लास में झूम उठी।अंग्रेज कमांडर ली ग्रैंड भी मारा गया ।इस लड़ाई में उनके भाई अमर सिंह ,हरे कृष्ण सिंह तथा अन्य की भूमिका बहुत सराहनीय थी ।इस युद्ध में अंग्रेजों को भारी हानि उठानी पड़ी ।
मगर व्रद्ध अवस्था और अनवरत युद्ध करते -करते थकने तथा घायल होने से कुंअर सिंह की अंतिम यात्रा का समय भी निकट आगया ।सो इस लंबे युद्ध का अंतिम विजय का उल्लास तीन दिनों के बाद ही समाप्त हो गया अर्थात 26अप्रैल 1858 को कुंअर सिंह का स्वर्गवास हो गया ।किन्तु जगदीशपुर और बिहार के विद्रोहियों के लिए संघर्ष की एक लम्बी यात्रा तय करना शेष था ।कुंअर सिंह की मृत्यु के बाद यह उत्तरदायित्व उनके भाई अमर सिंह और हरे कृष्ण सिंह के कन्धों पर आगया ।बिरगेडियर लुगार्ड ने 9 मई 1858 को जब आक्रमण किया तो पाया ---"वीर कुंअर सिंह के अनुयायी अपने दुधर्ष नेता की मृत्यु से विचलित नहीं हुये एवं उनके भाई अमर सिंह तथा हरि किशन सिंह के नेतृत्व में टिके रहे "। बाबु कुंअर सिंह विजेता के रूप में इस भारत भूमि से हमेशा के लिए विदा होगये ।भयंकर लड़ाइयों के बावजूद उन्होंने राजपूतों की शानदार परम्परा को बरकरार रखा।
उनकी शहादत के साथ ही सन् 1857 के उस अदभूत सैनानी का अंत हो गया जिसका इतिहासकारों ने एक महान सैनिक नेता के रूप में मूलयांकन किया है ।
गुरिल्ला युद्ध में थी महारत -----
ओजस्वी व्यक्तित्व तथा छापामार युद्ध में अपनी अदभुत प्रवीणता तथा अनेक सैनिक सफलताओं से विद्रोह के प्रमुख स्तम्भ बन गये थे ।अनेक इतिहासकारों ने स्वीकार किया कि उनमें वीर शिवाजी जैसा तेज था ।कुंअर सिंह की प्रशंसा करते हुऐ मेजर विंसेट आयर ने स्वयं कहा था ---"बाबू कुंअर सिंह युद्ध कला का जादूगर है ।हम लोग उसके सामने असहाय है ।"
जीवन में पहली बार ठाकुर की आँखों में आये थे आँसू-----
जब कुंअर सिंह गोली लगने और हाथ काटने से बुरी तरह जख्मी हो गये थे ,तब वे जगदीशपुर चले गये थे ।उनके भाई अमर सिंह के नेतृत्व में छापामार युद्ध चल रहा था ।अमर सिंह अंग्रेजों के छक्के छुड़ा रहे थे ।अस्वस्थ कुंअर सिंह ने अपने एक खास सहयोगी से कहा ---" बुझावन सिंह ,अमर युद्ध में अकेले पड़ रहे है ।मैं उसे बहुत प्यार करता हूँ ।इस समय मैं उनके साथ जाने की स्थित में नहीं हूँ ।इस धर्म युद्ध में तुम मेरी जगह जाओ।"बुझावन सिंह बहुत वीरता से लड़ा ।जब युद्ध इन अंग्रेज अफसर लूथर की हत्या अमर सिंह के द्वारा की गई लेकिन अमर सिंह को दूसरे अंग्रेज के प्रहार से बचाने में बुझावन सिंह शहीद होगया ।अगर बुझावन सिंह मेरे सामने आकर अपनी छाती नहीं करता तो अंग्रेज का भाला मेरी छाती में लागजाता और मैं आपके सामने नही होता ये बात अमर सिंह नेअपने भाई कुंअर सिंह को बताई ।लड़ाई के इस अभियान को बुझावन सिंहने ही पूरा किया ।अतः ये मेरी जीत नही बुझावन सिंह की जीत है ।यह सुनकर ठाकुर की जीवनमें पहली बारआँखें आंसुओं से डब डबा आईं । कुंअर सिंह ने कहा ---"अमर !इसी अहाते में पश्चिमी छोर पर कहीं उसे दफनाओ ताकि शहीदों के निशान भविष्य में भी रहें ।मेरा इतिहास केवल कागज के कुछ पन्नों में सिमिटा रहेगा ,लेकिन बुझावन की यह कब्र सभी शहीदों की कब्र होगी ।"इस लिये बुझावन की लाश उनके किले केभीतर ही दफनाई गई ।कहते है वह कब्र आज भी मौजूद है ।उल्लेखनीय है कि बुझावन सिंह भी राजपूत था ,लेकिन औरंगजेब के ज़माने में उसके पूर्वजों को मुस्लमान बना दिया गया था ।----खैर, जो भी हो ,बुझावन सिंह सच्चा देशभक्त और स्वतंत्रता का अमर वीर सिपाही था ।
सन सत्तावन की क्रांति के समय 80 वर्ष की आयु में कुंअर सिंह ने जिस वीरता रणक्षेत्र की चतुराई ,युद्धकौशल अपार साहस का परिचय दिया ,वह दुर्लभ है ।किसी देश के नायक के लिए जिन गुणों को शास्त्र ने अनिवार्य बताया है ,वे सब तो उनमें मिलते हैं है ,उनके व्यक्तित्व में असाधारणता का एकमौलिक गुण यह भी जुड़ जाता है कि दुनिया के इतिहास में संभवतया वे ऐसे पहले योद्धा है ,जिसने उम्र के चौथेपन में न केवल तलवार उठाई ,बल्कि मजदूरों और किसानों को उत्पीड़क सरकार के खिलाफ संगठित भी किया ।
कुंअर सिंह ने अंग्रेजों केविरुद्ध केवल निरंतर संघर्ष ही नहीं किया ,बल्कि उन्होंने देशभर के राजाओं ,जमींदारों ,विभिन्न जाति और धर्मों के बिखरे हुये लोगों को एक राष्ट्रसूत्र में पिरोने काभी काम किया ।यद्धपि वे एक जमींदार थे ,लेंकिन उन्होंने आम लोगों के लिए नहर ,बांध ,व्रक्षारोपन , विद्यालय और अस्पताल खोलने जैसे पुनीति कार्य भीकिये थे ।कुंअर सिंह को बिहार शासन प्रति वर्ष 23 अप्रैल को "विजयदिवस"मनाकर याद करता है ।इतिहास और वर्तमानके सन्दर्भ में हमारा मानना है कि जिस कुंअर सिंह लोकमानस में जीवंत नायक है ,उसी प्रकार उनके विशेष अवदानों के अनुकूल उन्हें "लोकनायक"की उपाधि से विभूषित किया जाना चाहिए ,जो इतिहास के वर्तमान ,भूत और भविष्य तीनों कालों के लिए बिल्कुल उपयुक्त प्रतीत होता है ।
वे इतने लोकप्रिय हुए कि भोजपुर जिले का बच्चा -बच्चा उनके बलिदान को आज तक स्मरण करता है।मैं ऐसे महान स्वतंत्रता सैनानी को सत् -सत् नमन करता हूँऔर आशा करता हूँ कि हमारे समाज की नई पीढ़ी उनके आदर्शों से प्रेरणा लेकर इस आजादी को अक्षुण्ण बनाए रखने में हर संभव त्याग करे;क्यों कि जो समाज अपने इतिहास -पूर्वजों के त्याग ,बलिदान,सत्यपरायणता, शौर्य ,वीरता ,देशभक्ति ,मातृभूमि से प्रेम एवंम अन्य अवदानों को भुला देता है ,वह अपने वर्तमान के प्रति कृतघ्न होता है तथा अपना भविष्य सुरक्षित नहीं रख सकता ।जय हिन्द ।जय राजपूताना ।
लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव -लढोता ,सासनी ,जिला -हाथरस ,उत्तरप्रदेश ।
मिडिया एडवाइजर नार्थ इंडिया
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा
(अध्यक्ष ,महाराजा दिग्विजय सिंह जी वांकानेर ,कार्यकारी अध्यक्ष,माननीय महेंद्र सिंह जी
(26 अप्रैल बाबु वीर कुंवर सिंह की पुण्यतिथि पर समर्पित)
देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में एक ऐसा भी "सिंह"था ,जिसकी 80 साल की उम्र में भी दहाड़ से अंग्रेजों के छक्के छूट जाते थे ।ये नायक थे बिहार के बाबू कुंवर सिंह ।दुनिया के इतिहास में यह पहला उदाहरण है ,जब इतने व्रद्ध योद्धा ने इस तरह तलवार उठाकर फिरंगी सेना को युद्ध के लिए ललकारा ।
हुकूमत की बुनियाद ढहाये चला जा ।
जवानों को बागी बनाए चला जा ।।
बरस आग बन कर फिरंगी के सर पे।
तकब्बुर की दुनिया ढहाये चला जा ।।
80 वर्ष के" युवा सिंह" इसी लय और जज्वे से भरपूर अंग्रेंजी हुकूमत को तहस -नहस करते हुए एक ऐसी महागाथा छोड़ गये जिसे याद करके हर हिन्दुस्तानी का सिर श्रद्धा से झुक जाता है ।जगदीशपुर के कुंवर सिंह की जीवनगाथा महाकाव्य के महानायक जैसी है ।सत्तावनी क्रांति का सर्वाधिक योग्य सेनानायक ,युद्धकला का महान प्रणेता ,अदम्य साहसी ,1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बिहार स्थित "दानापुर छावनी "के सिपाहियों को अपने नेता के रूप में जिस नायक की प्राप्ति हुई उन्हीं का नाम था वीर कुंवर सिंह ।जैसा नाम बैसा ही किया उन्होंने काम ।
‘खूब लड़ी मर्दानी’ की तरह ही ‘कुंअर सिंह भी बडे वीर मर्दाने योद्धा थे । कविता को प्राचार्य मनोरंजन प्रसाद सिंह ने लिखा था और जब यह 1929 में रामवृक्ष बेनीपुरी के संपादन में निकलने वाली ‘युवक’ में छपी, तो ब्रिटिश सरकार ने इसे तत्काल प्रतिबंधित कर दिया। इस कविता की शुरुआत कुछ इस प्रकार थी ------
था बूढा पर वीर वाकुंडा कुंवर सिंह मर्दाना था।
मस्ती की थी छिड़ी रागिनी आजादी का गाना था।।
भारत के कोने कोने में होता यही तराना था।
उधर खड़ी थी लक्ष्मीबाई और पेशवा नाना था।।
इधर बिहारी-वीर बांकुड़ा खड़ा हुआ मस्ताना था।
अस्सी बरस की हड्डी में जागा जोश पुराना था ।
सब कहते हैं, कुंअर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था। ।
और अंतिम पद कुछ इस प्रकार ---
दुष्मन तट पर पहुंच गए, जब कुंअरसिंह करते थे पार।
गोली आकर लगी बांह में, दायां हाथ हुआ बेकार।
हुई अपावन बाहु जान, बस काट दिया लेकर तलवार।
ले गंगे यह हाथ आज तुझको ही देता हूं उपहार। ।
वीर-भक्त की वही जान्हवी को मानो नजराना था ।
सब कहते हैं कुंबर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था। ।
जीवन परिचय-----
सत्तावनी भारतीय विद्रोह के इस महानायक का जन्म एक कुलीन क्षत्रिय वंश में सन 1777में बिहार के शाहाबाद (अब भोजपुर) जिले के उज्जैनी क्षत्रिय (परमार) राज परिवार में राजा साहबजादा सिंह के यहां हुआ था ।इनकी माता का नाम रानी पंचरत्न देवी था ।ये परिवार राजा विक्रमादित्य और राजाभोज का वंश माना जाता है ।कुंवर सिंह के अपने पिता से विचार नहीं मिलते थे ।वे जितौरा के जंगलों में ही रहा करते थे ।वे वहीँ रह कर जंगली जानवरों का शिकारकिया करते थे और घुड़सवारी के शौक़ीन थे ।उनमें वीरता कूट -कूट करभरी थी ।वे किसी से डरते नहीं थे ।उन्हेंस्वतंत्र जीवन जीना पसंद था ।पिता की मृत्यु के बाद जब 1826 में कुंवर सिंह ने जगदीशपुर की गद्दी संभाली थी ,तब रियासत पर कर्ज का भारी बोझ था ।इसके वाबजूद भीउन्होंने अपने कुशल सूझ -बूझ से जगदीशपुर का विकास ओरविस्तार किया ।नए बाजार बनवाये ,गढ़ के पास मंदिर और तालाबों का निर्माण कराया ।
बंसुरिया बाबा से मिली थी देशभक्ति की प्रेरणा-----
इसमे एक नया नाम की चर्चा आवश्यक है,जिससे कुअंर सिंह पूरी तरह प्रभावित थे ।वह था ---बंसुरिया बाबा ।बंसुरिया बाबा अपने घर से रुष्ट होकर भागा हुआ एक स्वाभिमानी व्यक्ति था।उसने दावा के जंगलों में सिद्धि प्राप्त की थी ।बाद में एक दिन कुअंर सिंह के दरबार में आकर उसने सबको प्रेरित किया ----"अंग्रेजों से डटकर लड़ना हमारा कर्तव्य है ।"उसने आम लोगों से उसके लिए अपील भी की ।उन्हें अहसास दिलाया---"फिरंगी खतरनाक बनिये है और मानव विरोधी है ।वे साम्राज्यवादी है ।फुट डाल कर हमें लूट रहे है और हमारे भाइयों की हत्या कर रहे है ।"बंसुरिया बाबा की बांसुरी में देश-प्रेम की अद्भुत मिठास और देश -प्रेम का जज्बा था जिसका कुंवर सिंह पर बहुत गहरा प्रभाव देश -भक्ति का पड़ा ।आजादी की लड़ाई और कुअंर सिंह का साथ देनेमें उसने अभूतपूर्व मिसाल पेश की थी ।
बिहार में विद्रोहियों का किया कुशल नेतृत्व -----
बाबू वीर कुंअर सिंह (1777-1858)विदेशी शासन के खिलाफ लोगों द्वारा छेड़े गए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857-58)के नायकों में से एक थे ।1857के विद्रोह। के दौरान इस देदीप्यमान व्यक्ति ने ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों से डट कर मुकावला किया ।वीर कुंवर सिंह जी जगदीशपुर ,निकट आरा ,जो वर्तमान में भोजपुर का एक भाग है ,के राजपूत घराने के जमींदार थे ।भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने ब्रिटिश सेना के खिलाफ सशस्त्र बलौ के एक दल का कुशल नेतृत्व किया ।80 वर्षकी व्रद्ध अवस्था के बाबजूद ,उनके नाम ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों में भय उत्पन्न कर देता था ।उन्होंने कई स्थानों परब्रटिश सेना को कड़ी चुनौती दी ।ऐसा लगता था कि कुंअर सिंह के कारण पूरा पश्चिमी बिहार विद्रोह की आग में जल उठेगा और ब्रिटिश नियंत्रण से बाहर हो जायेगा ।वह बिहार के अंतिम शेर थे ।उनकेनेत्रत्व में बिहार के राजपूतों ने अंग्रेजों के विरुद्ध जो सशस्त्र संघर्ष किया वह इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ है ।उनके संघर्ष की दास्तांन ,बिहार के कोने -कोने में गांव -गांव में चर्चित रही है ।किन्तु इसे दुर्भाग्यही कहा जायगा क़ि राजपूतों का अंग्रेजों के विरुद्ध यह संघर्ष देश के कोने -कोने में न जाना जा सका है ,न पढ़ा जा सका है ।जन साधारण तो बहुत दूर की बात है ,आम राजपूतो को भी कुअंर सिंह पंवार के संघर्ष ,उनके त्याग ,वीरता ,साहस ,शौर्य और बलिदान की कोई विशेष जानकारी नही है ।
अंग्रेजों के विरुद्ध बिहार में विद्रोह का प्रारम्भ 12जून 1857को हुआ ।25जुलाई ,1857 को दानापुर छावनी में जब अंग्रेज अधिकारियों ने सैनिकों को शस्त्र जमा करा देने का आदेश दिया तो वहां भी विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी ।26 जुलाई को विद्रोही पलटन मुक्ति सेना के रूप में आरा पहुँच गई ।मुक्ति सेना ने उसी क्षेत्र के जगदीशपुर निवासी 80 वर्षीय कुंअर सिंह पंवार को अपना सर्वोच्च नेता स्वीकार किया और प्रधान शासक के रूप में उनका अभिषेक किया ।कुंअर सिंह पंवार छापामार युद्ध के विशेषज्ञ माने गये ।
उत्तरप्रदेश में भी दिखाए हाथ -------
कुछ समय बाद कुअंर सिंह अपनी सेना की एक टुकड़ी के साथ युद्ध का मूल्यांकन करने तथा उसको नया आयाम देने के उदेश्य से 1858के प्रारम्भ में सासाराम ,रोहतास ,मिर्जापुर /रींवा ,बांदा ,कालपी ,कानपूर के प्रमुख विद्रोही नायकों से संपर्क करते हुए मार्च के प्रारम्भ में लखनऊ पहुंचे जहां उनका क्रांतिकारियों ने बड़ा सम्मान किया।अवध के राजा ने उन्हें शाही पोशाक से सम्मानित किया और आजमगढ़ जिले में आने वाले क्षेत्र की जागीर प्रदान की ।मार्च ,1858 में उन्होंने आजमगढ़ को अधिकृत कर लिया ।22मार्च 1858 को कुंअर सिंह जी और उनके साथियों ने अतरौलिया पर बहुत बड़ा आकस्मिक हमला किया और कर्नल मिलमैन के नेतृत्व वाले ब्रिटिश बलों को आजमगढ़ तक वापिस खदेड़ दिया कुंअर सिंह की सेना में 5 से 12 हजार तक सिपाही थे जो उनकी बेजोड़ संगठन श
क्ति के परिचायक थे ।कुंअर सिंह जी द्वारा उस क्षेत्र के घेराव से ब्रिटिश अधिकारीयों को पुरे क्षेत्र की पराजय का भय और अधिक बढ़ गया ।गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग को स्थिति से निपटने के लिए अत्यावश्यक उपाय करने पड़े क्यों कि कुंअर सिंह के साहस व् शौर्य से वे परिचित थे ।ब्रिटिश सेना के नये -नए दस्ते आते रहे ,परन्तु कुंअर सिंह ने उन्हें बार -बार क्रांतिकारियों के नियंत्रण में लड़ाई में रखा ।
फिर लौटे बिहार -----
15अप्रैल 1858 को जनरल लुगार्ड से कुंअर सिंह जी की आजमगढ़ में ही सामना हो गया जिसमें वे अविजित रहे किन्तु अगले ही दिन उन्होंने आरा लौट जाने का कार्यक्रम बना लिया ।वे 18अप्रैल को बलिया के नगरा सिकंदरपुर होते हुए मनिथर आये और वहीँ पड़ाव डाल दिया ।20 अप्रैल को कैप्टेन डगलस ने उनकी सेना पर आक्रमण कर दिया किन्तु कुंअर सिंह जी अपनी सेना को बचाकर शिबपुर घाट पहुंचा देने में सफल होगये ।उन्होंने उसी दिन गंगा पार कर लिया ,किन्तु गंगा नदी पार करते समय अंग्रेजी सेना ने उनकी नाव पर भयंकर गोलिया चलायी जिससे एक गोली कुंवर सिंह जी की बाह में लगी ।
हाथ काटकर गंगा को कर दिया था समर्पित-----
ऐसा कहा जाता है कि गोली का शरीर में जहर फैलने की बजह से कुंअर सिंह जी ने अपना एक हाथ स्वयं तलवार से काट कर गंगा को भेंट कर दिया और गंगा पार कर हाथी पर सवार होकर 22 अप्रैल 1858 को अपने गृह नगर जगदीशपुर पहुँच गये । उस समय वे घायल थे ।
23 अप्रैल 1858 को जगदीशपुर में हुआ था ऐतिहासिक युद्ध-----
23 अप्रैल को अंग्रेज सेना तोपों से सुसज्जित होकर उनका पीछा करते हुए उनके गृह निवास जगदीशपुर तक पहुँच गई जहाँ एक ऐतिहासिक युद्ध हुआ ।कैप्टन ली गैंड के नेतृत्व में एक सैनिक टुकड़ी के साथ कुंअर सिंह की अंतिम और निर्णायक लड़ाई लड़ी गयी ,जिसमें कुंअर सिंह को विजयश्री मिली । पुरे क्षेत्र की जनता विजय के उल्लास में झूम उठी।अंग्रेज कमांडर ली ग्रैंड भी मारा गया ।इस लड़ाई में उनके भाई अमर सिंह ,हरे कृष्ण सिंह तथा अन्य की भूमिका बहुत सराहनीय थी ।इस युद्ध में अंग्रेजों को भारी हानि उठानी पड़ी ।
मगर व्रद्ध अवस्था और अनवरत युद्ध करते -करते थकने तथा घायल होने से कुंअर सिंह की अंतिम यात्रा का समय भी निकट आगया ।सो इस लंबे युद्ध का अंतिम विजय का उल्लास तीन दिनों के बाद ही समाप्त हो गया अर्थात 26अप्रैल 1858 को कुंअर सिंह का स्वर्गवास हो गया ।किन्तु जगदीशपुर और बिहार के विद्रोहियों के लिए संघर्ष की एक लम्बी यात्रा तय करना शेष था ।कुंअर सिंह की मृत्यु के बाद यह उत्तरदायित्व उनके भाई अमर सिंह और हरे कृष्ण सिंह के कन्धों पर आगया ।बिरगेडियर लुगार्ड ने 9 मई 1858 को जब आक्रमण किया तो पाया ---"वीर कुंअर सिंह के अनुयायी अपने दुधर्ष नेता की मृत्यु से विचलित नहीं हुये एवं उनके भाई अमर सिंह तथा हरि किशन सिंह के नेतृत्व में टिके रहे "। बाबु कुंअर सिंह विजेता के रूप में इस भारत भूमि से हमेशा के लिए विदा होगये ।भयंकर लड़ाइयों के बावजूद उन्होंने राजपूतों की शानदार परम्परा को बरकरार रखा।
उनकी शहादत के साथ ही सन् 1857 के उस अदभूत सैनानी का अंत हो गया जिसका इतिहासकारों ने एक महान सैनिक नेता के रूप में मूलयांकन किया है ।
गुरिल्ला युद्ध में थी महारत -----
ओजस्वी व्यक्तित्व तथा छापामार युद्ध में अपनी अदभुत प्रवीणता तथा अनेक सैनिक सफलताओं से विद्रोह के प्रमुख स्तम्भ बन गये थे ।अनेक इतिहासकारों ने स्वीकार किया कि उनमें वीर शिवाजी जैसा तेज था ।कुंअर सिंह की प्रशंसा करते हुऐ मेजर विंसेट आयर ने स्वयं कहा था ---"बाबू कुंअर सिंह युद्ध कला का जादूगर है ।हम लोग उसके सामने असहाय है ।"
जीवन में पहली बार ठाकुर की आँखों में आये थे आँसू-----
जब कुंअर सिंह गोली लगने और हाथ काटने से बुरी तरह जख्मी हो गये थे ,तब वे जगदीशपुर चले गये थे ।उनके भाई अमर सिंह के नेतृत्व में छापामार युद्ध चल रहा था ।अमर सिंह अंग्रेजों के छक्के छुड़ा रहे थे ।अस्वस्थ कुंअर सिंह ने अपने एक खास सहयोगी से कहा ---" बुझावन सिंह ,अमर युद्ध में अकेले पड़ रहे है ।मैं उसे बहुत प्यार करता हूँ ।इस समय मैं उनके साथ जाने की स्थित में नहीं हूँ ।इस धर्म युद्ध में तुम मेरी जगह जाओ।"बुझावन सिंह बहुत वीरता से लड़ा ।जब युद्ध इन अंग्रेज अफसर लूथर की हत्या अमर सिंह के द्वारा की गई लेकिन अमर सिंह को दूसरे अंग्रेज के प्रहार से बचाने में बुझावन सिंह शहीद होगया ।अगर बुझावन सिंह मेरे सामने आकर अपनी छाती नहीं करता तो अंग्रेज का भाला मेरी छाती में लागजाता और मैं आपके सामने नही होता ये बात अमर सिंह नेअपने भाई कुंअर सिंह को बताई ।लड़ाई के इस अभियान को बुझावन सिंहने ही पूरा किया ।अतः ये मेरी जीत नही बुझावन सिंह की जीत है ।यह सुनकर ठाकुर की जीवनमें पहली बारआँखें आंसुओं से डब डबा आईं । कुंअर सिंह ने कहा ---"अमर !इसी अहाते में पश्चिमी छोर पर कहीं उसे दफनाओ ताकि शहीदों के निशान भविष्य में भी रहें ।मेरा इतिहास केवल कागज के कुछ पन्नों में सिमिटा रहेगा ,लेकिन बुझावन की यह कब्र सभी शहीदों की कब्र होगी ।"इस लिये बुझावन की लाश उनके किले केभीतर ही दफनाई गई ।कहते है वह कब्र आज भी मौजूद है ।उल्लेखनीय है कि बुझावन सिंह भी राजपूत था ,लेकिन औरंगजेब के ज़माने में उसके पूर्वजों को मुस्लमान बना दिया गया था ।----खैर, जो भी हो ,बुझावन सिंह सच्चा देशभक्त और स्वतंत्रता का अमर वीर सिपाही था ।
सन सत्तावन की क्रांति के समय 80 वर्ष की आयु में कुंअर सिंह ने जिस वीरता रणक्षेत्र की चतुराई ,युद्धकौशल अपार साहस का परिचय दिया ,वह दुर्लभ है ।किसी देश के नायक के लिए जिन गुणों को शास्त्र ने अनिवार्य बताया है ,वे सब तो उनमें मिलते हैं है ,उनके व्यक्तित्व में असाधारणता का एकमौलिक गुण यह भी जुड़ जाता है कि दुनिया के इतिहास में संभवतया वे ऐसे पहले योद्धा है ,जिसने उम्र के चौथेपन में न केवल तलवार उठाई ,बल्कि मजदूरों और किसानों को उत्पीड़क सरकार के खिलाफ संगठित भी किया ।
कुंअर सिंह ने अंग्रेजों केविरुद्ध केवल निरंतर संघर्ष ही नहीं किया ,बल्कि उन्होंने देशभर के राजाओं ,जमींदारों ,विभिन्न जाति और धर्मों के बिखरे हुये लोगों को एक राष्ट्रसूत्र में पिरोने काभी काम किया ।यद्धपि वे एक जमींदार थे ,लेंकिन उन्होंने आम लोगों के लिए नहर ,बांध ,व्रक्षारोपन , विद्यालय और अस्पताल खोलने जैसे पुनीति कार्य भीकिये थे ।कुंअर सिंह को बिहार शासन प्रति वर्ष 23 अप्रैल को "विजयदिवस"मनाकर याद करता है ।इतिहास और वर्तमानके सन्दर्भ में हमारा मानना है कि जिस कुंअर सिंह लोकमानस में जीवंत नायक है ,उसी प्रकार उनके विशेष अवदानों के अनुकूल उन्हें "लोकनायक"की उपाधि से विभूषित किया जाना चाहिए ,जो इतिहास के वर्तमान ,भूत और भविष्य तीनों कालों के लिए बिल्कुल उपयुक्त प्रतीत होता है ।
वे इतने लोकप्रिय हुए कि भोजपुर जिले का बच्चा -बच्चा उनके बलिदान को आज तक स्मरण करता है।मैं ऐसे महान स्वतंत्रता सैनानी को सत् -सत् नमन करता हूँऔर आशा करता हूँ कि हमारे समाज की नई पीढ़ी उनके आदर्शों से प्रेरणा लेकर इस आजादी को अक्षुण्ण बनाए रखने में हर संभव त्याग करे;क्यों कि जो समाज अपने इतिहास -पूर्वजों के त्याग ,बलिदान,सत्यपरायणता, शौर्य ,वीरता ,देशभक्ति ,मातृभूमि से प्रेम एवंम अन्य अवदानों को भुला देता है ,वह अपने वर्तमान के प्रति कृतघ्न होता है तथा अपना भविष्य सुरक्षित नहीं रख सकता ।जय हिन्द ।जय राजपूताना ।
लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव -लढोता ,सासनी ,जिला -हाथरस ,उत्तरप्रदेश ।
मिडिया एडवाइजर नार्थ इंडिया
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा
(अध्यक्ष ,महाराजा दिग्विजय सिंह जी वांकानेर ,कार्यकारी अध्यक्ष,माननीय महेंद्र सिंह जी